भ्रष्टाचार का बढ़ता मर्ज


भ्रष्टाचार (Corruption) रूपी बुराई ने कैंसर की बीमारी का रूप अख्तियार कर लिया है । ‘मर्ज बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की’ वाली कहावत इस बुराई पर भी लागू हो रही है । संसद ने, सरकार ने और प्रबुद्ध लोगों व संगठनों ने इस बुराई को खत्म करने के लिए अब तक के जो प्रयास किए हैं, वे अपर्याप्त सिद्ध हुए हैं ।

इस क्रम में सबसे बड़ी विडंबना यह है कि समाज के नीति-निर्धारक राजनेता भी इसकी चपेट में बुरी तरह आ गए हैं । असल में भ्रष्टाचार का मूल कारण नैतिक मूल्यों (Moral Values) का पतन, भौतिकता (धन व पदार्थों के अधिकाधिक संग्रह और पैसे को ही परमात्मा समझा लेने की प्रवृत्ति) और आधुनिक सभ्यता से उपजी भोगवादी प्रवृत्ति है ।

भ्रष्टाचार अनेक प्रकार का होता है तथा इसके करने वाले भी अलग-अलग तरीके से भ्रष्टाचार करते हैं । जैसे आप किसी किराने वाले को लीजिए जो पिसा धनिया या हल्दी बेचता है । वह धनिया में घोड़े की लीद तथा हल्दी में मुल्तानी मिट्टी मिलाकर अपना मुनाफा बढ़ाता है और लोगों को जहर खिलाता है ।

यह मिलावट का काम भ्रष्टाचार है । दूध में आजकल यूरिया और डिटर्जेन्ट पाउडर मिलाने की बात सामने आने लगी है, यह भी भ्रष्टाचार है । बिहार में भ्रष्टाचार के कई मामले सामने आए हैं । यूरिया आयात घोटाला भी एक भ्रष्टाचार के रूप में सामने आया है । केन्द्र के कुछ मंत्रियों के काले-कारनामे चर्चा का विषय बने हुए हैं ।

सत्ता के मोह ने बेशर्मी ओढ़ रखी है । लोगों ने राजनीति पकड़ कर ऐसे पद हथिया लिए हैं जिन पर कभी इस देश के महान नेता सरदार बल्लभभाई पटेल, श्री रफी अहमद किदवई, पं॰ गोविन्द बल्लभ पंत जैसे लोग सुशोभित हुए थे ।

आज त्याग, जनसेवा, परोपकार, लोकहित तथा देशभक्ति के नाम पर नहीं, वरन् लोग आत्महित, जातिहित, स्ववर्गहित और सबसे ज्यादा समाज विरोधी तत्वों का हित करके नेतागण अपनी कुर्सी के पाए मजबूत कर रहे हैं ।

भ्रष्टाचार करने की नौबत तब आती है जब मनुष्य अपनी लालसाएं इतनी ज्यादा बढ़ा लेता है कि उनको पूरा करने की कोशिशों में उसे भ्रष्टाचार की शरण लेनी पड़ती है । बूढ़े-खूसट राजनीतिज्ञ भी यह नहीं सोचते कि उन्होंने तो भरपूर जीवन जी लिया है, कुछ ऐसा काम किया जाए जिससे सारी दुनिया में उनका नाम उनके मरने के बाद भी अमर रहे ।

रफी साहब की खाद्य नीति को आज भी लोग याद करते हैं । उत्तर प्रदेश के राजस्व मंत्री के रूप में उनका किया गया कार्य इतना लंबा समय बीतने के बाद भी किसान गौरव के साथ याद करते हैं । आज भ्रष्टाचार के मोतियाबिन्द से हमें अच्छाई नजर नहीं आ रही । इसीलिए सोचना जरूरी है कि भ्रष्टाचार को कैसे मिटाया जाए ।

इसके लिए निम्नलिखित उपाय काफी सहायक सिद्ध हो सकते हैं:

1. लोकपालों को प्रत्येक राज्य, केन्द्रशासित प्रदेश तथा केन्द्र में अविलम्ब नियुक्त किया जाए जो सीधे राष्ट्रपति के प्रति उत्तरदायी हों । उसके कार्य-क्षेत्र में प्रधानमंत्री तक को शामिल किया जाए ।

