आज का समाज और नैतिक मूल्य;



महर्षि बाल्मीकि का कहना है, ‘श्रेष्ठ पुरूष दूसरे पापाचारी प्राणियों के पाप को ग्रहण नहीं करता। उन्हें अपराधी मानकर उनसे बदला नहीं लेना चाहता। इस नैतिकता की सदा रक्षा करनी चाहिए।’ हमारे ऋषियों और आचार्यों ने जब कहा कि ‘आचारःपरमो धर्मः’ तो इसका यही अर्थ रहा कि नैतिकता ही सबसे बड़ा धर्म है।

आज के समाज में मूल्यों का स्तर गिरता जा रहा है। सभी प्रकार के मानवीय मूल्यों के घटने में चरित्र पतन सबसे बड़ा कारण है। हमारा चरित्र आज क्यों भ्रष्ट और नष्ट हो रहा है। यह आज एक ज्वलंत विचारणीय प्रश्न है। महाकवि व्यास ने अठारहों पुराण का सार भाग प्रस्तुत करते हुए कहा कि-

‘अष्टादष पुराणेषु व्यासस्य वचनं द्वयम्।

प्रोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनम्।।

अर्थात् दूसरों को पीडि़त करने से कोई बड़ा पाप नहीं और परोपकार से बढ़कर कोई पुण्य नहीं है। आज जब हम इस पर विचार करते हैं तो हम देखते हैं कि आज तो जैसे पाप पुण्य का भेद ही मिट गया है। आज चारों ओर नैतिकता का घोर पतन हो रहा है। शिष्टाचार, सदाचार, शीलाचार आदि सब कुछ धराशायी होकर समाज के उच्च आदर्शों और मूल्यों से दूर जा पड़े हैं। इसलिए आज भ्रष्टाचार का एकतंत्र राज्य फैल चुका है। हम अपने सभी प्रकार के संबंधों को इसके दुष्प्रभाव से या तो भूल चुके हैं या तोड़ चुके हैं। भ्रष्टाचार की गोद में ही अनाचार, दुराचार, मिथ्याचार पलते हैं, जो हमारे संस्कार को न केवल पल्लवित होने देते हैं और न अंकुरित ही। समाज एक भटकी हुई अमानवीयत के पथ पर चलने लगता है, जहाँ किसी प्रकार से जीवन को न तो शान्ति, न विश्वास, न आस्था, न मिलाप, न सौहार्द्र और न सहानुभूति ही मिलती है। पूरा जीवन मूल्य विहीन रेत सा नीरस और तृण सा बेदम होने लगता है।

नैतिकता नर का ही भूषण नहीं है, अपितु वह समाज और राष्ट्र का ऐसा दीव्य गुण है, जिससे महान से महान शक्ति का संचार होता है इससे राष्ट्र की संस्कृति और सभ्यता महानता के शिखर पर आसीन होती है। अन्य देशों की तुलना में वह अधिक मूल्यवान और श्रेष्ठतर सिद्ध होता है। सभी इससे प्रभावित और आकर्षित होते हैं। आज भौतिकता के युग में नैतिकता को जो हास हो चुका है, उसे देखते हुए संसार के कम ही राष्ट्र और समाज में नैतिकता का दम-खम रह गया है। परस्पर स्वार्थपरता, लोलुपता और अपना-पराया का कटु वातावरण आज जो फैल रहा है, उसके मूल में नैतिक गुणों का न होना ही है। आज मनुष्य मनुष्यता को भूलकर पशुता के ही सब कुछ श्रेय और प्रेम इसलिए मान रहा है कि नैतिकता का परिवेश उसे कहीं नहीं दिखाई देता है। आश्चर्य की बात यह है कि भारत जो नैतिकता के गुणों से युक्त राष्ट्र रहा है और जो नैतिकता के इस सिद्धान्त का पालन करते नहीं अघाते थे।

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुखभाग भवेत्।।

अब कहाँ हमारा वह दृष्टिकोण सबके सुख और शान्ति के लिए है? यह कौन बता सकता है? नैतिक गुणों का जीवंत रूप तो किसी समाज और राष्ट्र का विद्यार्थी ही होता है, क्योंकि इस काल में इस प्रकार के गुणों के विकास की संभावना और पात्रता जितना विद्यार्थी में होती है, उतना और किसी में नहीं होती है। विद्या विनय देवी है और विनय से ही पात्रता प्राप्त होती है। पात्रता ही सब गुणों को भूषण बनाने में सक्षम होती है। शिष्टाचार विद्यार्थी का प्रथम रूप है और शिष्टाचार से ही नैतिकता प्राप्त होती है। सब पूज्यों के प्रति शिष्ट और अन्यों के प्रति उदार सद्वृत्तियों को धारण करने से ही नैतिकता का जन्म होता है।

समाज और नैतिकता का घनिष्ट सम्बन्ध है। ऐसा जब हम कहते हैं, तो इसका यही अभिप्राय होता है कि नैतिकता से समाज का आदर्शरूप बनता है। समाज की हर अच्छाई और ऊँचाई के लिए नैतिकता नितान्त आवश्यक है। नैतिकता के द्वारा ही समाज, समाज है अन्यथा वह नरक कुंड है, जहाँ दुर्गन्ध भरी साँसे एक क्षण के लिए जीवन धारण करने के लिए अवश कर देती है। अतएव सामाजिक उत्थान के लिए नैतिकता की बुनियाद अत्यन्त आश्वयकता है।

जय हिन्द
वन्देमातरम

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