संयुक्तता में ही विकास


इतिहास गवाह है, कि विश्व के वही देश फल-फूल व समृद्ध हो पाए हैं जिनके नागरिकों ने राष्ट्र धर्म को अपने व्यक्तिगत हितों व मतांतरों से सर्वोपरि रखा। आज मनुष्य भले ही आदिम युग से निकल कर आधुनिक युग में आ चुका है लेकिन अपनी आदिमकालिन दुष्प्रवृत्तियों को नहीं छोड़ पाया है। इन दुष्प्रवृत्तियों ने कालांतर में और भी विकराल रूप धारण कर लिया है। मनुष्य ने अपने उन्नत ज्ञान व तकनीक का उपयोग सृजनात्मक कार्यों में कम एवं विध्वंसनात्मक कार्यों में अधिक किया है।

आज जो भी आदमी समाज का अगुवा बनता है उसकी प्राथमिकता स्वहित, स्वपरिवार हित के दायरे से आगे नही बढ़ पाती तथा इन्हीं क्षुद्र हितों व स्वार्थ की पूर्ती हेतु ऐसे अगुवा देश को क्षेत्रवाद, अलगाववाद, भाषावाद के दावानल में झोंक देते हैं। आज ऐसी ही कई समस्याओं में से दिनोंदिन नए राज्यों के गठन के लिए उठती मांग हैं जो कि हिंसक आंदोलनो का रूप लेती जा रही है। आज देश का कोई कोना ऐसा नहीं है जहां इस तरह की मांग नहीं उठ रही हो । लेकिन इसमें सबसे दिलचस्प बात यही है कि इन आंदोलनों से समाज के आम आदमी का कोई सरोकार नही क्योंकि वह बेहतर तरीके से इनके परिणामों से वाकिफ है।

वर्तमान में ये अगुवा नेता इस राष्ट्र की आत्मा रूपी संवैधानिक ढांचे को ही ध्वस्त करने में लगे हुए है क्योंकि संविधान में एकल नागरिकता, एकल न्यायपालिका, शक्तिशाली केन्द्र एवं अखिल भारतीय सेवा की व्यवस्था की गई है ताकि क्षेत्रवाद या उन्नत रूप में राज्यवाद का ज्वार न फूटे, लेकिन स्थानीय नेताओं की स्वार्थपरक राजनीति ने राज्यवाद को बढ़ावा दिया है।अखिल भारतीय सेवा का अधिकारी जिला स्तर के विकास के लिए एवं केन्द्र तथा राज्य प्रशासन की विकासपरक नीतियों को लागू करवाने के लिए जिम्मेदार होता है। शासन का विकेन्द्रीकरण एवं पंचायतीराज की संकल्पना जो कि इस देश की सबसे दूरस्थ इकाई गांवों के विकास के लिए बनाई गई है,ऐसे में जब संवैधानिक ढांचे की पहुंच निचले स्तर तक है तो फिर विकास क्यों नही होता और यदि नया राज्य भी बनता है तो वहां भी तो यही संवैधानिक ढांचा काम करेगा तो फिर ऐसी स्थिती में उस तथाकथित नए राज्य में विकास की क्या गारंटी होगी?जब छोटे राज्य ही विकास का आधुनिक मॉडल हैं तो पूर्वोत्तर के उन छोटे और मझौंले राज्यों का विकास क्यों नहीं हो पाया? जबकि उनके पास प्राकृतिक संसाधनों की कोई कमी भी नहीं। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण नए गठित राज्य हैं जो स्वयं अपनी कहानी बयान कर रहे हैं तथा साथ ही जिन राज्यों से इन्हें अलग किया गया उनकी भी स्थिती बद से बदतर हो गयी।


