#बदलती_जलवायु_से_तप_रही_है_धरती_ग्लोबल_वार्मिंग_के_रूप_में_दे_रही_है_वार्निंग;
पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है।
यह सर्वविदित और निर्विवाद तथ्य है।
संयुक्त राष्ट्र से जुड़ी अन्तर-सरकारी समिति के साथ कार्यरत 600 से ज्यादा वैज्ञानिकों का मानना है कि इसके कारणों में सबसे अधिक योगदान मनुष्य की करतूतों का है। पिछली आधी सदी के दौरान कोयला और पेट्रोलियम जैसे जीवाश्म ईंधनों के फूँकने से वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड और दूसरी ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा खतरनाक हदों तक पहुँच गई है। मोटे अनुमान के मुताबिक आज हमारी आबोहवा में औद्योगिक युग के पहले की तुलना में 30 प्रतिशत ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड मौजूद है।
सामान्य स्थितियों में सूर्य की किरणों से आने वाली ऊष्मा का एक हिस्सा हमारे वातावरण को जीवनोपयोगी गर्मी प्रदान करता है और शेष विकिरण धरती की सतह से टकराकर वापस अन्तरिक्ष में लौट जाता है। वैज्ञानिकों के अनुसार वातावरण में मौजूद ग्रीनहाउस गैसें लौटने वाली अतिरिक्त ऊष्मा को सोख लेती हैं जिससे धरती की सतह का तापमान बढ़ जाता है। ऐसी आशंका है कि 21वीं सदी के बीतते-बीतते पृथ्वी के औसत तापमान में 1.1 से 6.4 डिग्री सेंटीग्रेड तक बढ़ोत्तरी हो जाएगी।
भारत में बंगाल की खाड़ी के आसपास यह वृद्धि 2 डिग्री तक होगी जबकि हिमालयी क्षेत्रों में पारा 4 डिग्री तक चढ़ जाएगा। अंकों में यह वृद्धि भले मामूली लगे लेकिन इसका असर समूची मानव सभ्यता में भारी उलटफेर करने की क्षमता रखती है। आज मौसम के अप्रत्याशित व्यवहार को धरती के तापमान बढ़ने से जोड़ा जा रहा है। सूखा, अतिवृष्टि, चक्रवात और समुद्री हलचलों को वैज्ञानिक तापमान वृद्धि का नतीजा बताते हैं। पिछले छह दशकों में ध्रुवीय बर्फ भण्डारों में जबरदस्त गिरावट दर्ज की गई है।
नासा के एक अध्ययन के अनुसार मौजूदा सदी के बीतते-बीतते इस कमी से समुद्री जलस्तर वृद्धि के परिणामस्वरूप दुनिया भर की तटीय बस्तियाँ जलमग्न हो चुकी होंगी। दूसरी ओर खेतिहर मैदानी इलाकों में पानी की किल्लत कृषि उत्पादन पर बहुत बुरा असर डालेगी। धरती का तापमान बढ़ने से समूची जलवायु बदल जाएगी।
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव खासतौर पर जीव-जन्तुओं और पौधों पर दिखाई देने लगा है। मेढक से लेकर फूलदार पौधों तक में प्रकट हो रहे बदलाव असम्बद्ध घटनाएँ नहीं हैं बल्कि धरती के गरम होने के संकेत चिन्ह हैं। पौधों व जन्तुओं की 1700 प्रजातियों पर हुए एक अध्ययन के अनुसार ये प्रजातियाँ लगभग 6.1 किलोमीटर प्रति दशक की गति से ध्रुवों की ओर खिसक रही है और प्रत्येक दशक के बाद वसंत के मौसम में जन्तुओं के अंडे देने व प्रसव काल में 2.3 दिनों की कमी दर्ज की गई है।
