‘जाति’ का अंग्रेजी पर्याय caste है. यह लैटिन मूल के शब्द castus से बना है. उसका अर्थ होता हैᅳpure, clean, chaste यानी ‘शुद्ध’, ‘स्वच्छ’, ‘पवित्र’ आदि. अपने प्रचलित अर्थ में ‘जाति’ की अवधारणा स्पेनिश और पुर्तगाली भाषा के शब्द casta के अपेक्षाकृत करीब है. पुर्तगाली भाषा में उसका अर्थ हैᅳ‘नस्ल’, वंशावली’, ‘वर्ण’. उसमें रक्त–शुद्धता का भाव भी शामिल है. लंबी यात्रा के बाद भारत पहुंचने पर पुर्तगालियों की जब यहां की जाति–व्यवस्था से मुठभेड़ हुई तो उन्हें लगा कि casta की भांति जाति भी ‘कुलीनता’ और ‘रक्त–शुद्धता’ को दर्शाती है. पुर्तगालियों द्वारा caste पुकारने से ही जाति को अपना आंग्ल पर्यायवाची मिला. जाति–वर्ण तथा रक्त–शुद्धता के अंतःसंबंध को लेकर हिंदुओं के बीच सिद्धांत और व्यवहार का अंतर प्राचीनकाल से रहा है. यह सही है कि ‘जाति’ और ‘वर्ण’ में ‘रक्त–शुद्धता’ की अवधारणा के लिए सिद्धांततः कोई स्थान नहीं है. ‘ब्रह्मा’ या ‘विराटपुरुष’ का मिथ, जिसके आधार पर जाति–प्रथा की संपूर्ण इमारत खड़ी हैᅳस्वयं इसका विरोध करता है. ऋग्वेद के ‘पुरुषसूक्त’ के अनुसार सभी जातियों का जन्म ब्रह्मा के शरीर के विभिन्न अंगों हुआ है. उसके मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, उदर से वैश्य तथा पैरों से शूद्रों का निकास बताया जाता है.
अब यह तो संभव नहीं है कि शरीर के एक हिस्से में ‘कुलीन’ रक्त का प्रवाह हो तथा दूसरे में ‘दूषित’ रक्त का. जब सब एक ही विराटपुरुष की संतान हैं तो सबका रक्त एक ही होगा. महाभारत में भृगु और भरद्वाज का संवाद इसकी पुष्टि करता है. चर्चा के आरंभ में भृगु वर्ण–विभाजन का स्थूल आधार व्यक्त करते हैं. वे ब्राह्मण को श्वेत, क्षत्रिय को रक्तिम, वैश्य को पीत तथा शूद्र को श्यामवर्णी बताते हैं. भरद्वाज तत्काल प्रतिप्रश्न करते हैं कि सभी वर्णों के लोगों में लालच, क्रोध, ईर्ष्या, इच्छा, भय, क्षुधा, चिंता, थकान आदि एक समान होते हैं. सभी वर्णों में सभी रंग के मनुष्य देखने को मिलते हैं. ऐसे में उन्हें रंग के आधार पर अलग कैसे किया जा सकता है. इसपर भृगु कहते हैं कि पहले वर्णों में कोई अंतर नहीं था. आगे चलकर विभिन्न कर्मों के कारण वर्ण–भेद पनपाᅳ‘ब्रह्मा से उत्पन्न होने के कारण यह सारा जगत ब्रह्म हैᅳ‘सर्वे ब्राह्ममिदं जगत्’(शांतिपर्वᅳ12/181/10). इसका आशय यह नहीं है कि आर्यजन रक्त–शुद्धता के विचार से सर्वथा मुक्त थे? विराट जनसमाज के समक्ष अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए शासक वर्ग जिन माध्यमों को अपनाता है, उनमें रक्त–शुद्धता का ‘मिथ’ भी है. ‘मिथ’ इसलिए कि विभिन्न संस्कृतियों के बीच रक्त–संबंधों का आदान–प्रदान हजारों वर्षों से होता रहा है. ऐसे में रक्त–शुद्धता का दावा भ्रांति से आगे नहीं जाता. बावजूद इसके अपना मन समझाने के लिए शीर्षस्थ वर्ग ऐसी भ्रांति जाने–अनजाने पाले ही रखते हैं. गौत्र की अवधारणा, अनुलोम–प्रतिलोम विवाह, उपनयन संस्कार जैसी विशेषताएं बतातीं हैं कि आर्य भी उसके अपवाद न थे।।।
