बड़े पैमाने पर अनपढ़ रहे आजादी से पहले के समाज में भी यह समझ थी कि पढ़ाई का मक़सद सिर्फ पैसा कमाना नहीं है. आज की ज्यादातर पढ़ी-लिखी पीढ़ी के सामने नैतिकता के ऐसे संकट क्यों नहीं हैं?
जेएनयू को लेकर चल रही बहस में एक सवाल शिक्षा का आया. बहुत सारे लोगों ने पूछा कि यह कौन सी पढ़ाई है जो जेएनयू के छात्र छह-आठ साल तक पढ़ते रहते हैं और तीस की उम्र तक पहुंच जाते हैं. यही नहीं, यह सवाल भी उठा कि जनता के पैसे से क्या जेएनयू के छात्रों को इस बौद्धिक विलास की छूट दी जा सकती है?
यह सवाल दरअसल हमारे समाज में शिक्षा को लेकर बने नज़रिए पर एक चिंताजनक टिप्पणी करता है. मैकाले ने भारत में पढ़ाई-लिखाई का मक़सद क्लर्क पैदा करना बताया था. मैकाले के जाने के बाद भी पढ़ाई-लिखाई का मूल लक्ष्य वही बना रहा. फिर भी गुलाम या आज़ाद भारत में शिक्षा की नई हवा ने अपने ढंग से एक स्वायत्त और स्वतंत्रचेता समाज बनाया. भारत की आज़ादी की लड़ाई इसी शैक्षणिक चेतना से पैदा हुई. उस समय राष्ट्रवाद ने साम्राज्यवाद से एक तीखी लड़ाई लड़ी. यह वह दौर था जब नेहरू या गांधी से किसी ने नहीं पूछा कि बैरिस्टरी की पढ़ाई करने के बाद वे उस पर मट्ठा डाल कर आज़ादी की लड़ाई में क्यों कूद पड़े. सुषाष चंद्र बोस से किसी ने जानने की कोशिश नहीं की कि आइसीएस छोड़कर वे कांग्रेस और आज़ाद हिंद फौज बनाने क्यों निकल पड़े. क्योंकि उस समय बड़े पैमाने पर अनपढ़ रहे समाज में भी यह समझ थी कि पढ़ाई-लिखाई का मक़सद सिर्फ पैसा कमाना नहीं है, देश और समाज के काम आना भी है.
यही वे लोग भी थे जिन्होंने आज़ादी के बाद हिंदुस्तान को अलग-अलग आर्थिक हैसियत के स्कूलों की वह संस्कृति दी जिसमें शिक्षा भी सामाजिक-आर्थिक भेदभाव को बनाए-बचाए रखने का उपक्रम हो गई.
इसके उलट बहुत सारे पढ़े-लिखे लोग ऐसे भी थे जो अपनी बैरिस्टरी या अफ़सरी से चिपके रहे, आज़ादी की लड़ाई में पूरी वफ़ादारी से अंग्रेज़ों के साथ खड़े रहे और गांधी-नेहरू से लेकर भगत सिंह-चंद्रशेखर आज़ाद तक को देशद्रोही मानते रहे. ये वे लोग थे जिनके लिए पढ़ाई-लिखाई पैसा कमाने का ज़रिया थी. यही वे लोग भी थे जिन्होंने आज़ादी के बाद हिंदुस्तान को अलग-अलग आर्थिक हैसियत के स्कूलों की वह संस्कृति दी जिसमें शिक्षा भी सामाजिक-आर्थिक भेदभाव को बनाए-बचाए रखने का उपक्रम हो गई.
