जिस देश में 70 प्रतिशत किसान हों, सड़क किनारे और फुटपाथ पर रहने वाले मजदूरों और वंचितों की संख्या लाखों में हो (27.2 प्रतिशत बेघर), बड़े गोल पाइपों और रेल की पटरियों के किनारे पॉलिथीन के तंबू बनाकर रहने वाले लगातार बढ़ते जा रहे हों, जहां के गरीब, दलित परिवार की बच्चियां पेड़ों पर तड़पा-तड़पा कर मार दी जाएं तो भी देश की आत्मा झकझोरी न जाए, उस देश की संसद में गरीब, किसान, मजदूर की बात करने वाले कितने होंगे?
वास्तव में गरीबों की बात करना और इस विषय पर पांच सितारा होटलों में सेमिनार आयोजित करना, मलयेशिया, फिलीपींस से लेकर लंदन, पैरिस तक में गरीबी मिटाने, गरीबी के पैमाने तय करना, गरीबी जांचने पर गंभीर चर्चाएं करना, अमीर नेताओं और संपादकों का प्रिय विषय है। गरीब वहीं के वहीं रह गए हैं, लेकिन अमीरों की अमीरी बढ़ती जा रही है।
गोपनीथ मुंडे पेड़ की छांव तले प्रारंभिक शिक्षा पाने वाले ऐसे नेता थे जो साधारण गरीब मजदूर-किसान की भी बात करते थे। बंजारा समुदाय से थे, पिछड़े वर्ग के, लेकिन जनजातीय समाज, अनुसूचित जातियों और किसानों में समान रूप से लोकप्रिय। उन्हें संसद में 100-100 से अधिक किसान प्रतिनिधि मंडलों को बुलाते, उनसे मिलते, उन्हें संसद दिखाते पाया है।
उतनी ही सहजता से वह जापान-चीन के प्रतिनिधिमंडलों से भी संसद के बीजेपी कार्यालय में बात करते थे। पेड़ के नीचे जिस गोपीनाथ ने शिक्षा पाई, वह भारत के ग्रामीण विकास मंत्री के पद तक पहुंचे, इसके पीछे उनकी मेहनत का ही हाथ था।
महाराष्ट्र में जमीन से जुड़े अपार जनसमर्थन के धनी गरीब किसान-पिछड़ों की राष्ट्रीय फलक पर आवाज बने गोपीनाथ मुंडे का जीवन संघर्ष और साहस का मिश्रण रहा। किसी से दबे नहीं। नुकसान सहकर भी समझौते न करने की जिद दिखाई। जो अच्छा लगा, ठीक जंचा उसे किया, चाहे उसके कारण कितने ही विवाद क्यों न पैदा हों।
उनका व्यक्तित्व ही था कि राजनीति में न्यायधीश बन सजा और बख्शीशें देने वालों की उन्होंने रत्तीभर भी परवाह नहीं की। उन्होंने बताया कि अगर जमीन पर कदम है, जनता में स्नेह और समर्थन है, अपनी ताकत पर अपना विस्तार है, तो भविष्य भी मुट्ठी में होकर ही रहेगा।
संसद में जाति, पंथ, भाषा पर बहस होती है लेकिन गरीबी, अनुसूचित जनजातियों और वंचितों पर होने वाले अत्याचारों पर शायद ही कभी चर्चा तथा उसके उपरांत कोई कठोर कदम या विधेयक का विषय उठा हो।
बदायूं की बेटियां दलित की थीं, हिंदुस्तान में उससे जन्मी वेदना और तड़पन की लहर कहां दिखी? कौन आया इंडिया गेट या रायसीना पहाड़ी पर? किसने जलाए शहर के चौराहों और प्रदर्शनस्थलों पर आंसुओं में डूबे श्रद्धांजलि के चिराग?