कार्य–विभाजन के आधार पर समाज को अलग–अलग वर्गों में बांटने का सिद्धांत प्रायः सभी प्राचीन सभ्यताओं में लागू था. अफ्रीका, चीन, मंगोलिया, जापान आदि देशों में भी वर्ण–विभाजन के प्रमाण हैं. लेकिन वह वंशगत नहीं था. प्लेटो ने मनुष्य की प्रतिभा, रुचि, गुण, शारीरिक बल और मनोविज्ञान के आधार पर उन्हें ‘स्वर्ण’, ‘रजत’ एवं ‘लौह’ वर्गों में बांटा है. उसने बच्चों का भरण–पोषण उनकी पैत्रिक पहचान को छिपाते हुए, राज्य के नियंत्रण में इस प्रकार करने की अनुशंसा की है कि जैविक माता–पिता भी अपनी संतान को पहचान न सकें. यह जानकारी भी आपको हैरान कर सकती है कि जिस चातुर्वर्ण्य व्यवस्था को आर्यों ने भारत में लागू किया, ठीक वैसी ही वर्ण–व्यवस्था आर्यों के मूल देश प्राचीन पर्शिया में भी मौजूद थी. दोनों के बीच आश्चर्यजनक समानताएं हैं. प्रोफेसर रमेश चंद्र की पुस्तक ‘कास्ट सिस्टम इन इंडिया’ में इसपर विचार किया गया है. प्राचीन पर्शिया में भी समाज को चार वर्णों(pishtras) में बांटा गया था. उनके नाम हैंᅳ‘अथर्वा’ या पुजारी(Athravas or Priest), रथेस्थस्स या योद्धा(Rathaesthas or Warrior) वास्त्रय श्युआंत्स(Vastrya Fshuyants) अथवा उपार्जक तथा हाउटिस(Huitis or Manual Workers) यानी मेहनतकश मजदूर. भारत में आकर ये क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बन जाते हैं.।।।
प्रमाण बताते हैं कि वर्ण–व्यवस्था की नींव समाज में कार्य–विभाजन की जरूरत के आधार पर रखी गई. आरंभ में उसके प्रति सर्व–सम्मति थी. लोग अपनी रुचि और कार्यक्षमता के अनुसार काम चुनते थे. संतान को भी मनचाहा काम चुनने की स्वतंत्रता थी. काम के आधार पर ऊंच–नीच या पक्षपात नहीं होता था. वर्ण–व्यवस्था का दैवीकरण बहुत बाद की घटना है. ऊंच–नीच की भावना भी दैवीकरण के साथ ही जुड़ी. चातुर्वर्ण्य का विचार तो आर्य अपने मूल–देश से लेकर आए थे. ‘पुरुषसूक्त’ की रचना उन्होंने यहां भली–भांति जम जाने के बाद की. वर्ण–व्यवस्था को स्थायी बनाने के लिए आवश्यक था कि उसे ‘दैवी–विधान’ बनाकर किसी भी प्रकार की शंका और सवालों से मुक्त कर दिया जाए. यही उन्होंने किया भी. वेद ने रास्ता दिखाया था, भेदभाव की नींव उपनिषदों, पुराणों और स्मृतियों द्वारा रखी गई. बृहदारण्यक उपनिषद(1.4.11-14) में कहा गया है कि ब्राह्मण का जन्म सबसे पहले हुआ. लेकिन अकेले ब्राह्मण द्वारा सृष्टि का संचालन संभव न था. इसलिए उसकी मदद के लिए क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्रादि वर्णों की रचना की गई. ‘विराटपुरुष’ की कल्पना से जब रक्त–शुद्धता के मिथ पर संकट दिखाई पड़ने लगा तो बचाव के लिए उपनयन संस्कार का सहारा लिया गया. उसे मनुष्य का दूसरा जन्म(द्विज) कहा गया. मान लिया गया कि जन्म के समय भले ही सब जातक एक जैसे हों, द्विजीकरण द्वारा शुद्ध कर उन्हें दूसरों से विशिष्ट बनाया जा सकता है. उपनयन संस्कार तथाकथित कुलीन अर्थात ऊपर के तीन वर्गों वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण तक मान्य था(जातिगोत्रादि कर्माणि शुक्लध्यानस्य हेतवः। येषां स्युस्ते त्रयो वर्णाः शेषाः शूद्राः प्रकीर्तिताः।।). उसके माध्यम से समाज की तीन प्रमुख विशेषाधिकार संपन्न शक्तियों धार्मिक(ब्राह्मण, पुरोहित), राजनीतिक(क्षत्रिय) तथा आर्थिक (वैश्य) को एक सूत्र में बांध दिया गया. वैश्य और क्षत्रिय ब्राह्मण–केंद्रित संस्कृति के अधीन होते चले गए. इसे स्थायी बनाने के लिए अनेक नियम बनाए गए. विवाह की अनुलोम–प्रतिलोम व्यवस्था भी जाति–व्यवस्था को स्थायी बनाने में मददगार बनी. वर्णसंकरता ने अनेक जातियों को जन्म दिया. समाज की मान्यता मिली तो हर नए पेशे के साथ नई जाति भी जुड़ती गई.।।।।
निचली जातियों का बड़ा हिस्सा जाति–व्यवस्था के लिए मनु को जिम्मेदार ठहराता है. ‘मनुस्मृति’ का दहन उसी आक्रोश की अभिव्यक्ति है. जबकि साक्ष्य बताते हैं कि मनु जाति–पृथा का मूल अभिकल्पक नहीं था. जाति तो उससे पांच सौ वर्ष पहले से ही मौजूद थी. तब मनु ने ऐसा क्या किया था कि जाति व्यवस्था के सताए लोग उससे घोर नफरत करते हैं? इसके लिए उस समय के इतिहास को समझना आवश्यक है. 2500 वर्ष पहले बुद्ध का उदय भारतीय इतिहास की क्रांतिकारी घटना थी. बुद्ध ने वर्ण–व्यवस्था को चुनौती नहीं दी थी. मगर भिक्षु संघ के दरवाजे, समाज के सभी वर्गों के लिए खोलकर, जाति–आधारित भेदभाव को मिटाने की क्रांतिकारी पहल जरूर की थी. बुद्ध के पांच प्रमुख शिष्यों में उपालि नाम का शूद्र(नाई) भी सम्मिलित था. उनके एक अन्य प्रमुख शिष्य मोग्गलायन को पूर्वजन्म में मछुआरा बताया गया है. बहरहाल, जैसे–जैसे बौद्ध धर्म का प्रभाव बढ़ा, जाति–आधारित भेदभाव में कमी आने लगी. उससे लोगों का मिलना–जुलना बढ़ा. फलस्वरूप कर्मकार जातियां जो अर्थव्यवस्था की रीढ थीं, परस्पर संगठित होने लगी थीं. उनके संगठन देश–देशांतर तक व्यापार करते थे. डा. रमेश मजूमदार के अनुसार शिल्पकार वर्गों के अलग–अलग लगभग 31 व्यापारिक संगठन थे. अपने आप में पूरी तरह आत्मनिर्भर. इससे वर्ण–व्यवस्था की मूल अवधारणा कि शूद्र का कार्य द्विजों की सेवा के लिए हैंᅳधूमिल पड़ने लगी थी. पुरोहित वर्ग की दृष्टि में यह वर्ण–व्यवस्था को ही चुनौती थी. इससे उसका क्षुब्ध होना स्वाभाविक था. अतः बौद्ध धर्म के पराभव के दिनों में ब्राह्मणवादी शक्तियों को जैसे ही अवसर मिला, वर्ण–व्यवस्था को मजबूत करने के लिए मनु ने ऐसे विधान की रचना की जिसमें ब्राह्मणों के विशेषाधिकार को कोई चुनौती न दे सके. इस तरह ‘मनुस्मृति’ जाति–विधा को जन्म देने वाला ग्रंथ न होकर, जाति–आधारित भेदभाव, सामाजिक–राजनीतिक असमानता को बढ़ावा देने तथा समाज के बहुसंख्यक वर्ग से उसकी स्वतंत्रता छीन लेने का षड्यंत्र है. बौद्ध धर्म के अवसान के बाद पाल वंश के शासकों को छोड़कर जो बौद्ध थे, अधिकांश ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में मनुस्मृति के दंड विधान को ही लागू किया था.।।।