पहले भी मध्यवर्गीय घरों में साइंस को कॉमर्स या आर्ट्स के मुक़ाबले ज़्यादा अच्छी पढ़ाई मानने का चलन था क्योंकि उसमें नौकरी की गुंजाइश ज़्यादा थी, लेकिन अब तो पढ़ाई-लिखाई का इतना भयावह व्यावसायीकरण हुआ है कि जैसे हर कोर्स नौकरी की गारंटी के बाद ही सार्थक है और इससे अलग किसी भी पढ़ाई का कोई मतलब नहीं रह गया है. पढ़ाई अब न बेहतर मनुष्य बनने का ज़रिया है, न बौद्धिकता और तर्कशीलता के माध्यम से चेतना अर्जित करने का, न अपने समाज या जीवन की समझ पैदा करने का. वह बस पैसा पैदा करने का रास्ता है जिस पर ज्ञान की दुकान चल रही है और जिसमें दो या चार साल की कारोबारी पढ़ाई के बाद कैंपस से लड़के सीधे मोटे पैकेज पर उठाए जा रहे हैं और औद्योगिक घरानों के परिसर में झोंके जा रहे हैं.
जाहिर है, जब शिक्षा ऐसे चोखे कारोबार में बदल जाए तो उसमें वे लोग ही ज्यादा होते हैं जिनका शिक्षा से नहीं, पैसे से वास्ता होता है. यह इत्तेफाक भर नहीं है कि इन दिनों भारत में स्कूली शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक में निजी निवेश काफी बढ़ा है और इसमें भी ज़्यादातर उस संदिग्ध पूंजी के जरिए आया है जिसके पीछे प्रॉपर्टी डीलिंग से लेकर बिल्डिंग इंडस्ट्री और बहुत सारे दूसरे ऐसे ही धंधे हैं. इसका एक नतीजा यह हुआ है कि शिक्षा बेहद महंगी हो गई है और अक्सर कर्ज लेकर हासिल की जाती है जिसे बाद में चुकाना पड़ता है.
हमारी कारोबारी शिक्षा से निकली कमाऊ पीढ़ी अपने नैतिक या सामाजिक या राष्ट्रीय दायित्व की भरपाई का मतलब है बेहद आसान किस्म की देशभक्ति और वह पहला मौका मिलते ही देश छोड़कर विदेश में जा बसती है.
शिक्षा को ऐसे कारोबार में बदल देने वाले लोग ही यह सवाल पूछते हैं कि जेएनयू में पढ़ने वाले इतनी पढ़ाई क्यों करते हैं, कहीं नौकरी क्यों नहीं करते और राजनीति क्यों करते हैं? इत्तेफाक से यही सवाल रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद पूछा गया जिसके पीछे यह इशारा पढ़ना मुश्किल नहीं था कि एक मेहनती दलित बच्चे ने राजनीति के चक्कर में आकर अपना करिअर बरबाद किया और अंतत जान दे दी.
हमारी कारोबारी शिक्षा से निकली कमाऊ पीढ़ी के किसी नौजवान के सामने नैतिकता के संकट आम तौर पर नहीं आते हैं. वह शादी में दहेज लेने से नहीं हिचकता, सरकारी कंपनियों में होता है तो घूस लेने में नहीं हिचकता, निजी कंपनियों में होता है तो घूस देने में नहीं हिचकता, इन निजी कंपनियों में योग्यता के नाम पर वह अपनों को भरता है और कार्यकुशलता की कमी की भरपाई वह ड्यूटी के घंटों को फैला कर, देर तक काम करके पूरा करता है. किसी नैतिक या सामाजिक या राष्ट्रीय दायित्व की भरपाई वह आसान किस्म की देशभक्ति से करता है - भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच में झंडे फहराकर, कश्मीर या पूर्वोत्तर के पक्ष में या दलितों और आदिवासियों के पक्ष में बोलने वालों को गाली देकर, आरक्षण के विरोध में योग्यता का परचम लहराते हुए और जेएनयू में पढ़ने वालों को इस बात के लिए लताड़ते हुए कि वे सरकारी पैसे पर पढ़कर भी देशविरोधी नारे लगाते हैं. यह अलग बात है कि पहला मौका मिलते ही वह देश छोड़कर विदेश में जा बसता है.
