आज केवल स्वार्थ सिद्धि हो रहा है।

आज़ादी मिले कई दशक हो गए। अनगिनत कुर्बानियों की कोख से निकली आज़ादी ने हमें लोकतंत्र सा बेटा दिया जो भ्रष्टाचार, घोटालों, स्वार्थ, अधर्म, कुकर्म व इनके दोस्तों के साथ खेला तो बिगड़ गया। यह बात तल्ख़ लगती है मगर सच तो है कि हमने इकहत्तर साल की आज़ादी को ज़िंदगी के जुए की चौसर बना दिया और देश और मातृभूमि को बिसरा दिया। क्या 15 अगस्त का दिन हमारे लिए एक और पेड हॉलीडे का दिन है। खाने पीने और नाचने गाने में व्यस्त हम भूल चुके हैं कि देश की आज़ादी के लिए कितना वक्त, कितनी ज़िंदगियां और कितने विचार फना हुए।



काला पानी कहे जाने वाले पोर्ट ब्लेयर की जेल का इतिहास भारत की आज़ादी के परवानों पर की गई कठोर यातनाओं से जुड़ा है। अब वहां कोई कैदी होकर नहीं जाता बल्कि पर्यटक ही वहां जाता है। कालापानी पहुंच भारतीय मन करता है कि सबसे पहले उसी जेल का रूख किया जाए जहां अनेक देशभक्तों व राष्ट्रवादियों ने दूसरों की आज़ादी के लिए अपना शरीर, जीवन अपने घर से हजारों किलोमीटर दूर कालकोठरी के हवाले कर दिया।

556 टापूओं के समूह अंडेमान निकोबार में अंग्रेज़ों द्वारा भेजे लेफ्टिनेंट अर्चाबाल्ड ब्लेयर ने 1789 में एक बन्दरगाह बना दी थी। वक्त करवटें लेता रहा। इधर देश में आज़ादी का विचार चिंगारी हो रहा था उधर अंग्रेज सोच रहे थे कि क्रांतिकारियों को आम बंदियों से दूर रखा जाए ताकि स्थिति पर नियंत्रण रखा जा सके। सर्वे कर एक रिर्पोट 15 जनवरी 1858 को सरकार के समक्ष रखी और 1857 के स्वतंत्रता आंदोलन के 772 राजनैतिक बंदियों को कालापानी भेज दिया। बंदियों ने आदिवासियों के साथ मिलकर जंगल काटे, रास्ते व रिश्ते बनाए। उनके सहयोग से ही 1859 में ही अंग्रेजो़ पर हमला किया। तब अंग्रेजों ने वारियर द्वीप में छोटी जेल बनाई जिसमें एक चेन से चारचार कैदियों को जकड़ दिया जाता था। बंदियों की संख्या व समस्याएं बढने लगी तो 1890 में बड़ी जेल बनाने बारे ध्यान दिया गया। 13 दिसम्बर 1893 को जेल निर्माण का हुक्म जारी हुआ व रंगून से लाई तीन करोड ईंटों से दस साल में निर्माण पूरा हुआ। इंगलिश जेलों के डिजायन के आधार पर बनी सात तिमंजिली बैरकों वाली जेल में 696 सैल बनाए। दरवाजे के सामने दूसरी बैरक का पिछला हिस्सा ताकि एक बंदी दूसरे को ना देख सके। सुरक्षा ऐसी कि एक साथ 21 वार्डन रात भर पहरा देते थे। बंदी भागकर कहां जाते, जेल के तीन तरफ एक एक हजार किमी तक समन्दर जो ठहरा।

जेल परिसर देखते हुए इसके निर्माण में लगे अंग्रेज़ों के प्रशासनिक व शातिर दिमाग़ की छाप स्पष्ट दिखती है। हर कैदी को नारियल व सरसों का तेल निकालने का निर्धारित कोटा पूरा करना पडता था। न कर पाने या मना करने पर कोड़े लगाए जाते थे, खाना पीना बंद कर हाथ पैरों में भारी भरकम जंजीरें डालते। कई दिन तक बिजली के झटके दिए जाते। कोल्हू में बैल बना दिए जाते। खाने में जली कच्ची रोटी व कीड़े युक्त चावल दाल सब्ज़ी वो भी भरपेट नहीं। पीने का पानी पर्याप्त नहीं नित्यकर्म करना मुसीबत। कई कई महीने एक दूसरे को देखे हो जाते थे, बातचीत करना तो दूर। समाचार पत्र व पत्र व्यव्हार पर पाबंदी। कोठरियों के सामने फांसी दी जाती। फांसी घर में एक साथ तीन बंदियों को फांसी दी जाती थी, फिर भी क्रांतिकारी हड़ताल और भूख हड़ताल भी करते थे। 12 मई 1933 से भूख हड़ताल हुई तो 26 जून 1933 को अंग्रेज़ों को हथियार डालने पड़े। कैदियों को पत्र पत्रिकाएं मिलने लगी। दिसम्बर 1937 से घर वापसी शुरू हुई। स्वतंत्रता सेनानियों ने ही इसे 1979 में राष्ट्रीय स्मारक घोषित कराया।