जाति आधारित भेदभाव पर बड़ी चोट मध्यकाल में संत कवियों द्वारा की गई. कबीर, रैदास, नानक जैसे कवियों ने सामाजिक असमानता एवं जातिगत भेदभाव पर खुलकर प्रहार किया था(रैदास बांभन मत पूजिए जो होवे गुन हीन । पूजिए चरन चंडाल के जो हो ज्ञान प्रवीन ।।ᅳसंत रविदास). उसका प्रभाव भी पड़ा. लेकिन संत कवियों का ध्यान केवल सामाजिक असमानता तक सीमित था. वे जरूरत से ज्यादा भले थे. संतोष को परम धन मानते थे. उनकी न तो महत्त्वाकांक्षाएं थीं, न ही सपने. वे ‘रूखी–सूखी खाकर ठंडा पानी पीने’ में जीवन की सिद्धि मानते और ‘चदरिया’ को ‘ज्यों की त्यों धर’ देने की कामना करते थे. कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो लौकिक सुख को लेकर स्वतंत्रता एवं समानता की कोई अवधारणा उनके दिमाग में थी ही नहीं. दैन्य उनके लिए आभूषण था. भूल गए थे कि मन के सुख से केवल दिलासा दी जाती है. पेट की भूख नहीं मिटाई जा सकती. इसलिए द्विज वर्गों को सामाजिक आंदोलन को भक्ति धारा में बदल देने में देर न लगी. शताब्दियों पश्चात जातीय भेदभाव और सामाजिक पराधीनता के विरुद्ध वास्तविक चेतना महामना ज्योतिबा फुले और डा. अंबेडकर के जीवन–कर्म में दिखाई पड़ती है. फुले हिंदू धर्म की रूढ़ियों, अंधविश्वासों, जातीय असमानता और उत्पीड़न को बढ़ावा देने वाले कारकों से आजीवन जूझते रहे. यह जानते हुए कि अशिक्षा पुरोहितवाद के पनपने का मुख्य कारण हैं उन्होंने शिक्षा, विशेषकर स्त्री–शिक्षा पर जोर दिया. अंबेडकर जाति को हिंदू धर्म के लिए घातक मानते हुए उसका संपूर्ण उच्छेद चाहते थे. जब उन्हें लगा कि हिंदू धर्म की संरचना ही ऐसी है कि वह जाति से मुक्त होकर रह ही नहीं सकता तो उन्होंने हिंदू धर्म का त्याग करने का निश्चय किया था.।।।
जातीय भेदभाव के उन्मूलन के संदर्भ में गांधी की भूमिका को भी रेखांकित किया जाता है. सही है कि छुआछूत उन्मूलन और तथाकथित हरिजनों के उद्धार के लिए गांधी के प्रयासों में कुछ ईमानदारी थी. दबाव में ही सही, वे जाति जैसी कुपृथा के विरोध में आ चुके थे. तो भी जातीय उन्मूलन के क्षेत्र में गांधी की भूमिका उदार परंपरावादी हिंदू जैसी थी, जो घिर जाने पर केवल उतने सुधार की सहमति देता है, जिससे ‘धर्म की हानि’ न हो. धर्म गांधी के लिए सबकुछ था. उससे मुक्ति की बात वे सोच भी नहीं सकते थे. उनका जाति–संबंधी चिंतन पीड़ित वर्गों के प्रति सहानुभूति और राजनीतिक मजबूरियों के तहत जन्मा था. जाति और वर्ण–व्यवस्था से उन्हें तभी तक शिकायत थी, जब तक वे सामाजिक भेदभाव तथा दुर्बल वर्गों के प्रति अत्याचार के जनक हैं. डा. अंबेडकर जाति का संपूर्ण विनाश चाहते थे. इसके पर्याप्त कारण थे. काफी पढ़–लिख जाने तथा सफलता के शिखर तक पहुंचने के बावजूद जाति के कारण उन्हें जो अपमान झेलना पड़ता था, उसकी पीड़ा वर्णनातीत थी. वे महाराष्ट्र के वासी थे. पेशबाई दौर में ब्राह्मण पुरोहितों द्वारा जातीय उत्पीड़न के किस्से उनसे छिपे न थे. इसलिए सामाजिक स्वतंत्रता का मसला उनके लिए राजनीतिक आजादी से बड़ा था. राजनीति उनके लिए सामाजिक मान–सम्मान और अपने अधिकारों को वापस पाने का साधन मात्र थी.