लेकिन पढाई-लिखाई को लेकर घोर उपयोगितावादी और कारोबारी नज़रिया रखने वाले लोगों की यह जमात यह नहीं देख रही कि नए भारत के चमचमाते निजी संस्थानों के बाहर जो केंद्रीय या राज्यों के विश्वविद्यालयों के सरकारी और धूल भरे परिसर हैं, वहां अपने अभावों का मारा हिंदुस्तान उन सामाजिक तकनीकों को समझने का यत्न कर रहा है जिनके ज़रिए कुछ लोग उसके संसाधनों पर कब्ज़ा करके बैठे हुए हैं और उस पर हुकूमत करते हैं. सिर्फ जेएनयू या हैदराबाद विश्वविद्यालय में ही नहीं, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी - हर जगह इस अराजक असंतोष को पहचाना जा सकता है.
दुर्भाग्य से हमारे विश्वविद्यालयों को पहले ही पढ़ाई-लिखाई, विचार-विमर्श के केंद्रों के तौर पर बचा नहीं रहने दिया गया है, इसलिए इनमें छात्रों का असंतोष एक तरह की अराजकता में फूटता है और अंततः उन्हीं लोगों के काम आ जाता है जिनकी वजह से यह पैदा होता है.
दुर्भाग्य से हमारे विश्वविद्यालयों को पहले ही पढ़ाई-लिखाई, विचार-विमर्श के केंद्रों के तौर पर बचा नहीं रहने दिया गया है, इसलिए यह असंतोष एक तरह की अराजकता में फूटता है और अंततः उन्हीं लोगों के काम आ जाता है जिनकी वजह से ये पैदा हुआ है. इसलिए अपने मौजूदा हाल में ये विश्वविद्यालय सत्ता प्रतिष्ठानों को डराते नहीं. उन्हें मालूम है कि इन छात्रों को भी देशभक्ति के नारों से बरगलाना आसान है. सबको नहीं तो कुछ को. कभी-कभी संकट तब पैदा होता है जब हैदराबाद यूनिवर्सिटी में कोई रोहित वेमुला ख़ुदकुशी कर सरकारी तंत्र के रवैये की कलई खोल देता है या फिर किसी अन्य विश्वविद्यालय के भीतर से व्यवस्था पर तीखे सवाल उठाने वाले छात्र उठ खड़े होते हैं. क्योंकि तब सरकारों को यह वास्तविक डर घेरता है कि यह संक्रामक न हो उठे और दूसरे विश्वविद्यालयों में भी किसी वायरस की तरह न पसर जाए.
इसलिए कोशिश उस माहौल को नष्ट कर देने की है जिसमें बौद्धिकता और विकेकशील बहसों से भरा-पूरा कोई परिसर विकसित हो सके और बहुत असुविधाजनक सवालों से हमारी मुठभेड़ कराने के लिए हमें मजबूर कर सके.
http://ashok68.blogspot.com
जेएनयू को लेकर चल रही बहस में एक सवाल शिक्षा का आया. बहुत सारे लोगों ने पूछा कि यह कौन सी पढ़ाई है जो जेएनयू के छात्र छह-आठ साल तक पढ़ते रहते हैं और तीस की उम्र तक पहुंच जाते हैं. यही नहीं, यह सवाल भी उठा कि जनता के पैसे से क्या जेएनयू के छात्रों को इस बौद्धिक विलास की छूट दी जा सकती है?
यह सवाल दरअसल हमारे समाज में शिक्षा को लेकर बने नज़रिए पर एक चिंताजनक टिप्पणी करता है. मैकाले ने भारत में पढ़ाई-लिखाई का मक़सद क्लर्क पैदा करना बताया था. मैकाले के जाने के बाद भी पढ़ाई-लिखाई का मूल लक्ष्य वही बना रहा. फिर भी गुलाम या आज़ाद भारत में शिक्षा की नई हवा ने अपने ढंग से एक स्वायत्त और स्वतंत्रचेता समाज बनाया. भारत की आज़ादी की लड़ाई इसी शैक्षणिक चेतना से पैदा हुई. उस समय राष्ट्रवाद ने साम्राज्यवाद से एक तीखी लड़ाई लड़ी. यह वह दौर था जब नेहरू या गांधी से किसी ने नहीं पूछा कि बैरिस्टरी की पढ़ाई करने के बाद वे उस पर मट्ठा डाल कर आज़ादी की लड़ाई में क्यों कूद पड़े. सुषाष चंद्र बोस से किसी ने जानने की कोशिश नहीं की कि आइसीएस छोड़कर वे कांग्रेस और आज़ाद हिंद फौज बनाने क्यों निकल पड़े. क्योंकि उस समय बड़े पैमाने पर अनपढ़ रहे समाज में भी यह समझ थी कि पढ़ाई-लिखाई का मक़सद सिर्फ पैसा कमाना नहीं है, देश और समाज के काम आना भी है.