ढाई हजार किलोमीटर में फैले हिमालय पर्वतमाला में जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि के अनेक लक्षण दिखाई पड़ते हैं। ग्लेशियर तेजी से सिकुड़ रहे हैं और वृक्ष घटते जा रहे हैं। गंगा का पवित्र उद्गम गोमुख ग्लेशियर पिछली एक सदी में 19 किलोमीटर से अधिक सिकुड़ गया है और आज इसके सिकुड़ने की रफ्तार 98 फीट प्रतिवर्ष है। ग्लेशियरों के पिघलने की यह गति बनी रही तो सन 2035 तक मध्य व पूर्व हिमालय के सारे ग्लेशियर लुप्त हो जाएँगे।
कुदरत के साथ छेडखानी का खामियाजा बेजुबान जानवरों के साथ साथ हाशिए पर रहने वाले लोग उठाते हैं। जंगलों, नदियों, समुद्र तटों व प्राकृतिक संसाधनों पर सदियों से आश्रित आदिवासी व कमजोर तबकों का अस्तित्व एवं आजीविका औद्योगिक विकास और शहरीकरण की भेंट चढती रही है। बाँधों-खदानों से उजडने वाले बेसहारा महानगरों की ओर ऐसे ही नहीं उमड़ते।
शहरों में कोढ़ की तरह दुत्कारे जाने वाले इन ‘पारिस्थितिकीय शरणार्थियों’ को प्रकृति के साथ आदमी की छेड़छाड़ के दुष्परिणामों का पहला शिकार माना जाना चाहिए। लेकिन इनकी दुर्दशा और विस्थापन ने कभी ऐसा शोर नहीं पैदा किया। जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र की अन्तरसरकारी समिति की रिपोर्ट जारी होने के बाद थोड़ी हलचल हुई, फिर लगता है कि सब कुछ सामान्य गति से चलने लगा है। हालांकि 113 देशों के 620 शीर्ष वैज्ञानिकों की पाँच साल की माथापच्ची से निकली रिपोर्ट ने दुनिया के सारे संसाधनों पर अपनी मिल्कियत समझने वाले दौलतमन्द देशों के माथे पर भी सिलवटें डाल दी।
अमेरीका और उसके पिछलग्गुओं ने धरती के तापमान बढ़ने और उसके कारण जलवायु परिवर्तन को ‘पर्यावरणीय आतंकवादियों’ का दुष्प्रचार बताने वाले देशी-विदेशी नीति-निर्माताओं को भी अब मामले की गम्भीरता नजर आने लगी है। कारण साफ है। सुर्खियाँ कहती हैं कि इस बार ध्रुवों, ग्लेशियरों के पिघलने से तटवर्ती मछुआरों की झोपड़ियाँ ही नहीं बल्कि नरीमन प्वाइंट की बहुमंजिला इमारतों के भी जलप्लावित होने का अन्देशा उत्पन्न हो गया है।
डेंगू, मलेरिया और दूसरी संक्रामक बीमारियाँ मलिन बस्तियों की सीमाएँ लाँघ कर आभिजात्य कालोनियों का रुख करने लगी हैं। बीते वर्ष राजधानी दिल्ली में डेंगू ने कई हस्तियों को अपनी चपेट में लेकर अपने इलाके में विस्तार के संकेत दे दिये हैं। इसी तरह पानीबिजली का संकट अब गाँव-कस्बों और छोटे शहरों की चीज नहीं रही, महानगरों की सफेदपोश कालोनियों में संकट कहीं अधिक गहरा हो गया है। कुल मिलाकर उदारीकरण के रथ पर सवार अनियंत्रित उपभोक्तावाद के सूर्य को ग्लोबल वार्मिंग के डरावने बादल ढँकने लगे हैं।
औद्योगिक और उत्तर औद्योगिक सभ्यता की यह सबसे बड़ी विडम्बना है। हम सुविधाएँ तो भरपूर चाहते हैं, मगर उनकी पर्यावरणीय कीमत चुकाने में हमारी दिलचस्पी नहीं। इस विचारधारा की ध्वजावाहक पश्चिमी दुनिया है जो अपनी ऊर्जा खपत के कारण ग्रीनहाउस गैसों की सबसे बड़ी उत्सर्जक है। बस अपनी सुख-सुविधा की चिन्ता और इस पर सवाल उठाने वाले को रौंद डालने के तेवर।