साढ़े तेरह×सात वर्गफुट की दर्जनों कोठरियां अब खामोश हैं मगर यहां घूमते हुए आज़ादी की कीमत का अंदाज़ा सहज होने लगता है। सुविधाओं के गुलाम हो चुके हम सैल्यूलर जेल में टहलते हुए समझना नहीं चाहते कि 1857 के विद्रोहियों समेत सैंकड़ों स्वतंत्रता सेनानियों ने अंग्रेज़ों के कैसे कैसे अमानवीय, घृणा जगाते ज़ुल्म बरसों सहे मगर देशप्रेम व आज़ादी की तमन्ना को कम न होने दिया। वीर सावरकर जिस सैल में यहां 1911 से 1921 तक रहे लोग उसे सबसे ज़्यादा गौर से देखते हैं। प्रवेश द्वार के दाई ओर एक संग्रहालय है जहां वीर सेनानियों को दी जाने वाली यातनाओं के चित्र, हथकड़ियों व बेड़ियों के मॉडल, तेल घानी वगैरा हैं। यहां एक फोटो गैलरी भी है जिसमें भुलाई जा चुकी ऐतिहासिक घटनाओं के बोलते चित्र हैं। जेल के प्रांगण में नारियल सुपारी के लहलहाते वृक्षों के साथ खिलखिलाते दिखावटी पौधे व तीन तरफ फैला समुद्र भी है जो पर्यटकों की जेलयात्रा को सहज बनाने में मदद करता है।



भारत सरकार के संगीत एवं नाट्य विभाग द्वारा सांयकाल में जेल प्रांगण में ध्वनि एवं प्रकाश शो आयोजित होता है। पर्यटकों की रेलमपेल है। लाईट एंड साउंड शो का समय हो रहा है। पर्यटक मुख्य गेट से टिकट पर प्रवेश कर रहे हैं। शो पहले हिन्दी में, फिर अंग्रेज़ी में होगा।


'जिंदगी भर को हमें भेजके कालापानी,
कोई माता की उम्मीदों पर न फेरे पानी’

हमारे देश की सिद्धहस्त रंगमंचीय आवाजों ने क्रांतिसमय की क्रूर घटनाओं को मर्मस्पर्शी बना दिया है। ध्वनि एवं प्रकाश के माध्यम से किया गया यह एक प्रभावोपादक प्रयास है जो किसी को भी देशभक्त बनने को प्रेरित करने में सक्षम है। मगर हम हिन्दुस्तानी रिकार्डिंग की मनाही के बावजूद रिर्काड करते रहे। मोबाइल बजते रहे, बातें और खुसरपुसर होती रही जब तक कर्मियों ने आकर मना नहीं किया। यहां लगा देशप्रेम अब मनोरंजन हो गया है। यह अनुभव कई बरस पुराना है लेकिन लगता नहीं वहाँ अभी कुछ बदला होगा। इस स्थिति से उपजा बेटी का कमेंट काफी ईमानदार लगा। 'हर हिन्दुस्तानी को एक बार यहां भेजना चाहिए' वह बोली थी। शायद उसका मंतव्य देश के अंदरूनी दुश्मनों से रहा होगा। मगर किस किस को भेजेंगे। वह यहां आकर जो सुविधांए मांगेगे उसका क्या। देश के करोड़ों हड़पकर हंसते हुए जेल जाते हैं और बीमार पड़ जाते हैं ताकि बढ़िया हस्पताल में भरती होकर आराम से स्वास्थय लाभ कर सकें। आज आज़ादी के लिए मिटने वाले दीवाने गायब हैं। आज़ादी को सठियाए हुए भी अब तो एक दशक हो चुका, बेचारी भारत में आकर पछता रही है मगर किसी से कह नहीं सकती क्यूंकि वह स्वतः गुलाम है।

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