दरअसल वह एक दौर था जब समाज के सभी वर्गों में परिवर्तन की चाहत जगी थी. पश्चिम में फुले और डा. अंबेडकर तो दक्षिण में पेरियार मोर्चा संभाले हुए थे. फिर उत्तरी भारत उससे कैसे अछूता रहता! लेकिन उसका स्वरूप बदला हुआ था. उत्तर में जातिवादी चेतना ‘त्रिवेणी संघ’ के बैनर तले बिहार में देखने को मिली थी, जिसका गठन 1930 में तीन प्रमुख पिछड़ी जातियों, कुर्मी, कुशवाहा और यादवों ने मिलकर किया था. उन्हें लगता था कि कांग्रेस आंतरिक चुनावों में द्विज जातियों को बढ़ावा देकर उनके हितों पर कुठाराघात कर रही है. लेकिन उनमें और दक्षिण तथा महाराष्ट्र मे उभरे अस्मितावादी आंदोलनों में अंतर था. महाराष्ट्र और दक्षिण में उभरे अस्मितावादी आंदोलन दलित और अंत्यज्य जातियों की चेतना का परिणाम थे. उनके लिए सामाजिक समानता और स्वतंत्रता पहले थी. राजनीति को वे औजार की तरह इस्तेमाल कर रहे थे. पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार के अस्मितावादी आंदोलनों का प्रथम लक्ष्य राजनीतिक सत्ता प्राप्त करना था. उनमें से यादव खुद को कृष्ण का तथा कुर्मी राम का वंशज बनाते थे. ये जातियां किसान और मेहनतकश वर्गों से आती थीं; और आर्थिक स्तर पर करीब–करीब आत्मनिर्भर थीं. अपने जनबल पर उन्हें भरोसा था. इसलिए 1937 के प्रांतीय स्तर के चुनावों में कांग्रेस के सहयोग के बावजूद चुनाव हार जाने पर भी ‘त्रिवेणी संघ’ के नेताओं के हौसले बुलंद थे. उसके एक बड़े नेता की प्रतिक्रिया थीᅳ‘हमने वोट के मैदान में हार पाई है. लाठी के मैदान में नहीं.’
निचले वर्गों में उभर रही जातीय चेतना अपने समय के कदाचित सबसे दूरदृष्टा नेता गांधी से छिपी न थी. वे समझने लगे थे कि लोग यदि जाति के आधार पर इसी प्रकार लामबंद होने लगे तो आजादी के बाद देश को एक रखना कठिन हो जाएगा. चूंकि द्विज जातियों की संख्या, देश की कुल जनसंख्या का बामुश्किल 15 प्रतिशत थी, इसलिए बात बढ़ने पर द्विज जातियों के अल्पसंख्यक हो जाने का भी खतरा था. इसी आशंका ने गांधी को हरिजनोद्धार के लिए विशेष कार्यक्रम चलाने के लिए प्रेरित किया था. स्वतंत्र भारत में जिस व्यक्ति ने सही मायने में जाति–उन्मूलन के लिए खुलकर आवाज उठाई, उसका नाम थाᅳराममनोहर लोहिया. लोहिया का नारा ‘पिछड़े पावैं सौ में साठ’ खूब लोकप्रिय हुआ. उनपर जातिवादी होने का आरोप लगाया गया. उन लोगों की ओर से लगाया गया, जो जाति के नाम पर, पीढ़ी–दर–पीढ़ी मलाई मारते आए थे. उन्हें ‘कुजात गांधीवादी’ कहा गया. उन लोगों ने कहा जो गांधी के नाम पर मठाधीश बनते जा रहे थे. मगर प्रखर मेधावी लोहिया के तर्क इतने अकाट्य होते थे कि उनके विरोधियों द्वारा भी उनकी अपेक्षा संभव न थी. उस समय तक कांग्रेस के नेतृत्व में विप्र जातियां राजनीति पर पकड़ बना चुकी थीं. देश के अधिकांश संसाधन उनके अधिकार में थे. ऊपर से पूंजीपति घरानों का साथ. नतीजा यह हुआ कि लोहिया जैसे ईमानदार और प्रतिबद्ध नेता पीछे छूटते रहे. उन्हें और उनके समानधर्मा नेताओं की विद्वता को तो खूब सराहा गया, परंतु राजनीति में वे लगातार पिछड़ते रहे.