2. निर्वाचन व्यवस्था को और भी आसान तथा कम खर्चीला बनाया जाए ताकि समाज-सेवा तथा लोककल्याण से जुड़े लोग भी चुनावों में भाग ले सकें ।

3. भ्रष्टाचार का अपराधी चाहे कोई भी व्यक्ति हो, उसे कठोर से कठोर दण्ड दिया जाए ।

4. भ्रष्टाचार के लिए कठोर दण्ड देने का कानून बनाया जाए तथा ऐसे मामलों की सुनवाई ऐसी जगह की जाए जहां भ्रष्टाचारियों के कुत्सित कार्यों की आम जनता को भी जानकारी मिल सके और वह उससे सबक भी ले सके ।

5. हाल ही में बनाए गए सूचना के अधिकार कानून का सफलतापूर्वक प्रयोग किया जाए तथा सभी संबंधित लोगों द्वारा जवाबदेही सुनिश्चित की जाए ।

सामाजिक बहिष्कार कानून भी ज्यादा प्रभावकारी होता है । ऐसे लोगों के खिलाफ जगह-जगह प्रदर्शन तथा आन्दोलन किए जाने चाहिए ताकि भ्रष्टाचारियों को पता चले कि उनके काले कारनामे दुनिया जान चुकी है और जनता उनसे नफरत करती है ।

भ्रष्टाचार की समस्या

मनुष्य एक सामाजिक, सभ्य और बुद्धिमान प्राणी है । उसे अपने समाज में कई प्रकार के लिखित-अलिखित नियमों अनुशासनों और समझौतों का उचित पालन और निर्वाह करना होता है । उससे अपेक्षा होती है कि वह अपने आचरण-व्यवहार को नियंत्रित और संतुलित रखे जिससे किसी अन्य व्यक्ति को उसके व्यवहार अथवा कार्य से दुख न पहुँचे किसी की भावनाओं को ठेस न लगे ।

इसके विपरीत कुछ भी करने से मनुष्य भ्रष्ट होने लगता है और उसके आचरण और व्यवहार को सामान्य अर्थों में भ्रष्टाचार कहा जाता है । जब व्यक्ति के भ्रष्ट आचरण और व्यवहार पर समाज अथवा सरकार का कोई नियंत्रण नहीं रहता तब यह एक भयानक रोग की भांति समाज और देश को खोखला बना डालता है ।

हमारा समाज भी इस बुराई के शिकंजे में बुरी तरह जकड़ा हुआ है और लोगों का नैतिक मूल्यों से मानो कोई संबंध ही नहीं रह गया है । हमारे समाज में हर स्तर पर फैल रहे भ्रष्टाचार की व्यापकता में निरंतर वृद्धि हो रही है । भ्रष्टाचार के विभिन्न रूप-रंग हैं और इसी प्रकार नाम भी अनेक हैं ।

उदाहरणस्वरूप रिश्वत लेना, मिलावट करना, वस्तुएँ ऊँचे दामों पर बेचना, अधिक लाभ के लिए जमाखोरी करना अथवा कालाबाजारी करना और स्मग्लिंग करना आदि विभिन्न प्रकार के भ्रष्टाचारों के अंतर्गत आता

है । आज विभिन्न सरकारी कार्यालयों नगर-निगम या अन्य प्रकार के सरकारी निगमों आदि में किसी को कोई छोटा-सा एक फाइल को दूसरी मेज तक पहुँचाने जैसा काम भी पड़ जाए तो बिना रिश्वत दिए यह संभव नहीं हो पाता ।

किसी पीड़ित को थाने में अपनी रिपोर्ट दर्ज करानी हो कहीं से कोई फॉर्म लेना या जमा कराना हो लाइसेंस प्राप्त करना हो अथवा कोई नक्शा आदि पास करवाना हो तो बिना रिश्वत दिए अपना काम कराना संभव नहीं हो पाता । किसी भी रूप में रिश्वत लेना या देना भ्रष्टाचार के अंतर्गत ही आता है ।

