कैसे हिंदुओं को जाति में बांटा गया?


हर काल में इतिहास को दोहराया गया। इस बार इतिहास फिर दोहराया जा रहा है। वर्तमान में भारत की राजनीति हिन्दुओं को आपस में बांटकर सत्ता का सुख भोगने में  कुशल हो चुकी है। ये बांटने वाले लोग कौन हैं? इतिहास में या कथाओं में वही लिखा जाता है जो 'विजयी' लिखवाता है। हम हारी हुई कौम हैं। अपने ही लोगों से हारी हुई कौम। हमें किसी तुर्क, ईरानी, अरबी, पुर्तगाली, फ्रांसिस या अंग्रेजों ने नहीं अपने ही लोगों ने बाहरी लोगों के साथ मिलकर हराया है। क्यों?

जातिवाद से संबंधित संघर्ष भारत में आए दिन होता ही रहता है, लेकिन भारतीय मुसलमान, हिन्दू और अन्य यह नहीं जानते हैं कि यह सब आखिर क्यों हो रहा है। धर्म के लिए, राज्य के लिए या किसी और के लिए। यदि भारतीय मुसलमान और हिन्दू अपने देश का पिछले 1000 वर्षों के इतिहास का गहन अध्ययन करें तो शायद पता चलेगा कि हम क्या थे और अब क्या हो गए।


आज भारतीयों के बीच इस कदर फूट डाल दी गई है कि अब मुश्किल है यह समझना कि हिंदू या मुसलमान, दलित या ब्राह्मण कोई और नहीं यह उनका अपना ही खून है और वह अपने ही खून के खिलाफ क्यों हैं? आज मुगलों और अंग्रेजों की सचाई बताना गुनाह माना जाता है। वे लोग तो चले गए लेकिन हमारे बीच ही फर्क डालकर चले गए।

ग्रंथों के साथ छेड़खानी : प्राचीन काल में धर्म से संचालित होता था राज्य। हमारे धर्म ग्रंथ लिखने वाले और समाज को रचने वाले ऋषि-मुनी जब विदा हो गए तब राजा और पुरोहितों में सांठगाठ से राज्य का शासन चलने लगा। धीरे-धीरे अनुयायियों की फौज ने धर्म को बदल दिया। बौद्ध काल ऐसा काल था जबकि हिन्दू ग्रंथों के साथ छेड़खानी की जाने लगी। फिर मुगल काल में और बाद में अंग्रेजों ने सत्यानाश कर दिया। अंतत: कहना होगा की साम्यवादी, व्यापारिक और राजनीतिक सोच ने बिगाड़ा धर्म को।

इसकी क्या ग्यारंटी है कि हमारे पास आज जो पुराण हैं उसे तोड़ा-मरोड़ा नहीं गया, हमारे पास आज जो स्मृति ग्रंथ है उसमें जानबूझकर गलत बाते नहीं जोड़ी गई। हां वेदों को नहीं ‍बदला जा सका क्योंकि वेद विशेष प्रकार के छंदों पर आधारित थे और वे कंठस्थ थे। फिर भी हमारे हाथ में नहीं था इतिहास लिखना, हमारे हाथ में नहीं था हमारे ग्रंथों को संजोकर रखना। बस जो कंठस्थ था उसे ही हमने जिंदा बनाए रखा। हमारे पुस्तकालय जला दिए गए। हमारे विश्व विद्यालय खाक में मिला दिए गए और हमारे मंदिर तोड़ दिए गए। क्यों? इसलिए कि हम अपने असली इतिहास को भूल जाएं। हमारे से मतलब सिर्फ हिन्दू नहीं संपूर्ण भारतीय समाज।

1. राजा और पुरोहितों की चाल : यह ऐसा काल था जबकि तथाकथित पुरोहित वर्ग ने पुरोहितों के फायदे के लिए स्मृति और पुराणों में हेरफेर किया। ऐसा राजा के इशारे पर भी होता रहा। पुरोहित वर्ग का अर्थ मात्र ब्राह्मण से नहीं होता था। उस काल में जिस भी जाति और समाज की क्षमता होती थी वह पुरोहित बना जाता था। पुरोहिताई के लिए छद्म लड़ाईयां चलती थी। विश्वामित्र और वशिष्ठ की लड़ाई का मूल यही था। इस काल में कोई भी अपनी योग्यता के बल पर ब्राह्मण बन सकता था।

बर्ट्रेंड रसेल ने अपनी पुस्तक पॉवर में लिखा है कि प्राचीन काल में पुरोहित वर्ग धर्म का प्रयोग धन और शक्ति के संग्रहण के लिए करता था। ऐसा हर देश में और हर काल में हुआ। प्राचीनकाल में राजा और पुरोहित मिलकर समाज को संचालित करते थे।