राजधानी दिल्ली हो या लखनऊ, शहर बदायूं हो या छपरा, दुख-दर्द, संवेदनाएं और श्रद्धांजलियां राजनीतिक हो गई हैं। वोट बैंक, धन तथा राजनीतिक पद और ऐश्वर्य दुख-दर्द और संवेदनाओं की अभिव्यक्ति का स्तर और पैमाना तय करता है।
शहर भर की निहायत विनम्रता और कुशलता से सेवा करने वाले उस चर्मकार के दुख-दर्द या उसकी मृत्यु पर कभी मातम पसरते देखा है? कोई धनवान होगा, जबर्दस्त कॉन्टैक्ट्स और जनसंपर्क में माहिर होगा तो उसकी मृत्यु पर सारा शहर उमड़ेगा। बड़े-बड़े नेताओं के दुख में भीगे बयान आएंगे, भले ही उस आदमी की सारी जिंदगी गलत काम करते क्यों न बीती हो।
भारत की मीडिया और राजनीति में चर्चा और खबर का केंद्र सिर्फ धनवान है। जो निचली जाति का है और संघर्षशील गरीब समुदाय से है, उसके लिए तो न पेज वन और न पेज थ्री। उनकी खबरें तब बनती हैं जब उन्हें मारकर पेड़ों पर लटका दिया जाता है या उनका नरसंहार होता है या उन्हें किसी बड़े नेता की वर्षगांठ पर उपहार-मिठाई वगैरह प्राप्त करते हुए दिखाने की जरूरत महसूस होती है।
एक और वक्त आता है उनकी चर्चा का। जब कोई विदेशी अतिथि आए तो उसे गांव और गरीबी की झोंपड़ी दिखाने तथा लंदन-पैरिस के अखबारों के लिए एक ऐसा फोटो सेट करवाने की जरूरत हो, जिसमें राजकुमार-राजकुमारी गरीब के बच्चे को गोद में उठाकर चॉकलेट दे रहे हों।
कभी किसी अखबार में संघर्षशील गरीब किसान का इंटरव्यू छपते देखा है? वह किसान बेहद ईमानदारी से मेहनत करते हुए संतोष के साथ परिवार चलाता होगा, बेईमानी नहीं करता होगा, नेताओं की चापलूसी में नहीं जाता होगा, चुनाव के टिकट नहीं मांगता होगा, रिश्वत नहीं देता होगा, रासायनिक खाद भी इस्तेमाल नहीं करता होगा, लेकिन वह खबर के लायक या संसद में चर्चा का विषय बनने का पात्र नहीं हो सकता।
आपको थोड़ी कमाई बढ़ानी होगी, अपनी जाति का अहंकार तुलवाना होगा, वोट बैंक बनकर नेताओं और मीडिया को इस बात का अहसास कराना होगा कि आपको अपने साथ लिए बिना इसका गुजारा नहीं होगा, तब जाकर वह सुनी जाने योग्य आवाज बन सकता है।
सचिन तेंडुलकर को भारत रत्न मिल गया, फिर भी टेलिविजन पर विभन्न वस्तुओं के विज्ञापन में चमकते-दमकते देखकर एक सवाल करने का मन होता है कि भाई जिंदगी में जो बाकी किसी को नहीं मिला, उससे कहीं ज्यादा आपको मिल गया।
अब और कितना कमाइएगा? अब तो दोनों हाथों से उलीचने का वक्त है। गांव-किसान-गरीब की बात अगर सचिन तेंडुलकर कभी-कभार कर दिया करें, कभी-कभार संसद में आकर कुछ बढ़िया बात और जमीनी हकीकत से जुड़े विषयों पर कुछ बोल दें तो देशवासियों को संतोष ही होगा। किसी अच्छी योजना का इसी बहाने श्रीगणेश हो सकता है, जिससे गरीब किसानों का और पहाड़ पर बसे उपेक्षित भारतीयों का भला हो जाए।