आज नए राज्यों के बनने के पक्ष में पूर्व में बने कुछ राज्यों की बढी हुई जी.डी.पी यानि सकल घरेलू उत्पाद का हवाला दिया जा रहा है, तो यह वास्तविकता से दूर केवल अर्थशास्त्रियों के कागजों का गणित मात्र है क्योंकि झारखंड जहां कि नक्सलवाद का कारण विकास का न होना एवं इसका एकमात्र समाधान अलग झारखंड राज्य का निर्माण बताया गया था। वहां आज भी नक्सलवाद, गरीबी एवं अराजकता इस तथाकथित सोच को मुंह चिढाते हुए देखे जा सकते हैं। उत्तराखंड अपनी कहानी स्वयं बयान कर रहा है तो छत्तीसगढ जिसे धान का कटोरा भी कहा जाता है और प्राकृतिक संपदा से परिपूर्ण यह राज्य भी जी.डी.पी के पीछे के सच को बयान कर रहा है।

असल में जहां यह अलग हुए राज्य यदि कुछ हद तक मान भी लिया जाए कि सम्पन्न हुए हैं तो क्या ये जिससे अलग हुए वे विकास कर पाए हैं? बिल्कुल नहीं यह केन्द्र से अधिक से अधिक पैकेज की आस में ही बैठे रहते हैं। कुछ कहते हैं कि हमारे पास पानी और बालू के सिवाय कुछ नही बचा इसलिए यह राज्य बिमार एवं पिछड़ा हुआ है इसलिए केन्द्र से हजारों करोड़ के पैकेज की जरूरत है तभी विकास हो पाएगा तो नए गठित राज्यों को भी हजारों करोड़ का पैकेज चाहिए इसमें उस क्षेत्र की जनता का तो भला नहीं होता लेकिन हां जागरूक और जनता के शुभचिंतकों का भला हो जाता है तथा इस अनुदानित राशि की बंदरबांट के बाद फिर से नए पैकेज की मांग उठा दी जाती है। नए राज्यों के बनने के पक्ष में कुछ नेता अमेरिका का उदाहरण देते है कि वहां 50 से अधिक राज्य हैं तो सबसे पहले अमेरिका का भौगोलिक क्षेत्रफल देखिए उसके बाद आप अपनी सांस्कृतिक विभिन्नताओं, गरीबी, अशिक्षा एवं उन तमाम कथित पड़ोसियों पर भी नज़र डालिए जो आपके ऐसे ही तुगलकी कदमों की प्रतिक्षा में घात लगाए बैठे हैं। छोटे राज्य बन जाने पर उनके अंदर अधिक से अधिक केन्द्र सेधन राशि प्राप्त करने की होड़ लग जाएगी जो कि कमोबेश आज भी देखा जा सकता है।

राज्यों में परस्पर पानी सबंधी, बिजली संबंधी प्राकृतिक संसाधनों के दोहन सबंधी एकाधिकार की प्रवृत्ति जो कि दक्षिण भारत में अभी भी देखी जा सकती है तथा जिसका सालों से कोई ठोस हल तक नही निकल पाया तो ऐसे में जब परिवार के सदस्यों अर्थात तथाकथित छोटे राज्यों की संख्या बढ़ेगी तो आप स्वयं सोच सकते हैं कि केन्द्र की सारी शक्ति आंतरिक विवादों को निपटाने और सामंजस्य बनाने में ही नष्ट होगी एवं जाहिर है।


यह देश एक परिवार है तथा जिस प्रकार परिवार में अधिक स्वायत्त सदस्य होने पर मुखिया का नियंत्रण कमजोर पड़ जाता है एवं उस पर पक्षपात का आरोप भी अधिक लगता है। यही स्थिती राज्यों के मुखिया केन्द्र की भी है इससे केन्द्र बाहरी सुरक्षा, विदेश नीति एवं विकास जैसे मुद्दों में कमजोर हो जाएगा जो कि हमारे बाहरी एवं आंतरिक दुश्मनों के लिए वरदान साबित होगा और यही समय होगा जब यह राज्यवाद उच्श्रंखल हो अलग राष्ट्र की संकल्पना की और बढ़ जाएगा जो आजादी के बाद उत्तर-पश्चिम भारत(पंजाब) में देखा भी जा चुका है।