आज तो नौबत यह है कि भ्रष्टाचार और रिश्वत के अपराध में पकड़ा गया व्यक्ति रिश्वत ही देकर साफ बच निकलता है । इस प्रकार का भ्रष्टाचार रात-दिन फल-फूल रहा है । भ्रष्टाचार में वृद्धि होने से आज हमारी समाज व्यवस्था के सम्मुख गंभीर चुनौती उत्पन्न हो गई है ।

भ्रष्टाचार के बढ़ने की एक बहुत बड़ी वजह हमारी शासन व्यवस्था की संकल्पविहीनता तो रही है, ही परंतु यदि हम इस समस्या का ध्यान से विश्लेषण करें तो इसका मूल कारण कुछ और ही प्रतीत होता है ।

वास्तव में मनुष्य के मन में भौतिक सुख-साधनों को पाने की लालसा निरंतर बढ़ती ही जा रही है ।

इस लालसा में विस्तार होने के कारण मनुष्य में लोक-लाज तथा परलोक का भय कम हुआ है और वह स्वार्थी अनैतिक और भौतिकवादी हो गया है । आज वह विभिन्न प्रकार के भौतिक और उपभोक्ता पदार्थों को एकत्रित करने की अंधी दौड़ में शामिल हो चुका है । इसका फल यह हुआ है कि उसका उदार मानवीय आचरण-व्यवहार एकदम पीछे छूट गया है ।

अब मनुष्य लालचपूर्ण विचारों से ग्रस्त है और वह रात-दिन भ्रष्टाचार के नित-नए तरीके खोज रहा है । खुद को पाक-साफ मानने वाले हम सभी आम जन भी प्राय: भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने में सहायक बन जाते हैं । हम स्वयं भी जब किसी काम के लिए किसी सरकारी कार्यालय में जाते हैं तो धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करना हमें कठिन-सा लगने लगता है ।

किसी कार्य में हो रही अनावश्यक देरी का कारण जानने और उसका विरोध करने का साहस हम नहीं जुटा पाते । इसके बजाय कुछ ले-देकर बल्कि किसी बात की परवाह किए बिना हम सिर्फ अपना काम निकालना चाहते हैं ।

आम लोगों का ऐसा आचरण भ्रष्टाचार को प्रश्रय और बढ़ावा ही देता है और ऐसे में यदि हम ही भ्रष्टाचार के विरुद्ध कुछ कहें अथवा उसे समाप्त करने की बातें करें तो यह किसी विडंबना से कम नहीं है । भ्रष्टाचार के निवारण के लिए सहज मानवीय चेतनाओं को जगाने नैतिकता और मानवीय मूल्यों की रक्षा करने आत्मसंयम अपनाकर अपनी भौतिक आवश्यकताओं को रखने तथा अपने साथ-साथ दूसरों का भी ध्यान रखने की भावना का विकास करने की आवश्यकता है ।

सहनशीलता धैर्य को अपनाना तथा भौतिक और उपभोक्ता वस्तुओं के प्रति उपेक्षा का भाव विकसित करना भी भ्रष्टाचार को रोकने में सहायक सिद्ध हो सकता है । अन्य उपायों के अंतर्गत सक्षम व दृढनिश्चयी शासन-प्रशासन का होना अति आवश्यक है ।

शासन-प्रशासन की व्यवस्था से जुड़े सभी व्यक्तियों का अपना दामन अनिवार्य रूप से पाक-साफ रखना चाहिए । आज के संदर्भों में अगली बार सत्ता मिले या न मिले नौकरी रहे या जाए लेकिन प्रशासन और शासन व्यवस्था को पूरी तरह स्वच्छ व पारदर्शी बनाना ही है, इस प्रकार का संकल्प लेना अति आवश्यक हो गया है ।


इन उपायों से डतर प्रप्टाचार पर नियंत्रण या उसके उन्यूलन का कोई और संभव उपाय फिलहाल नजर नहीं आता । भ्रष्टाचार से व्यक्ति और समाज दोनों की आत्मा मर जाती है । इससे शासन और प्रशासन की नींव कमजोर पड़ जाती है जिससे व्यक्ति
 समाज और देश की प्रगति की सभी आशाएँ व संभावनाएँ धूमिल पड़ने लगती है ।