यही वे लोग भी थे जिन्होंने आज़ादी के बाद हिंदुस्तान को अलग-अलग आर्थिक हैसियत के स्कूलों की वह संस्कृति दी जिसमें शिक्षा भी सामाजिक-आर्थिक भेदभाव को बनाए-बचाए रखने का उपक्रम हो गई.
इसके उलट बहुत सारे पढ़े-लिखे लोग ऐसे भी थे जो अपनी बैरिस्टरी या अफ़सरी से चिपके रहे, आज़ादी की लड़ाई में पूरी वफ़ादारी से अंग्रेज़ों के साथ खड़े रहे और गांधी-नेहरू से लेकर भगत सिंह-चंद्रशेखर आज़ाद तक को देशद्रोही मानते रहे. ये वे लोग थे जिनके लिए पढ़ाई-लिखाई पैसा कमाने का ज़रिया थी. यही वे लोग भी थे जिन्होंने आज़ादी के बाद हिंदुस्तान को अलग-अलग आर्थिक हैसियत के स्कूलों की वह संस्कृति दी जिसमें शिक्षा भी सामाजिक-आर्थिक भेदभाव को बनाए-बचाए रखने का उपक्रम हो गई.
पहले भी मध्यवर्गीय घरों में साइंस को कॉमर्स या आर्ट्स के मुक़ाबले ज़्यादा अच्छी पढ़ाई मानने का चलन था क्योंकि उसमें नौकरी की गुंजाइश ज़्यादा थी, लेकिन अब तो पढ़ाई-लिखाई का इतना भयावह व्यावसायीकरण हुआ है कि जैसे हर कोर्स नौकरी की गारंटी के बाद ही सार्थक है और इससे अलग किसी भी पढ़ाई का कोई मतलब नहीं रह गया है. पढ़ाई अब न बेहतर मनुष्य बनने का ज़रिया है, न बौद्धिकता और तर्कशीलता के माध्यम से चेतना अर्जित करने का, न अपने समाज या जीवन की समझ पैदा करने का. वह बस पैसा पैदा करने का रास्ता है जिस पर ज्ञान की दुकान चल रही है और जिसमें दो या चार साल की कारोबारी पढ़ाई के बाद कैंपस से लड़के सीधे मोटे पैकेज पर उठाए जा रहे हैं और औद्योगिक घरानों के परिसर में झोंके जा रहे हैं.
जाहिर है, जब शिक्षा ऐसे चोखे कारोबार में बदल जाए तो उसमें वे लोग ही ज्यादा होते हैं जिनका शिक्षा से नहीं, पैसे से वास्ता होता है. यह इत्तेफाक भर नहीं है कि इन दिनों भारत में स्कूली शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक में निजी निवेश काफी बढ़ा है और इसमें भी ज़्यादातर उस संदिग्ध पूंजी के जरिए आया है जिसके पीछे प्रॉपर्टी डीलिंग से लेकर बिल्डिंग इंडस्ट्री और बहुत सारे दूसरे ऐसे ही धंधे हैं. इसका एक नतीजा यह हुआ है कि शिक्षा बेहद महंगी हो गई है और अक्सर कर्ज लेकर हासिल की जाती है जिसे बाद में चुकाना पड़ता है.
हमारी कारोबारी शिक्षा से निकली कमाऊ पीढ़ी अपने नैतिक या सामाजिक या राष्ट्रीय दायित्व की भरपाई का मतलब है बेहद आसान किस्म की देशभक्ति और वह पहला मौका मिलते ही देश छोड़कर विदेश में जा बसती है.