अमेरिका और आस्ट्रेलिया अपने हिस्से का प्रदूषण सिर्फ इसलिये घटाने को तैयार नहीं क्योंकि ऐसा करने से उनकी अर्थव्यवस्था पर असर पड़ेगा और प्रकारान्तर से उनके देशवासियों के ऐशो आराम पर आँच आएगी। लेकिन कुदरत इस मौजमस्ती का अब हिसाब चाहती है। आज सादे जीवन का उपदेश कोई धर्मगुरू या साधु महाराज नहीं दे रहे बल्कि तकनीकी सुविधाओं का मार्ग प्रशस्त करने वाले विज्ञान के कारिन्दे ऐसी सलाह दे रहे हैं। विज्ञान कहता है कि धरती पर जितने यांत्रिक क्रियाकलाप होंगे उतनी ही मात्रा में प्रदूषण पैदा होगा।
बेतहाशा बिजली खर्च करते, वाहन दौडाते, दिन-रात तमाम जरूरी, गैरजरूरी खरीददारी करते, बेहिसाब कचरा पैदा करते और संसाधनों पर कब्जे के लिये विनाशकारी हथियारों का अम्बार लगा देने वाले ‘सभ्य आदमी’ को यह खयाल भी नहीं आता कि महज कागजी नोटों से इनकी कीमत नहीं चुकाई जा सकती। दुनिया के एक चौथाई सम्पन्न लोग उच्च उर्जा खपत आधारित अपनी जीवनशैली के लिये न केवल शेष मनुष्यों और सारे जीव-जन्तुओं का हिस्सा मार रहे हैं, बल्कि खुद अपने हिस्से की दुनिया को भी संकट में डाल रहे हैं।
ग्लोबल वार्मिंग का शोर मचाने या चन्द प्रतीकात्मक कर्मकाण्डों को दोहराने भर से धरती का चढ़ता पारा उतरने वाला नहीं है। बुनियादी प्रश्न यह है कि दुनिया और खासतौर पर पश्चिम का अगड़ा समाज जीवनशैली के मोर्चे पर पीछे हटने को तैयार होंगे? क्या वे उपभोक्तावाद को तिलांजलि दे पाएँगे? और उपभोक्तावाद तो वैश्विक पूँजीवाद का नवीनतम और सबसे प्रिय वाहन है।
कुल मिलाकर राह बहुत आसान नहीं है और कुदरत के रंगमंच पर आदमी की भूमिका में काँट-छाँट किये बिना नाटक सुखांत नहीं होने वाला। वैज्ञानिकों के एक हिस्से का तो यहाँ तक मानना है कि जलवायु परिवर्तन में हम उस मुकाम पर जा पहुँचे हैं जहाँ से अब कुछ खोए बिना वापसी सम्भव नहीं है। वैज्ञानिक कहते हैं कि मौसम की चरम परिघटनाओं को भविष्य का संकेत भर समझना चाहिए क्योंकि ग्लोबल वार्मिंग के ये नतीजे पिछली सदी में धरती के तापमान में हुई मामूली वृद्धि से पैदा हुए है। अगली एक सदी में आने वाले बदलावों की कल्पना भयावह है जब तापमान 6 डिग्री तक बढ़ने का अनुमान है।
रिकॉर्ड दर्शाते हैं कि 19वीं सदी की औद्योगिक क्रांति के बाद से पृथ्वी के तापमान में वृद्धि हो रही है। कोयले और तेल जैसे जीवाश्म ईंधनों के विस्तृत प्रयोग के चलते वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड के स्तर में अभूतपूर्व और अत्यधिक तेजी से वृद्धि हुई है। मीथेन, ओज़ोन और अन्य गैसों के साथ धूल में भी बहुत बढ़ोत्तरी हुई है। इन सबका पृथ्वी की जलवायु पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। विडंबना यह है कि यह प्राकृतिक ‘ग्रीनहाउस’ प्रभाव ही था जिसने पृथ्वी को पर्याप्त गर्मी प्रदान कर जीवन के लिए अनुकूल बनाया और आज यही हमारे अस्तित्व के लिए खतरा बन गया है। सच ही है कि किसी भी चीज की अधिकता (अच्छी चीजों की भी) बुरी होती है।