2. मुगल काल :  यह ऐसा काल था जबकि अरब, ईरानी, मंगोल और तुर्क के मुसलमानों ने भारत के धार्मिक और राजनीतिक इतिहास के ग्रंथों को जलाकर उनका नामोनिशान मिटाने का प्रयास किया और इसमें वह कुछ हद तक सफल भी रहे। उन्होंने जहां हिंदू और बौद्धों के विश्वविद्यालय, ग्रंथालय और मंदिरों को जला दिया वहीं उनकी स्त्रियों को ले गए अरब और पुरुषों को दास बनाकर रखा अफगानिस्तान में। प्रो. केएस लाल की पुस्तक 'मुस्लिम स्लेव सिस्टम इन मिडायबल इंडिया' में इस संबंध में विस्तार से जानकारी मिल जाएगी। हालांकि और भी पुस्तकों के नााम यहां लिखे जा सकते हैं।

आक्रमणकारी अरब, तुर्क और ईरानियों ने ऐसा इसलिए किया ताकि भारतीय भूल जाएं इतिहास और फिर हम जो बताएं उसे ही वे सच मानें। ईरानी, तुर्क और अरबी आदि विदेशी मुस्लिम आक्रमणकारियों ने भारत पर 700 वर्ष से अधिक समय तक विभिन्न क्षेत्रों में राज किया और यहां के हिन्दुओं को निरंतर मुसलमान बनाया और समाज में एक नई दीवार खड़ी कर दी। अंग्रेज काल में जब वे धीरे-धीरे अपने अपने मुल्क लौट गए, तो अपने गुलामों को राजपाट सौंप गए। सबसे पहले तो गुलामवंश ही चला। कुछ खास रह गए जिसमें दिल्ली सल्तनत भी थी।

3.अंग्रेजों का काल :  यह ऐसा काल था जबकि अंग्रेज भारत पर शासन करना चाहते थे। इसमें 'बांटो और राज करो' के सिद्धांत का बड़ा योगदान रहा जो ब्रिटेन की राजनीतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति भी करता था। इसके लिए जहां उन्होंने मुसलमानों और हिन्दुओं में फूट डालने का कार्य किया वहीं उन्होंने हिन्दुओं को आपस में बांटकर धर्मांतरण के जरिए बंगाल सहित दक्षिण भारत और पूर्वोत्तर भारत में लोगों को ईसाई बनाया। इस तरह उन्होंने 200 से अधिक वर्ष तक सफल तरीके से शासन किया। लेकिन यह सिर्फ इतनी ही सच्चाई नहीं है। सच्चाई इससे भी भयानक है। 1857 की क्रांति के बाद तो उन्होंने हिन्दू और मुसलमानों के बीच खाई बढ़ाना शुरू कर दी थी।

इस सबका परिणाम यह निकला कि जहां हिन्दू दिनहिन हो गया वहीं वह हजारों जातियों में बंटकर अपने ही लोगों को पराया समझकर उनसे दूर रहने लगा। अब जिन्हें गैर - हिन्दू कहा जा रहा है वह अपने ही कुल के लोगों को दूसरा समझकर नफरत की भावना से देखने लगा। वह धीरे-धीरे विदेशी भक्त बन गया और अपने ही धर्म तथा देश को हिन दृष्टि से देखने लगा, लेकिन यह पूर्ण सत्य नहीं है। अधिकतर गैर-हिन्दू इस सच्चाई को जानने हैं, लेकिन स्वीकार नहीं करना चाहते। हालांकि इसमें उनका कोई दोष नहीं। काश की वे सभी धर्मग्रंथों के साथ ही गीता, उपनिषद और वेद भी पढ़ लिए होते तो यह गलतफहमी नहीं रहती कि हिन्दू धर्म बहुदेववादी, जातिवादी और मूर्तिपूजकों का धर्म है।


पाइंट 1. बौद्ध काल में स्मृति और पुराण ग्रंथों में हेरफेर किया गया। लेकिन यह हेरफेर किसने किया और क्यों लिखे गए अन्य पुराण? यह शोध का विशय होगा। इस हेरफेर के चलते ही शास्त्र में उल्लेखित क्षूद्र शब्द के अर्थ को समझे बगैर ही आधुनिक काल में निचले तबके के लोगों को यह समझाया गया कि शस्त्रों में उल्लेखित क्षूद्र शब्द आप ही के लिए इस्तेमाल किया गया है। जबकि वेद कहते हैं कि जन्म से सभी क्षूद्र होते हैं और वह अपनी मेहनत तथा ज्ञान के बल पर श्रेष्ठ अर्थात आर्य बन जाते हैं।

