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गरीबी_और_बेकारी_के_विरुद्ध_संघर्ष_का_सच;

 गरीबी रुपये-पैसे और संसाधनों के अभाव को ही नहीं कहते और ना ही मात्र मजबूरी को,इन मानकों पर तो सारी दुनिया भूखी-नंगी है..गरीबी इन सब के साथ-साथ एक ख़ास तरह की द्विविधा को कहते है..एक विरोधाभास को..एक विरोधाभास जो अमीरों से तो नफरत करती है,पर बनना भी वही चाहती है।एक द्विविधा जो अमीरों से नफरत कराती है पर अमीरियत के आकर्षण से मुक्त नहीं कर पाती।गरीबी स्वयं की स्थिति की अस्वीकार्यता को कहते हैं,जिसके मूल में किसी और की स्थिति के प्रति एक खिंचाव है..भले ही वह छिछला और उथला ही क्यों ना हो!गरीबी और बेकारी के विरुद्ध संघर्ष और लड़ाई में केंद्र हमेशा अमीरों को रखा गया,अमीरियत की संस्था पर चोट पहुंचाने की इतनी गंभीर कोशिश कुछ को छोड़ के सब नहीं कर पाये..गरीबों के हित के लिए अमीरों से लड़ना है पर अमीरियत की संस्था बनी रहे और लड़ाई मात्र भूमिका-परिवर्तन तक सीमित रह जाए..ऐसा क्यों? गरीबों की लड़ाई लड़ते-लड़ते क्यों लोग अमीर हो जाते हैं? आधुनिक लोकतंत्रों के मौजूदा स्वरुप को फ्रांस की क्रान्ति ने गढ़ा है..फ्रांस की क्रांति का मुख्य नारा था-स्वतंत्रता,समानता,बंधुता स्वतंत्रता, समानता पर खूब राजनीति हुई पर बंधुता को अनदेखा किया गया है ।

महान विचारक मोन्टेस्क्वियू ने कहा है कि..’हम खुश होना चाहें तो यह आसान है पर हम दूसरों से ज्यादा खुश होना चाहते हैं जोकि असंभव है क्योंकि हर किसी को दुसरे की ख़ुशी को लेकर गलत अंदाजा है’

गरीबी और भुखमरी के विरुद्ध लड़ाई का स्वरुप अमीरियत की संस्था ख़त्म करने की तरफ न होकर अमीरों के खिलाफ चिढ तक सीमित कर दी जाती है और गरीब सिर्फ वहीँ तक संघर्ष करने को इच्छुक रहता है जहाँ तक वह खुद अमीर नहीं हो जाता…गरीबी के विरुद्ध लड़ाई अमीरियत के खिलाफ लड़ी जानी चाहिए,अमीरों के विरुद्ध नहीं,नहीं तो लड़ाई सिर्फ भूमिका-परिवर्तन तक सीमित रह जायेगी..आखिर न्याय का मतलब बदला तो नहीं समझा जा सकता!!

इसी विमर्श को यदि आगे बढाकर सामाजिक-राजनैतिक समस्याओं के समाधान के परिदृश्य में स्वतंत्रता,समानता और बंधुता के सार्वभौमिक आयामों के लागू करने तक ले जाएँ तो सारी कवायद स्वतंत्रता और समानता तक ही सीमित रह जाती है और इस तथ्य को भुला दिया जाता है कि बंधुता की भावना जगाये बिना स्वतंत्रता और समानता दोनों पर काम करने की पहल कहीं ना कहीं समाज में घर्षण उत्पन्न करने का काम करती रहेगी।समाज के अलग-अलग घटक स्वतंत्रता और समानता के पारस्परिक अन्तर्सम्बन्ध को लेकर संवेदनशीलता प्रदर्शित करते रहते हैं जोकि कहीं ना कहीं प्रतिक्रिया की भावना को भी पैदा करता है और सामाजिक न्याय की संकल्पना मात्र ‘बदला’ की अवधारणा तक सीमित हो जाती है।

बंधुता की संकल्पना सबसे पहले बीमारी की पहचान कराती है फिर समाधान खोजती है,पर चूंकि बंधुता का मसला राजनीतिक रूप से विशेष फलदायी नहीं होता अतः इस पहलू पर किसी का जोर नहीं होता।बंधुता की संकल्पना समाजनीति के दायरे में आती है,पर समाजनीति का सूनापन धर्म,जाति, वर्ग और पंथ में बँटे भारतीय समाज के फटे कपड़ों में पैबंद लगाकर राजनैतिक सरोकारों की पूर्ति में लिप्त लोगों को मनचाहा ज़मीन प्रदान करती रहती है।सिर्फ समाजनीति ही उन फटे कपड़ों को बदलकर नए कलेवर और रूप के कपड़ों को बंधुता की भावना से बांधकर स्वतंत्रता और समानता के सपनों को साकार करने की दिशा में कदम बढ़ाने में योगदान कर सकती है।बिना बंधुता की भावना पैदा किये स्वतंत्रता और समानता की दिशा में उठाया कोई भी कदम समाज में प्रतिरोध,प्रतिक्रिया और घर्षण को बढ़ावा देगा।

ये मेरा निजी विचार हैं।

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