और वामपंथी? वे कहां थे? आजादी की लड़ाई में आम जनता की हिस्सेदारी एक सपने के साथ थी. सपना था न्याय और बराबरी का. जनाकांक्षाओं का दबाव और लोगों में स्वशासन की वांछा इतनी प्रबल थी कि गांधी जैसा व्यक्ति भी स्वयं को अराजकतावादी कह उठता था. वर्गहीन समाज का वामपंथी नारा कहीं न कहीं जाति–वर्ग विहीन समरस समाज की संकल्पना से भी मेल खाता था. इसलिए आरंभ में वामपंथी राजनीतिज्ञों बुद्धिजीवियों को खूब सराहना मिली. विशेषकर बीसवीं शताब्दी के आरंभ से लेकर 1930 तक, वामपंथी विचारधारा किसी न किसी रूप में भारतीय राजनीति को, कुछ हद तक कांगे्रस से भी ज्यादाᅳप्रभावित करती रही. इस देश को उसने लाला हरदयाल, करतार सिंह सराबा, मानवेंद्रनाथ राय, भगत सिंह जैसे प्रखर नेता और बुद्धिजीवी दिए. विवेकानंद और वीर सावरकर के आरंभिक विचारों पर भी वामपंथ की क्रांतिकारी चेतना का प्रभाव था. बावजूद इसके वामपंथी देश के पिछड़े और दलित मतदाताओं की व्यापक सहानुभूति कभी अर्जित न कर सके. क्योंकि जाति जो इस देश में असमानता और अन्याय का बड़ा कारण थी, जिसके आधार पर समाज बुरी तरह बंटा हुआ थाᅳवे उस ओर से चुप्पी साधे रहते थे. इसका कारण भी किसी से छिपा न था. भारत के अधिकांश वामपंथी नेता उन वर्गों से आए थे, जो जाति–विशेष में जन्म लेने के कारण ही विशेषाधिकार संपन्न मान लिए जाते हैं. भारतीय परिदृश्य में वर्गहीन समाज की रचना जाति को चुनौती दिए बगैर संभव न थी. उच्च जातियों से निकले वामपंथी वर्गहीन समाज का नारा तो उछालते थे, परंतु जाति के सवाल पर प्रायः मौन साध जाते थे. हालांकि उनमें से कुछ अपने नाम के आगे जाति–सूचक शब्द लगाना छोड़ चुके थे. मगर मानसिकता ज्यों की त्यों थी. जाति के नाम पर जो विशेषाधिकार उन्हें प्राप्त थे, उन्हें वे छोड़ना न चाहते थे. संभव है इसमें उनका परिवेश भी बाधक बनता हो. आमूल परिवर्तन हेतु काम करने की न तो उनकी वांछा थी, न ही योजना. इस कारण वामपंथ इस देश में आमतौर पर उत्तेजना की राजनीति का वाहक रहा. 1990 के बाद आर्थिक उदारीकरण ने रफ्तार पकड़ी तो अधिकांश वामपंथी, वैकल्पिक अर्थव्यवस्था की रूपरेखा प्रस्तुत करने के बजाए, केवल प्रतिक्रियावादी नजर आए. आर्थिक संकट का भय दिखाकर सरकार ने मजदूर संगठनों पर दबाव बनाना आरंभ कर दिया. वामपंथी उसका माकूल जवाब देने में असमर्थ रहे. नतीजा यह हुआ कि वामपंथियों के प्रति जनता की रही–सही सहानुभूति भी कम होने लगी.
वामपंथ का अर्थ यदि समाज के वंचित वर्गों के अधिकारों की लड़ाई लड़ना है तो भारतीय वामपंथ के सच्चे उत्तराधिकारी और कार्यकर्ता डा. अंबेडकर थे. लेकिन जिन वर्गों के अधिकारों की लड़ाई डा. अंबेडकर लड़ रहे थे, वे शताब्दियों से गरीबी और अशिक्षा के अंधकार में डूबे थे. वामपंथ की भारी–भरकम शब्दावलि को समझने का बौद्धिक सामर्थ्य उन वर्गों में नहीं था. डा. अंबेडकर न उन वर्गों की समस्याओं को न केवल समझा, बल्कि उनसे उन्हीं की भाषा में संवाद करते हुए दलित चेतना हेतु कई जनांदोलनों का सफल नेतृत्व किया. उचित होता कि खुद को मार्क्सवादी या वामपंथी नेता कहने वाले नेता और बुद्धिजीवी भी भारतीय परिवेश के अनुसार वामपंथ का कायाकल्प करते. उससे स्थानीय मुद्दों को जोड़ते. उन पिछड़े और दलित वर्गों की आवाज बनते जो मार्क्स के शब्दों में सही मायने में ‘सर्वहारा’ थे. रूस, चीन, जर्मनी, इटली आदि जिन देशों में भी मार्क्सवाद या मार्क्सवादी वामपंथ ने सफलता प्राप्त की, उसमें स्थानीय नेताओं की प्रतिभा और संघर्ष का भारी योगदान था. उन्होंने मार्क्सवाद की व्याख्या अपने देश तथा जमीनी हकीकत के अनुसार की थी और वर्ग संघर्ष के सिद्धांत को जहां, जितना आवश्यक समझा उतना बदला भी था. किंतु भारत में वामपंथियों के जातीय संस्कार आमूल परिवर्तन की राह अवरुद्ध करते रहे. वे भारतीय ‘सर्वहारा’ जिसकी निगाहों में वर्गहीन समाज की रचना का सपना रैदास के समय से ही जुड़ चुका था, के मानस को पढ़ने में असफल रहे.