रूस इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है तथा उससे हमें सीख अवश्य लेनी चाहिए। भारत को अखंड राष्ट्र का आकार किसी के द्वारा प्रदत्त नहीं है बल्कि यह सदियों से चाहे वह महाभारत का काल रहा हो या चाणक्य का, इससे बड़े ही स्वरूप में रहा है और तभी सुरक्षित एवं प्रगतिशील भी रहा है। विकास के लिए स्वायत्तता एक कारक हो सकता है लेकिन यह स्वायत्तता विकेन्द्रीकृत होनी चाहिए किसी एक विभाग या संस्था तक सीमित न होकर प्रशासन के निचले स्तर तक जानी चाहिए। राज्यों को तोड़ना आसान है लेकिन क्या आज कोई नेता किन्ही दो राज्यों को एक करने की बात सोचता है कि हमारा विकास स्तर उन्नत एवं एक समान है इसलिए हमें मिलाकर एक राज्य कर दिया जाए जिससे हमारे संसाधन भी संयुक्त और वृहद हो जाएंगे जिससे शीघ्र ही वृहद विकसित राज्य कहला पाएंगे।

आजादी के बाद पटेल जी सरीखे महापुरुषों ने किस भागिरथी प्रयास सेतत्कालिन 600 रियासतों को संगठित कर एक अखंड राष्ट्र का निर्माण किया जिन्होनें छोटे-छोटे दिशाहीन नालों को एक प्रवाह में लाकर एक विशाल नदी का निर्माण किया। क्या वे लोग अदूरदर्शी थे जिन्होनें बिखरे हुए स्वायत्तशासी छोटे-छोटे राज्योंको समेटकर बड़े राज्यों की संकल्पना प्रस्तुत की और छोटा परिवार–सुखी परिवार की संकल्पना को मूर्त रूप दिया। अर्थात राज्य यदि आकार में बड़े एवं संख्या में कम होंगे तो राष्ट्र ताकतवर होगा तथा राज्यों का अस्तित्व भी गरिमामयी रहेगा। जितने अधिक राज्य बनेगें देश उतना ही कमजोर होगा क्योंकि तब मतांतर भी अत्यधिक होगा और इसका लाभ मात्र अराजक तत्वों एवं हमारे दुश्मन देशों को ही होगा।

आज समाज के प्रत्येक तथाकथित अगुवा लोग कुर्सी चाहते है और जब इस कुर्सी के दावेदार अधिक हो तो चूंकि इस कुर्सी के लिए लोक सेवा आयोग द्वारा चयन नहीं होता और न ही कोई योग्यता संबंधी मानदंड होता है इसीलिए यह क्षेत्र तथाकथित सभी अगुवा लोगों के लिए सुरक्षित क्षेत्र है जहां उनका भविष्य उज्जवल होता है तथा देश का भविष्य तो आप सभी जानते ही हैं। इसी संदर्भ में क्षेत्रिय नेताओं द्वारा अपने अस्तित्व को या यों कहें कि अपनी कुर्सी व दबदबे को कायम रखने के लिये आपसी सामंजस्य बैठाते हुए नए राज्य की मांग की जाती है क्योंकि नए राज्य बनते ही सभी दावेदारों को कुर्सी सुलभ हो जाएगी और यदि भविष्य में फिर कभी ऐसा संकट आया तो फिर से एक नए राज्य की मांग कर दी जाएगी। मुख्यत: नये राज्यों के गठन के लिए निम्न कारण बताए जाते हैं जिनके आधार पर किसी भी नए राज्य का गठन होता है।
1  असंतुलित विकास
2. संस्कृति मे असमानता
3. भाषा संबंधी विवाद
4. क्षेत्रिय दलों का विकास
5. राजनेताओं का स्वार्थपूर्ण लक्ष्य

