भारत में सबसे ज्यादा शोषण प्राइवेट नौकरी वालों का


भारत में सबसे ज्यादा शोषण प्राइवेट नौकरी वालों का;

अगर आज के समय में वास्तव में किसी का शोषण हो रहा है भारत में तो वह प्राइवेट नौकरी करने वालों का हो रहा है. ये शोषण कोई जाति-मजहब देखकर नहीं होता, एकतरफ से हर किसी का हो रहा है. जमाना बदल चुका है अब शोषण या सम्मान नस्ल देखकर नहीं पैसा देखकर होता है, जो पैसे से कमजोर हैं उससे मजबूरी में कुछ भी करवाया जा रहा है और जो पैसे से ताकतवर है उससे किसी की हिम्मत नहीं आँख मिलाने की भी.

एकतरफ भारत भले ही अंतरिक्ष तक की दूरियाँ नाप चुका हो लेकिन असलियत यह है कि, भारत की बड़ी आबादी दो जून की रोटी जुटाने के लिए मध्यकाल के गुलामों से भी बदतर जीवन जी रही हैं. समस्या यह नहीं है की भारत की एक बड़ी आबादी गुलामी का जीवन गुजार रही है, समस्या यह है कि, ये सिस्टम ऐसा बनाया गया है कि शोषित जनता को इसका भान तक नहीं हो रहा कि, वह गुलामी कर रही है ठीक वही गुलामी जो किसी समय बंधुआ मजदूर किया करते थे!

अगर आज के समय में वास्तव में किसी का शोषण हो रहा है भारत में तो वह प्राइवेट नौकरी करने वालों का हो रहा है. ये शोषण कोई जाति-मजहब देखकर नहीं होता, एकतरफ से हर किसी का हो रहा है. जमाना बदल चुका है अब शोषण या सम्मान नस्ल देखकर नहीं पैसा देखकर होता है, जो पैसे से कमजोर हैं उससे मजबूरी में कुछ भी करवाया जा रहा है और जो पैसे से ताकतवर है उससे किसी की हिम्मत नहीं आँख मिलाने की भी.

फैक्ट्रियों, कंपनियों और ऑफिसों में लोगों से गुलामों  एवं बंधुआ मजदूरों की तरह काम लिया जाता है. शारीरिक रूप से श्रम करने वाले मजदूरों की तो खाल निकाल ली जाती है. लेकिन इन सभी को तनख्वाह के नाम पर सिर्फ इतना दिया जाता है जितने से ढंग से उनका खाना भी नहीं हो पाता जबकि जिनके लिए वह काम करते हैं वह उन्हीं कामगारों की बदौलत करोड़पति-अरबपति बने घूम रहे हैं.

यह एक फैक्ट है की भारत का 95% तबका अपने पसंद का खाना सिर्फ त्यौहारों पर खा पाता है बाकी के दिन वह सिर्फ वही खाता है जिससे वह जी सके और गुलामों की तरह मेहनत मजदूरी कर सके जिससे की उसकी रोटी लगातार चलती रहे. देश के एक बड़े तबके का हाल और भी बुरा है जो जमकर मेहनत-मजदूरी करने के बावजूद भी भरपेट खाना तक नहीं खा पाता और हफ्ते के कुछ दिन भूखे रहकर गुजारता है.

भारत में सरकारी नौकरियों के प्रति लोगों में आकर्षण होना इसका प्रतीक है कि, वो प्राइवेट नौकरियों को किस दृष्टि से देखते हैं. प्राइवेट नौकरियों में जबर्दस्त काम लेने के बावजूद कुछ ख़ास नहीं दिया जाता वर्करों को जबकि उससे कई गुना कम काम लेने वाले सरकारी विभाग में वर्करों की हालत काफी अच्छी है. ऐसा नहीं है कि, सरकारी नौकरियों में लोगों को ज्यादा तनख्वाह दी जाती है लेकिन यह है कि, उन्हें अपने काम के अनुसार उचित वेतन मिल जाता है हालाँकि वह भी कई विभागों में बेहद कम है. सरकारी नौकरी वाले भी सभी सुखी हों ऐसा भी नहीं है.

लेकिन अगर प्राइवेट सेक्टर में नौकरी कर रहे लोगों की तुलना सरकारी विभागों से करें तो प्राइवेट सेक्टर के नौकरीपेशा बुरी तरह से शोषित हो रहे हैं. ना ही मात्र उनसे जमकर मेहनत ली जाती है बल्कि ज्यादा देर तक उन्हें कार्यक्षेत्र पर बांधकर रखा जाता है. आंकड़ों में देखते हैं किस देश में काम करने का कितना समय होता है.