वर्ण–व्यवस्था में निचले स्तर पर मानी गई जातियों को भरोसा था कि स्वतंत्र भारत में उन्हें एक समानता–आधारित समाज में रहने का अवसर मिलेगा. डा. अंबेडकर के मार्गदर्शन में जो संविधान बना, उसमें इसके प्रावधान भी किए गए थे. कोई उपेक्षित महसूस न करे, स्वतंत्र भारत की सरकार को सभी अपना मानें, इसीलिए यहां लोकतंत्र को अपनाया गया. निश्चय ही लोकतंत्र की भावना के अनुसार संविधान का निर्माण महत्त्वपूर्ण बात थी. परंतु असली चुनौती थी, समाज और शासन को संविधान की भावना के अनुरूप ढालना. यह चुनौती आज भी कायम है. भारत का अभिजन अंग्रेजी शासन में भी लाभ की अवस्था में था और मुगलकाल में भी. शासक चाहे देशी हो या विदेशी, जाति के आधार पर प्राप्त विशेषाधिकार बने रहें तो उसे किसी से शिकायत न होती थी. इस कारण भारत पर राज करना, विदेशी आक्रामकों के लिए कभी मुश्किल नहीं रहा. ऐेसे ही स्वार्थी लोगों के भरोसे मुगल कामयाब हुए थे. उन्हीं के भरोसे साठ–सत्तर हजार अंग्रेज चालीस करोड़ भारतीयों को दो सौ वर्षों तक गुलाम बनाने में कामयाब हुए थे. ऐसे लोग आजादी से पहले से ही सत्ता सुख भोगते आए थे. जोड़–तोड़ की राजनीति के सहारे आज भी वही वर्ग सत्ता में है. जबकि आजादी ऐसे लोगों के संकल्पों की देन न होकर देश की बहुसंख्यक जनता के सपनों और संघर्षों का सुफल थी, जिसने उस संग्राम में बढ़चढ़कर हिस्सा लिया था. जाहिर है, आजादी के साथ जुड़े जनसाधारण के सपनों और उम्मीदों को उपेक्षित किया गया है. लोकतंत्र के फलने–फूलने के लिए जो निष्ठा और परिवेश चाहिए, समाज को उसके अनुरूप ढालने, लोगों के सोच को लोकतांत्रिक बनाने के प्रति उदासीनता बरती गई. ऐसे में जाति भला कैसे जाती!
सवाल है कि क्या किया जाए? क्या जाति ऐसी फांस है जो हमेशा–हमेशा भारतीय समाज के गले में अटकी रहेगी? यदि यह व्याधि है तो क्या इसका सही उपचार संभव है? जाति के नाम पर जो उल्टा चक्र चल चुका है, उसे देखकर तो बड़े से बड़ा आशावादी भी नहीं कह सकता कि जाति निकट भविष्य में जाने वाली है. तस्वीर सामने है. शताब्दियों से जिन लोगों ने जाति के आधार पर भेदभाव, उत्पीड़न और अत्याचार सहा है, कोई और विकल्प न देख वे भी जाति को ही अपने संगठन का आधार बनाए हुए हैं. वे भी क्या करें! पीढ़ी–दर–पीढ़ी जाति के गुलाम रहने के कारण उनकी मानस रचना ही ऐसी हो चुकी है कि स्वजातीय संगठनों और नेताओं के अलावा उन्हें दूसरा कोई उद्धारक नजर नहीं आता. उन पर जातिवादी होने का आरोप वे लगा रहे हैं जो पीढ़ी–दर–पीढ़ी जाति के आधार पर मलाई मारते आए हैं. जाति को मिटाना कोई नहीं चाहता. न वे जो उसके आधार पर शोषण का शिकार रहे हैं. न ही वे लोग जिन्हें जाति के कारण समाज ने सिर–माथे बिठाकर रखा है. जातीय शोषण का शिकार रहे वर्गों को लगता है कि जाति की सहायता से वे ‘अपने’ लोगों से जुड़ सकते हैं. उधर सवर्ण सोचते हैं कि जाति रही तो उतार–चढ़ावों के बावजूद समाज में उनकी विशिष्ट पहचान भी रहेगी.