पर यह सब मन की संवेदना और हृदय की विनम्रता से जुड़े विषय हैं। बहुत अच्छी संख्या में लोग संवेदनशील मन से गरीब मजदूर-किसानों के बीच काम कर रहे हैं। वे दिल्ली से बहुत दूर हैं, अनजान तथा अनाम हैं। लेकिन दिल्ली में गरीब की बात करने वाले ढूंढ़ने पड़ते हैं।
त्रुटियों के लिए क्षमा चाहूंगा।।
अशोक कुमार वर्मा
उत्तर प्रदेश
वास्तव में गरीबों की बात करना और इस विषय पर पांच सितारा होटलों में सेमिनार आयोजित करना, मलयेशिया, फिलीपींस से लेकर लंदन, पैरिस तक में गरीबी मिटाने, गरीबी के पैमाने तय करना, गरीबी जांचने पर गंभीर चर्चाएं करना, अमीर नेताओं और संपादकों का प्रिय विषय है। गरीब वहीं के वहीं रह गए हैं, लेकिन अमीरों की अमीरी बढ़ती जा रही है।
गोपनीथ मुंडे पेड़ की छांव तले प्रारंभिक शिक्षा पाने वाले ऐसे नेता थे जो साधारण गरीब मजदूर-किसान की भी बात करते थे। बंजारा समुदाय से थे, पिछड़े वर्ग के, लेकिन जनजातीय समाज, अनुसूचित जातियों और किसानों में समान रूप से लोकप्रिय। उन्हें संसद में 100-100 से अधिक किसान प्रतिनिधि मंडलों को बुलाते, उनसे मिलते, उन्हें संसद दिखाते पाया है।
उतनी ही सहजता से वह जापान-चीन के प्रतिनिधिमंडलों से भी संसद के बीजेपी कार्यालय में बात करते थे। पेड़ के नीचे जिस गोपीनाथ ने शिक्षा पाई, वह भारत के ग्रामीण विकास मंत्री के पद तक पहुंचे, इसके पीछे उनकी मेहनत का ही हाथ था।
महाराष्ट्र में जमीन से जुड़े अपार जनसमर्थन के धनी गरीब किसान-पिछड़ों की राष्ट्रीय फलक पर आवाज बने गोपीनाथ मुंडे का जीवन संघर्ष और साहस का मिश्रण रहा। किसी से दबे नहीं। नुकसान सहकर भी समझौते न करने की जिद दिखाई। जो अच्छा लगा, ठीक जंचा उसे किया, चाहे उसके कारण कितने ही विवाद क्यों न पैदा हों।
उनका व्यक्तित्व ही था कि राजनीति में न्यायधीश बन सजा और बख्शीशें देने वालों की उन्होंने रत्तीभर भी परवाह नहीं की। उन्होंने बताया कि अगर जमीन पर कदम है, जनता में स्नेह और समर्थन है, अपनी ताकत पर अपना विस्तार है, तो भविष्य भी मुट्ठी में होकर ही रहेगा।
संसद में जाति, पंथ, भाषा पर बहस होती है लेकिन गरीबी, अनुसूचित जनजातियों और वंचितों पर होने वाले अत्याचारों पर शायद ही कभी चर्चा तथा उसके उपरांत कोई कठोर कदम या विधेयक का विषय उठा हो।
बदायूं की बेटियां दलित की थीं, हिंदुस्तान में उससे जन्मी वेदना और तड़पन की लहर कहां दिखी? कौन आया इंडिया गेट या रायसीना पहाड़ी पर? किसने जलाए शहर के चौराहों और प्रदर्शनस्थलों पर आंसुओं में डूबे श्रद्धांजलि के चिराग?