विश्व के प्रमुख राष्ट्रों में कामकाजी सप्ताह और घंटो का

 औसत-
सप्ताह में औसत काम के घंटे अमेरिका में 38
कनाडा में 36
फ़्रांस /जर्मनी में 34
स्कैंडेनेवियन देशों में 32
चीन और पूर्वी एशिया में 60+
भारत में 62+

ज्ञात हो कि जर्मनी-फ़्रांस एवं स्कैंडेनेवियन देश दुनिया के सबसे सुखी और खुशहाल प्रांतो में आते हैं और दुनिया के अन्य भागों की अपेक्षा लोगों के लिए बेहतर माने जाते हैं. स्कैंडेनेवियन देशों में पांच राष्ट्र आते हैं डेनमार्क, फ़िनलैंड, आइसलैंड, नॉर्वे, स्वीडन.

इन देशों में भी लोग वही काम करते हैं जो भारत के लोग करते हैं लेकिन भारत की तरह दुनिया के खुशहाल देशों में लोगों का शोषण नहीं है और उन्हें उचित मेहनताना भी मिलता है. इसके साथ ही वहां नौकरी करने वाले लोगों की चिंता करने वाले अनगिनत संगठन होते हैं जो सभी कामगारों का ख्याल रखते हैं और कोई अनहोनी होने पर पीड़ितों को उचित मुआवजा दिलवाते हैं हालाँकि इसकी जरूरत कम ही पड़ती है क्योंकि फैक्ट्रियों कंपनियों के पहले से ही खुद के नियम-कानून होते हैं जिसके तहत एक-एक कामगार का ख्याल रखा जाता है.

जबकि भारत में प्राइवेट नौकरीपेशा दिहाड़ी मजदूर से ज्यादा कुछ नहीं होते. वो चाहे जितना अच्छा काम करें फैक्ट्रियों कंपनियों और उनके ऑफिसों में लेकिन उन्हें इसकी तारीफ़ तक कभी नही मिलती लेकिन एक छोटी से गलती हो जाने पर उन्हें निकाल फेंका जाता है. मुआवजा तो दूर की बात उनकी बची तनख्वाह तक नही दी जाती. अमीर घरों में जाकर काम करने वाले गरीबों की हालत बद से भी ज्यादा बदतर है.

इससे हमें क्या जानने को मिलता है :

भारत में हमें आराम और फुर्सत का सिद्धांत कहीं नहीं दिखता. पैसे की हवस में चूर कंपनियां और ऑफिस लोगों को साप्ताहिक छुट्टी तक नहीं देना चाहते. भारत के प्राइवेट सेक्टर में ऐसे लोग आपको बहुतायत में मिल जायेंगे जो पूरा सात दिन काम में ही लगे रहते हैं. ये भी एकतरह की मजबूरी होती है क्योंकि उन्हें कंपनियां उचित वेतन नहीं देतीं और लोग सात दिन काम करके सोचते हैं कि उन्हें थोड़ा सा और पैसा मिल जायेगा जिससे थोड़ी बेहतरी होगी लेकिन वास्तव में ऐसा होता नहीं है. वो सात दिन काम करके भी उतने ही परेशान रहते हैं जितना हमेशा की तरह करके।

हालत यह है कि, आज के समय में अपने पिछड़ेपन के लिए कर्मचारी खुद को दोषी मानते हैं और अंदर ही अंदर से कुढ़ते रहते हैं जबकि वास्तव में उनकी परेशानियों का कारण कोई और है. भारत में शासन आम जनमानस की समस्याओं को लेकर कभी गंभीर नहीं दिखा. भारत में सरकारें आज भी पूरी तरह से ब्रिटिश ढाँचे पर काम कर रही हैं, उनके लिए कर्मचारी सिर्फ वही हैं जो सरकारी नौकरी करते हैं.

भारत के नेता-सांसद-विधायक आये दिन कम तनख्वाह का रोना रोते हैं लेकिन जनता के द्वारा चुने गये यही लोग कभी जनता के बारे में नहीं सोचते. भारत के सांसद संसद भवन में स्कूली बच्चों की तरह फालतू के मुद्दों पर हल्ला मचाते हैं लेकिन ऐसे विषयों पर उनका कभी ध्यान नहीं गया. प्राइवेट नौकरीपेशा लोगों के अधिकार की बात आजतक शायद ही किसी ने की हो. बंधुवा मजदूरों की तरह प्राइवेट नौकरीपेशा इतने ज्यादा मजबूर होते हैं कि वो अपने साथ हुए दुर्व्यवहार के लिए कहीं शिकायत भी नहीं कर पाते.