परंतु हम यह कैसे जानते हैं कि पुराकाल में पृथ्वी की जलवायु कैसी थी? इसके लिए हम हिम अभ्यंतरों या बर्फ के सारभाग का अध्ययन करते हैं जो महत्वपूर्ण सूचनाएं प्रदान करता है। एक हिम अभ्यंतर का नमूना वह नमूना होता है जो हजारों-लाखों वर्षों से जमी बर्फ और बर्फीली चट्टानों को भेद कर प्राप्त किया जाता है और इसमें अलग-अलग समय के हवा के बुलबुले कैद होते हैं। इन हिम अभ्यंतरों का संघटन उस काल की जलवायु का चित्रण करता है। विशिष्ट हिम अभ्यंतर सामान्यतया अंटार्कटिका, ग्रीनलैंड या अन्य ऊंचे पर्वतीय ग्लेशियरों पर बिछी बर्फ की चादरों से प्राप्त किए जाते हैं। चूंकि कठोर बर्फ साल दर साल गिरने वाली नरम बर्फ की परतों से ही बनती है, अंदर की परतें बाहर की परतों से पुरानी होती हैं। इस हिसाब से एक हिम अभ्यंतर कई वर्षों की बर्फ से मिलकर बना होता है। बर्फ या इसके भीतर मौजूद तत्वों के गुणधर्मों को प्रयोग कर हिम अभ्यंतर काल के जलवायु अभिलेख पुनर्निर्मित किए जा सकते हैं।
हिम अभ्यंतर अभिलेख दर्शाते हैं कि पुराकाल में जब भी कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि हुई है, तापमान में भी वृद्धि हुई है। हिम अभ्यंतरों के आधार पर प्राप्त पुराने परिवर्तनों की तुलना में वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में वर्तमान वृद्धि 200 गुना अधिक है। इसका वर्तमान स्तर 380 भाग प्रति दस लाख भाग (380 पी.पी.एम.) है जो विगत साढ़े छह लाख वर्षों में सर्वाधिक है और इसके घटने के कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं।
पेड़ पौधे जंगल बचाने की कोशिश करें।
पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है।
यह सर्वविदित और निर्विवाद तथ्य है।
संयुक्त राष्ट्र से जुड़ी अन्तर-सरकारी समिति के साथ कार्यरत 600 से ज्यादा वैज्ञानिकों का मानना है कि इसके कारणों में सबसे अधिक योगदान मनुष्य की करतूतों का है। पिछली आधी सदी के दौरान कोयला और पेट्रोलियम जैसे जीवाश्म ईंधनों के फूँकने से वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड और दूसरी ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा खतरनाक हदों तक पहुँच गई है। मोटे अनुमान के मुताबिक आज हमारी आबोहवा में औद्योगिक युग के पहले की तुलना में 30 प्रतिशत ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड मौजूद है।
सामान्य स्थितियों में सूर्य की किरणों से आने वाली ऊष्मा का एक हिस्सा हमारे वातावरण को जीवनोपयोगी गर्मी प्रदान करता है और शेष विकिरण धरती की सतह से टकराकर वापस अन्तरिक्ष में लौट जाता है। वैज्ञानिकों के अनुसार वातावरण में मौजूद ग्रीनहाउस गैसें लौटने वाली अतिरिक्त ऊष्मा को सोख लेती हैं जिससे धरती की सतह का तापमान बढ़ जाता है। ऐसी आशंका है कि 21वीं सदी के बीतते-बीतते पृथ्वी के औसत तापमान में 1.1 से 6.4 डिग्री सेंटीग्रेड तक बढ़ोत्तरी हो जाएगी।
