इंसान दुनिया का सबसे 'दिमाग़दार' जीव है. इसमें न कोई शक है, न शुबहा. आप कहेंगे कि हम आपको ये बात बता ही क्यों रहे हैं? इसमें नया क्या है?
नया तो कुछ नहीं, मगर इस बात से कुछ सवाल पैदा होते हैं. मसलन ये कि इंसान इतना बुद्धिमान बना कैसे? हमारे पुरखों ने ऐसा क्या किया, क्या खाया-पिया कि आज सभी जानवरों में इंसान का दिमाग़ सबसे बड़ा है?
इस सवाल का जवाब, वैज्ञानिक बरसों से तलाश रहे हैं. वक़्त-वक़्त पर इसे लेकर नई नई थ्योरी आती रही हैं. अमरीका की न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी के प्राइमेटोलॉजी विभाग में तमाम अल्मारियां हैं. इनमें तरह-तरह की हड्डियां रखी हुई हैं.
विभाग के वैज्ञानिक जेम्स हिंघम बताते हैं कि हर हड्डी हमें इंसान के विकास की कोई न कोई कहानी सुनाती है. दूसरे जानवरों की हड्डियां भी हैं जो इंसान के क़ुदरती रिश्तेदार हैं. मसलन लीमर या चिंपैंजी ।।
जेम्स हिंघम को इन हड्डियों में सबसे ज़्यादा दिलचस्पी खोपड़ियों में है. वो देखते हैं, समझते हैं कि आख़िर हज़ारों लाखों सालों में किस तरह से जानवरों के दिमाग़ का विकास हुआ. किस क़ुदरती प्रक्रिया से गुज़रते हुए आज हम यहां पहुंचे हैं.
ये खोपड़ियां हमें इंसान की विकास यात्रा की कहानियां सुनाती हैं. प्राइमेटोलॉजी, साइंस की वो शाखा है जिसमें इंसानों, बंदरों और इनके भाई-बंधुओं के बारे में पढ़ाई की जाती है. क्योंकि इन सबको जिस दर्जे में रखा जाता है, उसे प्राइमेट्स कहते हैं.
हम प्राइमेट्स ही हैं. और हम सबसे बुद्धिमान जानवर हैं. हमारा दिमाग़ कुदरत में सबसे बड़ा होता है. कुछ वैज्ञानिक मानते हैं कि इंसान या दूसरे प्राइमेट्स, जैसे बंदर या चिंपैंजी, समूह में रहते हैं.
एक साथ वक़्त बिताते हैं. खाते-पीते हैं. खाने की तलाश करते हैं. चुनौतियों का मुक़ाबला करते हैं. हज़ारों सालों से क़ुदरत में प्राइमेट्स ऐसे ही रहते आए हैं, इसी वजह से हमारा दिमाग़ इतना विकसित हुआ.
सोशल ब्रेन'
जितने बड़े-बड़े ग्रुप में प्राइमेट्स रहते थे, उनका दिमाग़ उतना ही विकसित होता जाता था. तभी तो कहा जाता है कि 'मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है'. ये सामाजिकता हमारे अक़्लमंद होने की बुनियाद है.
पिछले क़रीब बीस सालों से वैज्ञानिक इस थ्योरी को सही बताते रहे हैं. इसे 'सोशल ब्रेन हाइपोथीसिस' कहा जाता है. लेकिन हिंघम और उनके साथी एलेक्स डेकैसियन इंसान के दिमाग़ के विकास की नई थ्योरी लेकर आए हैं.
वो कहते हैं कि सोशल ब्रेन हाइपोथीसिस से हमारे दिमाग़ की तरक़्क़ी की पूरी कहानी नहीं समझ में आती. हिंघम और डेकैसियन मानते हैं कि हमारे पुरखों के खान-पान का हमारे दिमाग़ पर गहरा असर पड़ा है.
आज हम इतने अक़्लमंद हैं तो उसके पीछे हमारे पूर्वजों के खान-पान के चुनाव का बड़ा हाथ है. डेकैसियन और हिंघम की ये थ्योरी 'नेचर इकोलॉजी ऐंड इवोल्यूशन' नाम की पत्रिका में छपी है.
बड़ा दिमाग
इस नतीजे पर पहुंचने से पहले एलेक्स डिकैसियन की टीम ने 140 प्राइमेट्स की नस्लों के आंकड़े जमा किए. इनमें बंदर, चिंपैंजी और इंसानों के अलावा आय-आय और गिबन जैसे जानवरों से जुड़े आंकड़े भी शामिल थे.
इससे उन्हें प्राइमेट्स के दिमाग़ की एक दूसरे से तुलना करने में मदद मिली. इस आंकड़े को उनके साथ रहने, उनके झुंड की बनावट और खान-पान के नज़रिए से नापा-तौला गया.