सबसे खतरनाक यह है कि, प्राइवेट नौकरीपेशा लोगों को खुद की बेहतरी के बारे में सोचने तक का समय नहीं मिलता. वह सुबह जाते हैं, रात को आते हैं, तब भी वह काम के बारे में ही सोच रहे होते हैं और इसी तरह फिर अगली सुबह वह काम पर मिलते हैं. यही क्रिया उनकी तबतक चलती रहती है जबतक उनका हाथ पाँव चलता रहता है. प्राइवेट नौकरीपेशा इंसान कभी कुछ भी बड़ा करने की सोच तक नहीं सकता क्योंकि उसे उसके काम ने इतना उलझा दिया होता है कि, वह अपनी मानसिक शक्ति खो चुका होता है और उसकी सोच अगर कहीं जा भी पाती है तो सिर्फ नौकरी बदल देने तक. इससे आगे की विरले ही सोच पाते हैं.

आज ये देखना बेहद भयावाह है कि, लोग फर्जी-फर्जी मुद्दों पर बहस कर रहे हैं, सोशल मीडिया में तो एक तरह से ऐसी गंध मचा रखी है जहाँ जाने पर ऐसा महसूस होता है जैसे देश में गृहयुद्ध चल रहा हो. आपको सोशल मीडिया पर फ़ालतू-फालतू के बहुत ज्ञानी मिलेंगे जिनका काम की बातों से कोई लेना देना नहीं, जैसे किसी राजनीतिक पार्टी या राजनेता की जी हुजूरी करते हुए, किसी नेता की आलोचना करते हुए, किसी संप्रदाय की कमियाँ ढूंढते हुए तो किसी संप्रदाय को नीचा दिखाते हुए ऐसे ही एक से एक नमूने मिलेंगे जो घर या ऑफिस में बैठकर देश की सत्ता को हिला दे रहे हैं, ऐसी वह सोच रखते हैं.

समाधान क्या है :

संसद को प्राइवेट नौकरीपेशा लोगों के लिए एक कानून बनाना चाहिए जिसके अनुसार :

कामगारों से दिन में सिर्फ 6 घंटे काम लिया जाना चाहिए और सप्ताह में यह 36 घंटे से ज्यादा नहीं होना चाहिए
देश भर के हर एक मजदूर को साप्ताहिक छुट्टी देनी चाहिए और ऐसे लोगों से हफ्ते में सिर्फ 5 दिन ही काम लिया जाना चाहिए जो ज्यादा मेहनत वाला काम करते हों
वर्ष में कामगारों को कम से कम एक बार लंबी छुट्टी दी जानी चाहिए जिसकी अवधि कम से कम 15 से 20 दिन हो और इसका उन्हें मेहनताना मिलना चाहिए
प्राइवेट नौकरीपेशा लोगों को भी सरकारी कर्मचारियों के जैसे वेतन और सुविधायें मिलनी चाहिए
लेबर मिनिस्ट्री की जगह एक निगरानी समिति बनायी जानी चाहिए जिसमें अधिकारी IAS-PCS की तरह चुने जायं
इस निगरानी समिति का कार्य देशभर के मजदूरों की हालत किस तरह से बेहतर बनाई जा सके मात्र इसी पर फोकस होना चाहिए
लोगों को प्राइवेट नौकरी करने के बजाय खुद का ही कोई बिजनेस करना चाहिए
बिजनेस की शुरुआत में रजिस्ट्रेशन और कागजी कार्यवाही से लोगों को मुक्त रखना चाहिए, काम स्थायी रूप से स्थापित होने के बाद ही किसी प्रकार का रजिस्ट्रेशन या कागजी कार्यवाही होनी चाहिए
लोगों को बिजनेस करने में किसी प्रकार की सरकारी गुंडागर्दी या वसूली जैसी कोई और अड़चन तो नहीं आ रही है इसके लिए टोल फ्री नंबर होना चाहिए जहाँ लोग अपनी शिकायतें दे सकें
सरकार को वर्तमान एजुकेशन सिस्टम खत्म करके नया ढांचा बनाना चाहिए अर्थात् स्कूलों का सरकारी नौकर तैयार करने लायक सिलेबस खत्म करके छात्रों को बिजनेसपरक शिक्षा देनी चाहिए जिससे वो नौकरी के बजाय खुद के बिजनेस में रूचि लें।।।।

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