असंतुलित विकास: इसके लिए कहा जाता है कि मुख्यमंत्री राज्य के जिस क्षेत्र विशेष से होता है उसी क्षेत्र तक विकास की गंगा पहुंचती है तो जब दूसरे छोटे राज्य अस्तित्व में आएंगें तो क्या फिर से यह आरोप नही लगाया जाएगा कि मुख्यमंत्री जिस जिले या क्षेत्र विशेष का है सारा विकास वहीं हुआ है, तब क्या फिर से जिला स्तर पर एवं बाद में तहसिल स्तर तक राज्यों का पुनर्गठन या बंटवारा होगा? आखिर इसकी कोई सीमा तो होगी? जी नहीं क्योंकि क्षुद्र स्वार्थों और अदूरदर्शिता की कोई सीमा नहीं होती इसका उद्देश्य मात्र और मात्र देश को रसातल का मार्ग दिखाना मात्र हैं।

संस्कृति में असमानता: हम आजाद देश के नागरिक हैं सभी को अन्य के लिए सद्-विचार रखते हुए  अपनी-अपनी संस्कृति एवं लोकमतानुसार आचरण करने की स्वतंत्रता है और यह संविधान प्रदत्त हम सभी भारतवासियों का अधिकार भी है। आज के परिप्रेक्ष्य में यदि देखा जाए तो भारत के हर राज्य में विभिन्न संस्कृतियों के लोग एक साथ जीवन-यापन कर रहे हैं तथा आज सभी के लिए विकास का मुद्दा ही प्राथमिकता में है बाकि सब मुद्दे अप्रासंगिक हैं। यदि कहीं विवाद होता भी है तो उसमें आम जनता जिसके नाम पर नए राज्य की मांग की जाती है का कोई हाथ नहीं होता उसके पीछे तुच्छ स्वार्थ से पोषित व विध्वंसनात्मक सोच रखने वाले अराजक तत्वों व तथाकथित समाज के अग्रणियों का ही हाथ होता है।

भाषा विवाद: कालांतर में यह विवाद का कोई मुद्दा रह ही नहीं गया क्योंकि नई पीढ़ी ने इसे बहुत पीछे धकेल दिया है और आज कामचलाऊ भाषा का हर राज्य के हर व्यक्ति को कमोबेश ज्ञान अवश्य है और दूसरी सबसे अच्छी बात यह है कि आज रोजगारोन्मुख युवा अधिक से अधिक भाषाओं को सीखने का इच्छुक है।वह दिन दूर नही जब हिन्दी अपनी सभी क्षेत्रिय भाषाओं की पोषक बन इनकी शब्द शक्ति से समृद्ध हो वृहत एवं प्रभावी रूप में सबके समक्ष होगी। आज हिन्दी भाषी के दिल मे अन्य स्वदेशी एवं यहां तक की विदेशी भाषाओं तक को सीखने की उत्कंठ इच्छा हैं तो आज हिन्दी को भी हिन्दीतर भाषी चाहे वह भारतीय हों या विदेशी इसे तहे दिल से अपनाने लगे हैं क्योंकि वे सभी इसके लाभ से परिचित हो गये हैंक्योंकि हिंदी आज व्यापार की, वाणिज्य की एवं लाभ की भाषा बन चुकी है। आज रोजगार के उद्देश्य से युवाओं का दक्षिण से उत्तर और उत्तर से दक्षिण की ओर तीव्र पलायन हो रहा है जिसने शायद इस विवाद को जमीनी स्तर पर बहुत ही पीछे छोड़ दिया है आज उत्तरी भारत का रहने वाला व्यक्ति भाषागत कारणों से दक्षिण भारत में जाकर भूखों नहीं मरता और नही दक्षिण का कोई व्यक्ति भाषा का ज्ञान न होने से उत्तर में आकर भूखों मरता है क्योंकि एक दूसरे की जरूरतों ने उन्हें बहुत कुछ सिखा दिया है।