इससे पहले कभी इतने बड़े पैमाने पर आंकड़े इकट्ठा करके उनकी पड़ताल नहीं की गई थी. ओरांगउटान जैसे जानवर के बड़े दिमाग़ के पीछे की वजह तलाशने की कोशिश भी नहीं की गई.
जबकि ओरांगउटान सामाजिक प्राणी नहीं है. वो अक्सर अकेले ही रहता है. इस नए तजुर्बे से पता चला कि दिमाग़ के विकास में खान-पान का बड़ा हाथ रहा है. हम बरसों से ये जानते आए हैं कि जो प्राइमेट पत्तियां खाते हैं उनका दिमाग़ फल खाने वाले जानवरों के मुक़ाबले छोटा होता है.
इवोल्यूशन हाइपोथीसिस
फल खाने के अपने फायदे हैं. इसमें ज़्यादा पोषण होता है. फल पचाना भी आसान होता है. मगर फल क़ुदरतन आसानी से नहीं मिलते. इनकी तलाश में जानवरों को काफ़ी मशक़्क़त करनी पड़ती है.
हिंघम कहते हैं कि फलों की तलाश में एक दूसरे का साथ जानवरों के लिए काफ़ी मददगार होता है. यहां पर हमारे दिमाग़ के विकास की सोशल इवोल्यूशन हाइपोथीसिस हमारी मददगार साबित होती है. फलों की तलाश में जानवर समूह में घूमते हैं. उनके झुंड बड़े होते हैं. वो खाने की तलाश में लंबा सफर तय करते हैं.
फिर अगर कहीं फल दिखता है तो वहां अगर दूसरा झुंड हुआ तो उस पर जीत के लिए जानवरों को बड़े झुंड की ज़रूरत होती है, ताकि वो मिलकर दूसरे झुंड को भगा सकें. यानी यहां पर प्राइमेट्स का सामाजिक होना काफ़ी मददगार होता है.
एलेक्स डेकैसियन कहते हैं कि सोशल हाइपोथीसिस और डाइट हाइपोथीसिस, दोनों अलग-अलग, हमारे दिमाग़ के इतना विकसित होने की पूरी दास्तां नहीं बता पाते. लेकिन हम दोनों को एक साथ करके समझना चाहें, तो तस्वीर पूरी हो जाती है.
थ्योरी का विरोध
डेकैसियन और हिंघम मानते हैं कि खान-पान का दिमाग़ के विकास में ज़्यादा बड़ा रोल रहा है. लेकिन वो ये भी मानते हैं कि उनकी इस थ्योरी का विरोध भी होना तय है.
जब सारे आंकड़े, सोशल ब्रेन हाइपोथीसिस ईजाद करने वाले वैज्ञानिक रॉबिन डनबार के सामने रखे जाते हैं, तो वो इस पर ऐतराज़ जताते हैं. डनबार, ब्रिटेन की ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से जुड़े हैं.
वो कहते हैं कि दिमाग़ को सिर्फ़ एक बड़े साइज़ के चश्मे से देखना ठीक नहीं. दिमाग़ के कुछ ख़ास हिस्सों का बड़ा-छोटा होना ज़्यादा मायने रखता है. दिमाग़ का नियोकॉर्टेक्स हिस्सा अगर बड़ा है तो वो इंसान के लिए ज़्यादा फ़ायदेमंद है.
इसका पूरा दिमाग़ बड़ा होने से कोई ख़ास मतलब नहीं. डनबार कहते हैं कि जब हम सोशल ब्रेन थ्योरी को दिमाग़ के कुछ ख़ास हिस्सों के विकास को समझने के लिए इस्तेमाल करते हैं, तो ये थ्योरी ज़्यादा कारगर लगती है. ऐसे में सिर्फ़ खान-पान को दिमाग़ के विकास के लिए ज़िम्मेदार बताना ठीक नहीं.
अक़्लमंद प्राणी
रॉबिन डनबार का मानना है कि सोशल ब्रेन थयोरी या डाइट थ्योरी को एक दूसरे के आमने-सामने रखकर देखना ठीक नहीं. बेहतर हो कि हम दोनों ही विचारों को मिलाकर इंसान के दिमाग़ के विकास की कहानी को समझें.
इससे तस्वीर ज़्यादा साफ़ होगी. डनबार के मुताबिक़ इतना बड़ा दिमाग़ सिर्फ़ साथ रहने से विकसित हो जाए, ऐसा नहीं. इसमें खान-पान का भी बड़ा योगदान रहा ही होगा.
हालांकि वो अभी भी अपनी थ्योरी को ही ज़्यादा बेहतर बताते हैं. यानी ये बहस जारी है कि इंसान दुनिया सबसे अक़्लमंद प्राणी कैसे बना.