अत: यदि हम वास्तव में अपने देश समाज और संपूर्ण मानवता की प्रगति और विकास चाहते हैं तो इसके लिए हमें हर संभव उपाय करके सर्वप्रथम भ्रष्टाचार का उन्यूलन करना चाहिए केवल तब ही हम चहुमुखी विकास और प्रगति के अपने स्वप्न को साकार कर सकेंगे ।

भ्रष्टाचार : राष्ट्र के विकास में बाधक

अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए अपने पद का दुरुपयोग करना और अनुचित ढंग से धन कमाना ही भ्रष्टाचार है । हमारे देश में विशेषतया सरकारी विभागों में अधिकांश कर्मचारी और अधिकारी भ्रष्टाचार में लिप्त हैं । चपरासी हो या उच्च अधिकारी, सभी अपने पद का दुरुपयोग करके धन-सम्पत्ति बनाने में लगे हुए हैं ।

सरकारी विभागों में रिश्वत के बिना कोई भी कार्य कराना आम आदमी के लिए सम्भव नहीं रहा है । कानून बनाने वाले और कानून के रक्षक होने का दावा करने वाले भी भ्रष्टाचार में लिप्त हैं । आम जनता के विश्वास पर उसके प्रतिनिधि के रूप में राज-काज सम्भालने वाले आज के राज-नेता भी बड़े-बड़े घोटालों में लिप्त पाए गए हैं ।

भ्रष्टाचार के मकड़-जाल में हमारे देश का प्रत्येक विभाग जकड़ा हुआ है और देश के विकास में बाधक बन रहा है । किसी भी राष्ट्र के विकास के लिए उसके नागरिकों का, राजकीय कर्मचारियों और अधिकारियों का निष्ठावान होना, अपने कर्तव्य का पालन करना आवश्यक है ।

परन्तु हमारे देश में लोग अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए अपने कर्तव्यों को भूलते जा रहे हैं । आज किसी भी विभाग में नौकरी के लिए एक उम्मीदवार को हजारों रुपये रिश्वत के रूप में देने पड़ते हैं । रिश्वत देकर प्राप्त किए गए पद का स्पष्टतया दुरुपयोग ही किया जाता है ।

वास्तव में हमारे देश में भ्रष्टाचार एक लाइलाज रोग के रूप में फैला हुआ है और समस्त सरकारी विभागों में यह आम हो गया है । रिश्वत को आज सुविधा-शुल्क का नाम दे दिया गया है और आम आदमी भी इस भ्रष्टाचार-संस्कृति का हिस्सा बनता जा रहा है ।

यद्यपि रिश्वत लेना और देना कानून की दृष्टि में अपराध है, परन्तु सरकारी कर्मचारी, अधिकारी निर्भय होकर रिश्वत माँग रहे हैं और आम आदमी सुविधा-शुल्क को अपने लिए सुविधा मानने लगा है । कोई ईमानदार व्यक्ति भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज उठाने का प्रयास करे भी तो उसकी सुनवाई कैसे हो सकती है, जबकि सुनने वाले स्वयं भ्रष्टाचार में लिप्त हैं ।

हमारे देश में भ्रष्टाचार की जड़ें इतनी गहरी हो चुकी हैं कि उन्हें उखाड़कर फेंकना सरल नहीं रहा है । भ्रष्टाचार का दुष्प्रभाव अवश्य पूरे देश में दिखाई दे रहा है । छोटे-बड़े-कार्य अथवा नौकरी के लिए रिश्वत देना-लेना ना आम बात हो गयी है ।

आम जनता की सुविधा के लिए घोषित की गयी विभिन्न परियोजनाओं का लाभ भी भ्रष्टाचार के कारण आम आदमी को नहीं मिल पा रहा है । सरकारी खजाने से परियोजनाओं के लिए जो धन भेजा जाता है उसका आधे से अधिक हिस्सा सम्बंधित अधिकारियों की जेबों में जाता है । प्राय: परियोजनाओं का आशिक लाभ ही आम जनता को मिल पाता है ।

भ्रष्टाचार के कारण अनेक परियोजनाएँ तो अधूरी रह जाती हैं और सरकारी खजाने का करोड़ों रुपया व्यर्थ चला जाता है ।