राजधानी दिल्ली हो या लखनऊ, शहर बदायूं हो या छपरा, दुख-दर्द, संवेदनाएं और श्रद्धांजलियां राजनीतिक हो गई हैं। वोट बैंक, धन तथा राजनीतिक पद और ऐश्वर्य दुख-दर्द और संवेदनाओं की अभिव्यक्ति का स्तर और पैमाना तय करता है।
शहर भर की निहायत विनम्रता और कुशलता से सेवा करने वाले उस चर्मकार के दुख-दर्द या उसकी मृत्यु पर कभी मातम पसरते देखा है? कोई धनवान होगा, जबर्दस्त कॉन्टैक्ट्स और जनसंपर्क में माहिर होगा तो उसकी मृत्यु पर सारा शहर उमड़ेगा। बड़े-बड़े नेताओं के दुख में भीगे बयान आएंगे, भले ही उस आदमी की सारी जिंदगी गलत काम करते क्यों न बीती हो।
भारत की मीडिया और राजनीति में चर्चा और खबर का केंद्र सिर्फ धनवान है। जो निचली जाति का है और संघर्षशील गरीब समुदाय से है, उसके लिए तो न पेज वन और न पेज थ्री। उनकी खबरें तब बनती हैं जब उन्हें मारकर पेड़ों पर लटका दिया जाता है या उनका नरसंहार होता है या उन्हें किसी बड़े नेता की वर्षगांठ पर उपहार-मिठाई वगैरह प्राप्त करते हुए दिखाने की जरूरत महसूस होती है।
एक और वक्त आता है उनकी चर्चा का। जब कोई विदेशी अतिथि आए तो उसे गांव और गरीबी की झोंपड़ी दिखाने तथा लंदन-पैरिस के अखबारों के लिए एक ऐसा फोटो सेट करवाने की जरूरत हो, जिसमें राजकुमार-राजकुमारी गरीब के बच्चे को गोद में उठाकर चॉकलेट दे रहे हों।
कभी किसी अखबार में संघर्षशील गरीब किसान का इंटरव्यू छपते देखा है? वह किसान बेहद ईमानदारी से मेहनत करते हुए संतोष के साथ परिवार चलाता होगा, बेईमानी नहीं करता होगा, नेताओं की चापलूसी में नहीं जाता होगा, चुनाव के टिकट नहीं मांगता होगा, रिश्वत नहीं देता होगा, रासायनिक खाद भी इस्तेमाल नहीं करता होगा, लेकिन वह खबर के लायक या संसद में चर्चा का विषय बनने का पात्र नहीं हो सकता।
आपको थोड़ी कमाई बढ़ानी होगी, अपनी जाति का अहंकार तुलवाना होगा, वोट बैंक बनकर नेताओं और मीडिया को इस बात का अहसास कराना होगा कि आपको अपने साथ लिए बिना इसका गुजारा नहीं होगा, तब जाकर वह सुनी जाने योग्य आवाज बन सकता है।
सचिन तेंडुलकर को भारत रत्न मिल गया, फिर भी टेलिविजन पर विभन्न वस्तुओं के विज्ञापन में चमकते-दमकते देखकर एक सवाल करने का मन होता है कि भाई जिंदगी में जो बाकी किसी को नहीं मिला, उससे कहीं ज्यादा आपको मिल गया।
अब और कितना कमाइएगा? अब तो दोनों हाथों से उलीचने का वक्त है। गांव-किसान-गरीब की बात अगर सचिन तेंडुलकर कभी-कभार कर दिया करें, कभी-कभार संसद में आकर कुछ बढ़िया बात और जमीनी हकीकत से जुड़े विषयों पर कुछ बोल दें तो देशवासियों को संतोष ही होगा। किसी अच्छी योजना का इसी बहाने श्रीगणेश हो सकता है, जिससे गरीब किसानों का और पहाड़ पर बसे उपेक्षित भारतीयों का भला हो जाए।
पर यह सब मन की संवेदना और हृदय की विनम्रता से जुड़े विषय हैं। बहुत अच्छी संख्या में लोग संवेदनशील मन से गरीब मजदूर-किसानों के बीच काम कर रहे हैं। वे दिल्ली से बहुत दूर हैं, अनजान तथा अनाम हैं। लेकिन दिल्ली में गरीब की बात करने वाले ढूंढ़ने पड़ते हैं।
त्रुटियों के लिए क्षमा चाहूंगा।।
अशोक कुमार वर्मा
उत्तर प्रदेश