क्षेत्रिय दलों का विकास एवं राजनेताओं का स्वार्थपूर्ण लक्ष्य: यही एक मात्र ऐसा मुख्य घटक है जो राज्यों के बंटवारे के लिए जिम्मेदार है क्योंकि इस प्रकार के क्षेत्रिय दलों का क्षुद्र स्वार्थ होता है एवं इनमें व्यापक दृष्टिकोण का अभाव होता है जिसकी क्षति राष्ट्र को देर-सबेर उठानी ही पड़ती है। राज्य विशेष और यहां तक कि कुछ जिलों के अलावा इनका कोई जनाधार नहीं होता तथा स्थानीय स्तर पर प्रदर्शन के आधार पर बढती पद लोलुपता के कारण बंटवारे की मांग कर बैठते हैं जिससे इनका हित साधन आसानी से हो सके। इसमें कई ख्याति प्राप्त राजनेता भी क्षुद्र स्वार्थवश इनका भरपूर सहयोग देते हैं।

निष्कर्ष: राज्यों के समुचित विकास का मॉडल कोई छोटा राज्य नहीं हो सकता क्योंकि संविधान में इसका समाधान शासन के विकेन्द्रीकरण के द्वारा किया गया है। अर्थात जब प्रशासन की सबसे छोटी इकाई तक सरकार की पहुंच निर्धारित की हुई है तो विकास न हो पाने के लिए केवल संबंधित नेतृत्व एवं भ्रष्ट अफसरशाही ही जिम्मेदार है। यदि ये अपना काम कुछ हद तक ही सही ईमानदारी से करने लगे तो इस देश का कोई भी मेहनतकश हाथ बिना काम के तथा कोई खेत सूखा नहीं रहेगा।

बढ़ती जनसंख्या भी राज्यों के बंटवारे का एक आधार है परंतु जनसंख्या नियंत्रण के कार्यक्रम बहुत हद तक भारत में सफल रहे लेकिन जितना नियंत्रण यहां कि जनता ने किया उससे दस गुना और कहा जाए तो इससे भी अधिक उत्पादन कथित घुसपैठियों ने कर दिया जो कि कथित रूप से वोट बैंक का भी काम कर रहे हैं।ये घुसपैठिये हमारे पूर्वोत्तर के राज्यों की संस्कृति में अपने आप को ढाल कर देश के बाकि हिस्सों में फैले हुए हैं जिनकी अवांछित गतिविधियों के कारण कई बार इन राज्यों की जनता के साथ भी दुर्व्यवहार की घटनाएं देखने को मिलती है जहां कि करता कोई है भरता कोई है की कहावत चरितार्थ होती है।

इन्हीं घुसपैठियों एवं इस कार्यक्रम के लागू करने में भेदभाव की वजह से इस प्रकार के कार्यक्रम असफल हो गए और संसाधनों का वास्तविक लाभ इस देश की जनता को नहीं मिल पाया।जब तक प्रशासनिक नेतृत्व राष्ट्रोन्मुख, अनुशासित एवं मर्यादित नहीं होगा तब तक कितने भी राज्य बनें यह कृत्य हर बार इस देश की अखंडता पर प्रहार ही सिद्ध होगा।अंतत: यही कहना चाहूंगा कि ये वृहद राज्य किसी परिवार का खेत नहीं कि कुछ लोगों की अदूरदर्शिता(बाहरी विघटनकारी शक्तियों के प्रभाववश) एव प्रभुता पाने के लालच में तुच्छ संतुष्टी के लिए इसके बंटवारे कर दिए जाएं।

विकास संयुक्तता में है और यदि टूटने का बंटवारे का ही नाम विकास है तो वह दिन दूर नहीं जब बंटवारे के लिए कुछ नहीं बचेगा और “विकास” शब्द स्वयं अपनी सार्थकता खोज रहा होगा। कुछ करने की इच्छाशक्ति एवं देश के प्रति सैन्य भाव का समर्पण ही विकास के रास्ते खोल सकता है।








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