भारत में बंगाल की खाड़ी के आसपास यह वृद्धि 2 डिग्री तक होगी जबकि हिमालयी क्षेत्रों में पारा 4 डिग्री तक चढ़ जाएगा। अंकों में यह वृद्धि भले मामूली लगे लेकिन इसका असर समूची मानव सभ्यता में भारी उलटफेर करने की क्षमता रखती है। आज मौसम के अप्रत्याशित व्यवहार को धरती के तापमान बढ़ने से जोड़ा जा रहा है। सूखा, अतिवृष्टि, चक्रवात और समुद्री हलचलों को वैज्ञानिक तापमान वृद्धि का नतीजा बताते हैं। पिछले छह दशकों में ध्रुवीय बर्फ भण्डारों में जबरदस्त गिरावट दर्ज की गई है।
नासा के एक अध्ययन के अनुसार मौजूदा सदी के बीतते-बीतते इस कमी से समुद्री जलस्तर वृद्धि के परिणामस्वरूप दुनिया भर की तटीय बस्तियाँ जलमग्न हो चुकी होंगी। दूसरी ओर खेतिहर मैदानी इलाकों में पानी की किल्लत कृषि उत्पादन पर बहुत बुरा असर डालेगी। धरती का तापमान बढ़ने से समूची जलवायु बदल जाएगी।
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव खासतौर पर जीव-जन्तुओं और पौधों पर दिखाई देने लगा है। मेढक से लेकर फूलदार पौधों तक में प्रकट हो रहे बदलाव असम्बद्ध घटनाएँ नहीं हैं बल्कि धरती के गरम होने के संकेत चिन्ह हैं। पौधों व जन्तुओं की 1700 प्रजातियों पर हुए एक अध्ययन के अनुसार ये प्रजातियाँ लगभग 6.1 किलोमीटर प्रति दशक की गति से ध्रुवों की ओर खिसक रही है और प्रत्येक दशक के बाद वसंत के मौसम में जन्तुओं के अंडे देने व प्रसव काल में 2.3 दिनों की कमी दर्ज की गई है।
ढाई हजार किलोमीटर में फैले हिमालय पर्वतमाला में जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि के अनेक लक्षण दिखाई पड़ते हैं। ग्लेशियर तेजी से सिकुड़ रहे हैं और वृक्ष घटते जा रहे हैं। गंगा का पवित्र उद्गम गोमुख ग्लेशियर पिछली एक सदी में 19 किलोमीटर से अधिक सिकुड़ गया है और आज इसके सिकुड़ने की रफ्तार 98 फीट प्रतिवर्ष है। ग्लेशियरों के पिघलने की यह गति बनी रही तो सन 2035 तक मध्य व पूर्व हिमालय के सारे ग्लेशियर लुप्त हो जाएँगे।
कुदरत के साथ छेडखानी का खामियाजा बेजुबान जानवरों के साथ साथ हाशिए पर रहने वाले लोग उठाते हैं। जंगलों, नदियों, समुद्र तटों व प्राकृतिक संसाधनों पर सदियों से आश्रित आदिवासी व कमजोर तबकों का अस्तित्व एवं आजीविका औद्योगिक विकास और शहरीकरण की भेंट चढती रही है। बाँधों-खदानों से उजडने वाले बेसहारा महानगरों की ओर ऐसे ही नहीं उमड़ते।
शहरों में कोढ़ की तरह दुत्कारे जाने वाले इन ‘पारिस्थितिकीय शरणार्थियों’ को प्रकृति के साथ आदमी की छेड़छाड़ के दुष्परिणामों का पहला शिकार माना जाना चाहिए। लेकिन इनकी दुर्दशा और विस्थापन ने कभी ऐसा शोर नहीं पैदा किया। जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र की अन्तरसरकारी समिति की रिपोर्ट जारी होने के बाद थोड़ी हलचल हुई, फिर लगता है कि सब कुछ सामान्य गति से चलने लगा है। हालांकि 113 देशों के 620 शीर्ष वैज्ञानिकों की पाँच साल की माथापच्ची से निकली रिपोर्ट ने दुनिया के सारे संसाधनों पर अपनी मिल्कियत समझने वाले दौलतमन्द देशों के माथे पर भी सिलवटें डाल दी।