क्षूद्र एक ऐसा शब्द था जिसने देश को तोड़ दिया। दरअसल यह किसी दलित के लिए इस्तेमाल नहीं किया गया था। लेकिन इस शब्द के अर्थ का अनर्थ किया गया और इस अनर्थ को हमारे आधुनिक साहित्यकारों और राजनीतिज्ञों ने बखूबी अपने भाषण और लेखों में भुनाया। इसका परिणाम यह हुआ कि आज भी यह जारी है। टेलीविजन के सीरियल हो या कोई फिल्म उसमें एक समुदाय विशेष के प्रति नफरत फैलाई जाती है जिस पर किसी का ध्यान कभी नहीं जाने वाला है। इस दलित शब्द का आविष्कार और प्रचार प्रसार कुछ वर्षों पूर्व ही हमारे वामपं‍थी भाइयों ने किया। इससे पहले हरिजन शब्द को महात्मा गांधी ने प्रतिष्‍ठित कर दिया था और इससे पहले मुगल और अंग्रेजों के काल में शूद्र शब्द को खूब प्रचारित किया गया। जाति के उत्थान और पतन का इतिहास पढ़ने पर पता चलता हैं कि हिन्दुओं की आधी से ज्यादा जातियां मुगल और अंग्रेज काल में पैदा हुई है। हमारे ज्यादातर सरनेम अंग्रेजों ने ही गढ़े हैं। अंग्रेजों ने ऊंची जाति और नीच जाती में फर्क पैदा करने के लिए बढ़े-बढ़े पद दिए जिसके चलते अब वे ही पद नाम हमारे सरनेम बन गए।

पाइंट- 2 मध्यकाल में जबकि इस्लाम और ईसाई धर्म को भारत में अपनी जड़े जमाना थी ‍तो उन्होंने इस जातिवादी धारणा का हथियार के रूप में इस्तेमाल किया और इसे और हवा देकर समाज के नीचले तबके के लोगों को यह समझाया गया कि आपके ही लोग आपसे छुआछूत करते हैं। मध्यकाल में हिन्दू धर्म में फूट डालने का कार्य कर बुराईयों का विस्तार दिया गया। कुछ प्रथाएं तो इस्लाम के जोरजबर के कारण पनपी, जैसे सतिप्रथा, घर में ही पूजा घर बनाना, स्त्रीयों को घुंघट में रखना, मैला ढोना आदि। मुगलों ने वाल्मिकी ब्रह्मणों और क्षत्रियों से मैला ढुलवाया जिसके कारण वे अब नीचले तबके के माने जाते हैं। अब सवाल यह उठता है कि यह कैसे हुआ और कैसे किया? इसके लिए आप मुगलों के इतिहास के बारे में जानकारी हासिल कर सकते हैं।

पाइंट 3- अंग्रेजों की 'फूट डालो और राज करो की नीति' तो 1774 से ही चल रही थी जिसके तहत हिंदुओं में उच-नीच और प्रांतवाद की भावनाओं का क्रमश: विकास किया गया अंतत: लॉर्ड इर्विन के दौर से ही भारत विभाजन के स्पष्ट बीज बोए गए। माउंटबैटन तक इस नीति का पालन किया गया। बाद में 1857 की असफल क्रांति के बाद से अंग्रेजों ने भारत को तोड़ने की प्रक्रिया के तहत हिंदू और मुसलमानों को अलग-अलग दर्जा देना प्रारंभ किया।

हिंदुओ को विभाजित रखने के उद्देश्य से ब्रिटिश राज में हिंदुओ को तकरीबन 2,378 जातियों में विभाजित किया गया। ग्रंथ खंगाले गए और हिंदुओं को ब्रिटिशों ने नए-नए नए उपनाप देकर उन्हों स्पष्टतौर पर जातियों में बांट दिया गया। इतना ही नहीं 1891 की जनगणना में केवल चमार की ही लगभग 1156 उपजातियों को रिकॉर्ड किया गया। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि आज तक कितनी जातियां-उपजातियां बनाई जा चुकी होगी।



पाइंट 4- आजादी के बाद में यही काम हमारे राजनीतिज्ञ करते रहे और अभी तक कर रहे हैं। उन्होंने भी अंग्रेजों की नीति का पालन किया और आज तक हिन्दू ही नहीं मुसलमानों को भी अब हजारों जातियों में बांट दिया। बांटो और राज करो की नीति के तहत आरक्षण, फिर जातिगत जनगणना, हर तरह के फार्म में जाति का उल्लेख करना और फिर चुनावों में इसे मुद्दा बनाकर सत्ता में आना आज भी जारी है।

गरीब दलित या ब्राह्मण यह नहीं जानता की हमारी जनसंख्या का फायदा हमें बांटकर उठाया जा रहा है। आजादी के 70 साल में आज भी गरीब गरीब ही है तो क्यों? नेहरुजी कहते थे हम भारत से जातिवाद और गरीबी को मिटा देगें और आज सोनियाजी भी यही कहती है कि हमें भारत से गरीबी मिटाना है। क्या 70 साल से ज्यादा लगते हैं गरीबी मिटाने के लिए?

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