शिक्षा को ऐसे कारोबार में बदल देने वाले लोग ही यह सवाल पूछते हैं कि जेएनयू में पढ़ने वाले इतनी पढ़ाई क्यों करते हैं, कहीं नौकरी क्यों नहीं करते और राजनीति क्यों करते हैं? इत्तेफाक से यही सवाल रोहित वेमुला की आत्महत्या के बाद पूछा गया जिसके पीछे यह इशारा पढ़ना मुश्किल नहीं था कि एक मेहनती दलित बच्चे ने राजनीति के चक्कर में आकर अपना करिअर बरबाद किया और अंतत जान दे दी.
हमारी कारोबारी शिक्षा से निकली कमाऊ पीढ़ी के किसी नौजवान के सामने नैतिकता के संकट आम तौर पर नहीं आते हैं. वह शादी में दहेज लेने से नहीं हिचकता, सरकारी कंपनियों में होता है तो घूस लेने में नहीं हिचकता, निजी कंपनियों में होता है तो घूस देने में नहीं हिचकता, इन निजी कंपनियों में योग्यता के नाम पर वह अपनों को भरता है और कार्यकुशलता की कमी की भरपाई वह ड्यूटी के घंटों को फैला कर, देर तक काम करके पूरा करता है. किसी नैतिक या सामाजिक या राष्ट्रीय दायित्व की भरपाई वह आसान किस्म की देशभक्ति से करता है - भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच में झंडे फहराकर, कश्मीर या पूर्वोत्तर के पक्ष में या दलितों और आदिवासियों के पक्ष में बोलने वालों को गाली देकर, आरक्षण के विरोध में योग्यता का परचम लहराते हुए और जेएनयू में पढ़ने वालों को इस बात के लिए लताड़ते हुए कि वे सरकारी पैसे पर पढ़कर भी देशविरोधी नारे लगाते हैं. यह अलग बात है कि पहला मौका मिलते ही वह देश छोड़कर विदेश में जा बसता है.
लेकिन पढाई-लिखाई को लेकर घोर उपयोगितावादी और कारोबारी नज़रिया रखने वाले लोगों की यह जमात यह नहीं देख रही कि नए भारत के चमचमाते निजी संस्थानों के बाहर जो केंद्रीय या राज्यों के विश्वविद्यालयों के सरकारी और धूल भरे परिसर हैं, वहां अपने अभावों का मारा हिंदुस्तान उन सामाजिक तकनीकों को समझने का यत्न कर रहा है जिनके ज़रिए कुछ लोग उसके संसाधनों पर कब्ज़ा करके बैठे हुए हैं और उस पर हुकूमत करते हैं. सिर्फ जेएनयू या हैदराबाद विश्वविद्यालय में ही नहीं, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी - हर जगह इस अराजक असंतोष को पहचाना जा सकता है.
दुर्भाग्य से हमारे विश्वविद्यालयों को पहले ही पढ़ाई-लिखाई, विचार-विमर्श के केंद्रों के तौर पर बचा नहीं रहने दिया गया है, इसलिए इनमें छात्रों का असंतोष एक तरह की अराजकता में फूटता है और अंततः उन्हीं लोगों के काम आ जाता है जिनकी वजह से यह पैदा होता है.
दुर्भाग्य से हमारे विश्वविद्यालयों को पहले ही पढ़ाई-लिखाई, विचार-विमर्श के केंद्रों के तौर पर बचा नहीं रहने दिया गया है, इसलिए यह असंतोष एक तरह की अराजकता में फूटता है और अंततः उन्हीं लोगों के काम आ जाता है जिनकी वजह से ये पैदा हुआ है. इसलिए अपने मौजूदा हाल में ये विश्वविद्यालय सत्ता प्रतिष्ठानों को डराते नहीं. उन्हें मालूम है कि इन छात्रों को भी देशभक्ति के नारों से बरगलाना आसान है. सबको नहीं तो कुछ को. कभी-कभी संकट तब पैदा होता है जब हैदराबाद यूनिवर्सिटी में कोई रोहित वेमुला ख़ुदकुशी कर सरकारी तंत्र के रवैये की कलई खोल देता है या फिर किसी अन्य विश्वविद्यालय के भीतर से व्यवस्था पर तीखे सवाल उठाने वाले छात्र उठ खड़े होते हैं. क्योंकि तब सरकारों को यह वास्तविक डर घेरता है कि यह संक्रामक न हो उठे और दूसरे विश्वविद्यालयों में भी किसी वायरस की तरह न पसर जाए.