अमेरीका और उसके पिछलग्गुओं ने धरती के तापमान बढ़ने और उसके कारण जलवायु परिवर्तन को ‘पर्यावरणीय आतंकवादियों’ का दुष्प्रचार बताने वाले देशी-विदेशी नीति-निर्माताओं को भी अब मामले की गम्भीरता नजर आने लगी है। कारण साफ है। सुर्खियाँ कहती हैं कि इस बार ध्रुवों, ग्लेशियरों के पिघलने से तटवर्ती मछुआरों की झोपड़ियाँ ही नहीं बल्कि नरीमन प्वाइंट की बहुमंजिला इमारतों के भी जलप्लावित होने का अन्देशा उत्पन्न हो गया है।
डेंगू, मलेरिया और दूसरी संक्रामक बीमारियाँ मलिन बस्तियों की सीमाएँ लाँघ कर आभिजात्य कालोनियों का रुख करने लगी हैं। बीते वर्ष राजधानी दिल्ली में डेंगू ने कई हस्तियों को अपनी चपेट में लेकर अपने इलाके में विस्तार के संकेत दे दिये हैं। इसी तरह पानीबिजली का संकट अब गाँव-कस्बों और छोटे शहरों की चीज नहीं रही, महानगरों की सफेदपोश कालोनियों में संकट कहीं अधिक गहरा हो गया है। कुल मिलाकर उदारीकरण के रथ पर सवार अनियंत्रित उपभोक्तावाद के सूर्य को ग्लोबल वार्मिंग के डरावने बादल ढँकने लगे हैं।
औद्योगिक और उत्तर औद्योगिक सभ्यता की यह सबसे बड़ी विडम्बना है। हम सुविधाएँ तो भरपूर चाहते हैं, मगर उनकी पर्यावरणीय कीमत चुकाने में हमारी दिलचस्पी नहीं। इस विचारधारा की ध्वजावाहक पश्चिमी दुनिया है जो अपनी ऊर्जा खपत के कारण ग्रीनहाउस गैसों की सबसे बड़ी उत्सर्जक है। बस अपनी सुख-सुविधा की चिन्ता और इस पर सवाल उठाने वाले को रौंद डालने के तेवर।
अमेरिका और आस्ट्रेलिया अपने हिस्से का प्रदूषण सिर्फ इसलिये घटाने को तैयार नहीं क्योंकि ऐसा करने से उनकी अर्थव्यवस्था पर असर पड़ेगा और प्रकारान्तर से उनके देशवासियों के ऐशो आराम पर आँच आएगी। लेकिन कुदरत इस मौजमस्ती का अब हिसाब चाहती है। आज सादे जीवन का उपदेश कोई धर्मगुरू या साधु महाराज नहीं दे रहे बल्कि तकनीकी सुविधाओं का मार्ग प्रशस्त करने वाले विज्ञान के कारिन्दे ऐसी सलाह दे रहे हैं। विज्ञान कहता है कि धरती पर जितने यांत्रिक क्रियाकलाप होंगे उतनी ही मात्रा में प्रदूषण पैदा होगा।
बेतहाशा बिजली खर्च करते, वाहन दौडाते, दिन-रात तमाम जरूरी, गैरजरूरी खरीददारी करते, बेहिसाब कचरा पैदा करते और संसाधनों पर कब्जे के लिये विनाशकारी हथियारों का अम्बार लगा देने वाले ‘सभ्य आदमी’ को यह खयाल भी नहीं आता कि महज कागजी नोटों से इनकी कीमत नहीं चुकाई जा सकती। दुनिया के एक चौथाई सम्पन्न लोग उच्च उर्जा खपत आधारित अपनी जीवनशैली के लिये न केवल शेष मनुष्यों और सारे जीव-जन्तुओं का हिस्सा मार रहे हैं, बल्कि खुद अपने हिस्से की दुनिया को भी संकट में डाल रहे हैं।
ग्लोबल वार्मिंग का शोर मचाने या चन्द प्रतीकात्मक कर्मकाण्डों को दोहराने भर से धरती का चढ़ता पारा उतरने वाला नहीं है। बुनियादी प्रश्न यह है कि दुनिया और खासतौर पर पश्चिम का अगड़ा समाज जीवनशैली के मोर्चे पर पीछे हटने को तैयार होंगे? क्या वे उपभोक्तावाद को तिलांजलि दे पाएँगे? और उपभोक्तावाद तो वैश्विक पूँजीवाद का नवीनतम और सबसे प्रिय वाहन है।