वास्तव में भ्रष्टाचार का सर्वाधिक दुष्प्रभाव आम जनता पर पड़ रहा है । सरकारी खजाने की वास्तविक अधिकारी आम जनता सदैव उससे वंचित रहती है । विभिन्न परियोजनाओं में खर्च किया जाने वाला जनता का धन बड़े-बड़े अधिकारियों और मंत्रियों को सुख-सुविधाएँ प्रदान करता है ।

विभिन्न विभागों के बड़े बड़े अधिकारी और राज नेता करोड़ों के घोटाले में सम्मिलित रहे हैं । जनता के रक्षक बनने का दावा करने वाले बड़े-बड़े पुलिस अधिकारी और कानून के रखवाले न्यायाधीश भी आज भ्रष्टाचार से अछूते नहीं हैं । कभी कभार किसी घोटाले अथवा रिश्वत कांड का भंडाफोड़ होता है तो उसके लिए जाँच समिति का गठन कर दिया जाता है ।

जाँच की रिपोर्ट आने में वर्षो लग जाते हैं । आम जनता न्याय की प्रतीक्षा करती रहती है और भ्रष्ट अधिकारी अंथवा मंत्री पूर्वत सुख-सुविधाएँ भोगते रहते हैं । भ्रष्टाचार के रहते आज जाँच रिपोर्ट को भी संदेह की दृष्टि से देखा जाता है ।

वास्तव में हमारे देश की जो प्रगति होनी चाहिए थी, आम जनता को जो सुविधाएँ मिलनी चाहिए थीं, भ्रष्टाचार के कारण न तो वह प्रगति हो सकी है, न ही जनता को उसका हक मिल पा रहा है । भ्रष्टाचार के रोग को समाप्त करने के लिए हमा: देश को योग्य और ईमानदार नेता की आवश्यकता है ।

भ्रष्टाचार: समस्या और समाधान

भ्रष्टाचार शब्द के योग में दो शब्द हैं, भ्रष्ट और आचार । भ्रष्ट का अर्थ है बुरा या बिगड़ा हुआ और आचार का अर्थ है आचरण । भ्रष्टाचार का शाब्दिक अर्थ हुआ-वह आचरण जो किसी प्रकार से अनैतिक और अनुचित है ।

हमारे देश में भ्रष्टाचार दिनों दिन बढ़ता जा रहा है । यह हमारे समाज और राष्ट्र के सभी अंगों को बहुत ही गंभीरतापूर्वक प्रभावित किए जा रहा है । राजनीति, समाज, धर्म, संस्कृति, साहित्य, दर्शन, व्यापार, उद्योग, कला, प्रशासन आदि में भ्रष्टाचार की पैठ आज इतनी अधिक हो चुकी है कि इससे मुक्ति मिलना बहुत कठिन लग रहा है ।

चारों ओर दुराचार, व्यभिचार, बलात्कार, अनाचार आदि सभी कुछ भ्रष्टाचार के ही प्रतीक हैं । इन्हें हम अलग-अलग नामों से तो जानते हैं लेकिन वास्तव में ये सब भ्रष्टाचार की जड़ें ही हैं । इसलिए भ्रष्टाचार के कई नाम-रूप तो हो गए हैं, लेकिन उनके कार्य और प्रभाव लगभग समान हैं या एक-दूसरे से बहुत ही मिलते-जुलते हैं ।

भ्रष्टाचार के कारण क्या हो सकते हैं । यह सर्वविदित है । भ्रष्टाचार के मुख्य कारणों में व्यापक असंतोष पहला कारण है । जब किसी को कुछ अभाव होता है और उसे वह अधिक कष्ट देता है, तो वह भ्रष्ट आचरण करने के लिए विवश हो जाता है । भ्रष्टाचार का दूसरा कारण स्वार्थ सहित परस्पर असमानता है । यह असमानता चाहे आर्थिक हो, सामाजिक हो या सम्मान पद-प्रतिष्ठ आदि में जो भी हो । जब एक व्यक्ति के मन में दूसरे के प्रति हीनता और ईर्ष्या की भावना उत्पन्न होती है, तो इससे शिकार हुआ व्यक्ति भ्रष्टाचार को अपनाने के लिए बाध्य हो जाता है ।