इसलिए कोशिश उस माहौल को नष्ट कर देने की है जिसमें बौद्धिकता और विकेकशील बहसों से भरा-पूरा कोई परिसर विकसित हो सके और बहुत असुविधाजनक सवालों से हमारी मुठभेड़ कराने के लिए हमें मजबूर कर सके.
आखिर शिक्षा हम क्यों प्राप्त करते हैं? शिक्षा प्राप्त करने का हमारा उद्देश्य क्या है? हम विद्यालयों या विश्वविद्यालयों में जाकर क्यों पढ़ते हैं? क्यों अपने जीवन के महत्वपूर्ण सालों को विश्वविद्यालय की चहारदीवारी में कुर्बान करते हैं? ऐसा इसलिए, क्योंकि हम अपने शेष जीवन में फूल खिलाना चाहते हैं। हम अपने जीवन-उद्यान को सुरभित और आनंदित करना चाहते हैं और अपनी भावी पीढ़ी को भी उसी सुगंध में सराबोर करना चाहते हैं।
इसलिए हमें इस बात की खोज करनी चाहिए कि वह कौन-सी शिक्षा है जो हमारे जीवन को सफलताओं से भर सकती है और हमारी जीवन-बगिया को सुरभित और पुष्पित कर सकती है। क्या हमारी वर्तमान शिक्षा वैसी है, क्या वह हमारी आशाओं और अपेक्षाओं की कसौटी पर खरी उतरती है? यदि नहीं तो उसके स्थान पर किसी दूसरी शिक्षा पद्धति की बात हमें अवश्य सोचनी चाहिए। ऐसा इसलिए, क्योंकि शिक्षा का अर्थ ही होता है-प्रकाश, सफलता और उत्कृष्टता। तभी तो हमारे मनीषियों ने ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ की परिकल्पना की थी, जो आज के परिवेश में कहीं भी साकार होती हुई नहीं दिखती। शिक्षा का संबंध ज्ञान से और ज्ञान का संबंध हमारे विवेक से है। ये तीनों शब्द सदैव एक ही पंक्ति में खड़े प्रतीत होते हैं।
आज हम लोगों ने शिक्षा को केवल विषयों से जोड़ दिया है। अब आप ही बताएं कि किसी एक विषय का स्नातक व्यक्ति भला शिक्षाविद् कैसे हो सकता है। शिक्षाविद् तो वह व्यक्ति कहलाएगा जिसे जीवनोपयोगी तमाम विद्याओं की समझ हो, क्योंकि शिक्षा का अर्थ कभी भी भौतिकी, रसायन, हिंदी, अंग्रेजी व गणित की पुस्तकों का पढ़ना मात्र नहीं होता। ये तो सिर्फ विषय हैं, न कि संपूर्ण शिक्षा। इस दृष्टि से हम उस शिक्षा को अपने जीवन में उतारें जिससे तमाम विषयों और व्यवहारों का एक सुंदर स्वरूप तैयार हो सके। आत्म-ज्ञान एक ऐसी शिक्षा है, जिससे आप अपने आंतरिक व्यक्तित्व के बारे में जान सकते हैं। आपको शायद यह मालूम है कि आपके आंतरिक व्यक्तित्व में ऊर्जा का अक्षय भंडार निहित है। सद्गुरु के सानिध्य में रहकर आत्म-ज्ञान रूपी शिक्षा प्राप्त की जा सकती है। ध्यान (मेडिटेशन) के निरंतर अभ्यास से भी आप आत्मज्ञान को उपलब्ध हो सकते हैं।
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