कुल मिलाकर राह बहुत आसान नहीं है और कुदरत के रंगमंच पर आदमी की भूमिका में काँट-छाँट किये बिना नाटक सुखांत नहीं होने वाला। वैज्ञानिकों के एक हिस्से का तो यहाँ तक मानना है कि जलवायु परिवर्तन में हम उस मुकाम पर जा पहुँचे हैं जहाँ से अब कुछ खोए बिना वापसी सम्भव नहीं है। वैज्ञानिक कहते हैं कि मौसम की चरम परिघटनाओं को भविष्य का संकेत भर समझना चाहिए क्योंकि ग्लोबल वार्मिंग के ये नतीजे पिछली सदी में धरती के तापमान में हुई मामूली वृद्धि से पैदा हुए है। अगली एक सदी में आने वाले बदलावों की कल्पना भयावह है जब तापमान 6 डिग्री तक बढ़ने का अनुमान है।
रिकॉर्ड दर्शाते हैं कि 19वीं सदी की औद्योगिक क्रांति के बाद से पृथ्वी के तापमान में वृद्धि हो रही है। कोयले और तेल जैसे जीवाश्म ईंधनों के विस्तृत प्रयोग के चलते वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड के स्तर में अभूतपूर्व और अत्यधिक तेजी से वृद्धि हुई है। मीथेन, ओज़ोन और अन्य गैसों के साथ धूल में भी बहुत बढ़ोत्तरी हुई है। इन सबका पृथ्वी की जलवायु पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। विडंबना यह है कि यह प्राकृतिक ‘ग्रीनहाउस’ प्रभाव ही था जिसने पृथ्वी को पर्याप्त गर्मी प्रदान कर जीवन के लिए अनुकूल बनाया और आज यही हमारे अस्तित्व के लिए खतरा बन गया है। सच ही है कि किसी भी चीज की अधिकता (अच्छी चीजों की भी) बुरी होती है।
परंतु हम यह कैसे जानते हैं कि पुराकाल में पृथ्वी की जलवायु कैसी थी? इसके लिए हम हिम अभ्यंतरों या बर्फ के सारभाग का अध्ययन करते हैं जो महत्वपूर्ण सूचनाएं प्रदान करता है। एक हिम अभ्यंतर का नमूना वह नमूना होता है जो हजारों-लाखों वर्षों से जमी बर्फ और बर्फीली चट्टानों को भेद कर प्राप्त किया जाता है और इसमें अलग-अलग समय के हवा के बुलबुले कैद होते हैं। इन हिम अभ्यंतरों का संघटन उस काल की जलवायु का चित्रण करता है। विशिष्ट हिम अभ्यंतर सामान्यतया अंटार्कटिका, ग्रीनलैंड या अन्य ऊंचे पर्वतीय ग्लेशियरों पर बिछी बर्फ की चादरों से प्राप्त किए जाते हैं। चूंकि कठोर बर्फ साल दर साल गिरने वाली नरम बर्फ की परतों से ही बनती है, अंदर की परतें बाहर की परतों से पुरानी होती हैं। इस हिसाब से एक हिम अभ्यंतर कई वर्षों की बर्फ से मिलकर बना होता है। बर्फ या इसके भीतर मौजूद तत्वों के गुणधर्मों को प्रयोग कर हिम अभ्यंतर काल के जलवायु अभिलेख पुनर्निर्मित किए जा सकते हैं।
हिम अभ्यंतर अभिलेख दर्शाते हैं कि पुराकाल में जब भी कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि हुई है, तापमान में भी वृद्धि हुई है। हिम अभ्यंतरों के आधार पर प्राप्त पुराने परिवर्तनों की तुलना में वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में वर्तमान वृद्धि 200 गुना अधिक है। इसका वर्तमान स्तर 380 भाग प्रति दस लाख भाग (380 पी.पी.एम.) है जो विगत साढ़े छह लाख वर्षों में सर्वाधिक है और इसके घटने के कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं।
पेड़ पौधे जंगल बचाने की कोशिश करें।