अन्याय और निष्पक्षता के अभाव में भी भ्रष्टाचार का जन्म होता है । जब प्रशासन या समाज किसी व्यक्ति या वर्ग के प्रति अन्याय करता है, उसके प्रति निष्पक्ष नहीं हो पाता है, तब इससे प्रभावित हुआ व्यक्ति या वर्ग अपनी दुर्भावना को भ्रष्टाचार को उत्पन्न करने में लगा देता है । इसी तरह से जातीयता, साम्प्रदायिकता, क्षेत्रीयता, भाषावाद, भाई-भतीजावाद आदि के फलस्वरूप भ्रष्टाचार का जन्म होता है । इससे चोर बाजारी, सीनाजोरी दलबदल, रिश्वतखोरी आदि अव्यवस्थाएँ प्रकट होती हैं ।

भ्रष्टाचार के कुपरिणामस्वरूप समाज और राष्ट्र में व्यापक रूप से असमानता और अव्यवस्था का उदय होता है । इससे ठीक प्रकार से कोई कार्य पद्धति चल नहीं पाती है और सबके अन्दर भय, आक्रोश और चिंता की लहरें उठने लगती हैं । असमानता का मुख्य प्रभाव यह भी होता है कि यदि एक व्यक्ति या वर्ग बहुत प्रसन्न है, तो दूसरा व्यक्ति या वर्ग बहुत ही निराश और दुःखी है । भ्रष्टाचार के वातावरण में ईमानदारी और सत्यता तो छूमन्तर की तरह गायब हो जाते हैं । इनके स्थान पर केवल बेईमानी और कपट का प्रचार और प्रसार हो जाता है ।

इसलिए हम कह सकते हैं कि भ्रष्टाचार का केवल दुष्प्रभाव ही होता है इसे दूर करना एक बड़ी चुनौती होती है । भ्रष्टाचार के द्वारा केवल दुष्प्रवृत्तियों और दुश्चरित्रता को ही बढ़ावा मिलता है । इससे सच्चरित्रता और सद्प्रवृत्ति की जडें समाप्त होने लगती हैं । यही कारण है कि भ्रष्टाचार की राजनैतिक, आर्थिक, व्यापारिक, प्रशासनिक और धार्मिक जड़ें इतनी गहरी और मजबूत हो गई हैं कि इन्हें उखाड़ना और इनके स्थान पर साफ-सुथरा वातावरण का निर्माण करना आज प्रत्येक राष्ट्र के लिए लोहे के चने चबाने के समान कठिन हो रहा है ।

नकली माल बेचना, खरीदना, वस्तुओं में मिलावट करते जाना, धर्म का नाम ले-लेकर अधर्म का आश्रय ग्रहण करना, कुर्सीवाद का समर्थन करते हुए इस दल से उस दल में आना-जाना, दोषी और अपराधी तत्त्वों को घूस लेकर छोड़ देना और रिश्वत लेने के लिए निरपराधी तत्त्वों को गिरफ्तार करना, किसी पद के लिए एक निश्चित सीमा का निर्धारण करके रिश्वत लेना, पैसे के मोह और आकर्षण के कारण हाय-हत्या, प्रदर्शन, लूट-पाट-चोरी कालाबाजारी, तस्करी आदि सब कुछ भ्रष्टाचार के मुख्य कारण हैं ।

भ्रष्टाचार की जड़ों को उखाड़ने के लिए सबसे पहले यह आवश्यक है कि हम इसके दोषी तत्त्वों को ऐसी कडी-से-कड़ी सजा दें कि दूसरा भ्रष्टाचारी फिर सिर न उठा सके । इसके लिए सबसे सार्थक और सही कदम होगा । प्रशासन को सख्त और चुस्त बनना होगा ।

न केवल सरकार अपितु सभी सामाजिक और धार्मिक संस्थाएँ, समाज और राष्ट्र के ईमानदार, कर्त्तव्यनिष्ठ सच्चे सेवकों, मानवता एवं नैतिकता के पुजारियों को प्रोत्साहन और पारितोषिक दे-देकर भ्रष्टाचारियों के हीन मनोबल को तोड़ना चाहिए । इससे सच्चाई, कर्त्तव्यपरायणता और कर्मठता की वह दिव्य ज्योति जल सकेगी । जो भ्रष्टाचार के अंधकार को समाप्त करके सुन्दर प्रकाश करने में समर्थ सिद्ध होगी ।







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