धर्म जाति का सुरक्षा–कवच बनकर रहा है. इसलिए जो लोग किन्हीं दबावों के कारण जाति के समर्थन में खुलकर नहीं बोल पाते, वे उसे बचाने के लिए धर्म की मदद लेने लगते हैं. जानते हैं कि धर्म रहा तो जातिवाद के विरुद्ध लंबी लड़ाई और प्रभावी लड़ाई असंभव होगी. यदि धर्म जीता तो जाति भी बनी रहेगी. लोग कुछ दिन भले ही छटपटा लें, धर्म से ज्यादा दूर नहीं जा सकते. इसलिए वे बार–बार दोहराते हैं कि धर्म उनके साथ है. नेता लोग संविधान की कसम खाते हैं, जिसमें वर्ग–विहीन समाज की स्थापना पर जोर दिया गया है. मगर चाहते यही हैं कि जाति बनी रहे. ताकि उसके नाम से लोगों को आसानी से फुसलाया जा सके. उन्हें लोकतंत्र से ज्यादा भरोसा जाति पर है. जाति न न रही तो धर्म, क्षेत्रीयता के अलावा बाकी जो भी मुद्दे लेंगे वे वास्तविक होंगे. उनमें अगर असफल हुए तो जनता उनसे सवाल करेगी….करती ही जाएगी. इसलिए वे धर्म और जाति को जो लोगों की प्रश्नाकुलता को मारने के बेजोड़ नुस्खे हैंᅳबीच में ले आते हैं. पूंजीपतियों के लिए उनका धर्म–ईमान, जाति–गौत्र सब कुछ पैसा है. उसके लिए समाज को एकात्म होते वे भी नहीं देखना चाहते. सोचते हैं कि जाति रही तो समाज बंटा रहेगा. समाज बंटा रहा तो वह कमजोर भी रहेगा. कमजोर रहा तो पूंजीवादी शोषण की ओर लोगों का कम ध्यान जाएगा. उसने आदर्श उपभोक्ता बनाने में आसानी रहेगी. ऐसा व्यक्ति जब–जब बाजार से निराश लौटेगा, महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी जैसे मुद्दों के लिए सरकार को कोसेगा और संकट में पड़ी सरकार से मनचाहे फैसले कराए जा सकेंगे.
फिर जाति से मुक्ति का रास्ता? पुरानी बीमारी किसी एक उपचार से नहीं जाती. उसे बाहरी इलाज और आंतरिक अनुशासन दोनों की जरूरत पड़ती है. वह तभी संभव है जब पूरा परिवार साथ दे. यही बात समाज के साथ भी है. बंटा हुआ समाज स्वयं एक बीमारी है. इसलिए जाति, वर्ग, पूंजी, धर्म और संस्कृति समाज को बांटने वाले जितने भी कारक सब को मनुष्यता की कसौटी पर कसा जाना चाहिए. और जो भी मनुष्यों को आपस में भेद करना सिखाता है, उसका अविलंब बहिष्कार किया जाना चाहिए. लोकतंत्र में संख्याबल महत्त्व रखता है. सत्ता हाथ में न हो तब भी संख्याबल के आधार पर काम कराए जा सकते हैं. जाति का मूल स्वरूप सामंतवादी होता है. उसकी एकमात्र काट सच्चे लोकतंत्र में है. ऐसे लोकतंत्र में है जिसमें सरकार की भूमिका केवल प्रतीकात्मक हो. इसलिए जाति से मुक्ति का एकमात्र रास्ता यही है कि आभासी लोकतंत्र को वास्तविक लोकतंत्र में बदला जाए. छोटे–छोटे जाति–समूहों का उनके हितों के आधार पर एकीकरण करते हुए बड़े समूहों में बदला जाए. नागरीकरण के जरिये इस तरह जोड़ा जाए कि लोग निजी के बजाय सामूहिक पहचान को वरीयता देने लगें. यहां निजी पहचान से ध्यान हटाने का अभिप्राय अपने व्यक्तित्व को विलीन कर देना नहीं है. उससे तो समाजीकरण का उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है. लोकतंत्र जनताकरण की सतत प्रक्रिया है. उसमें लोग छोटे–छोटे हितों के साथ घुलमिलकर बड़े हितों की पहचान करते हैं. फिर उन्हें सीधे अथवा अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से पाने के लिए संकल्पबद्ध होते हैं. बाहरी पहचान जिससे उनके व्यक्तित्व, उत्पादकता या बुद्धि–विवेक का सीधा संबंध न हो, को बिसरा देते हैं. फलस्वरूप नागरिकों की पहचान उसकी योग्यता, ज्ञानानुभव, कार्यक्षमता और मनुष्यता के प्रति समर्पण भाव से होने लगती है. ऐसे ही लोग लोकतंत्र में अपने सच्चे प्रतिनिधि चुनने में सफल हो सकते हैं. उस समय वे जो प्रतिनिधि चुनते हैं, वे केवल प्रतिनिधित्व करते हैं, शासक बनने का साहस नहीं कर पाते. तो जाति–उन्मूलन का सही रास्ता समाज के लोकतांत्रिकरण में है. जाति–आधारित संगठन संख्याबल का महत्त्व समझाने के लिए तो उपयोगी हो सकते हैं, मुक्त समाज की स्थापना और किसी बड़े लक्ष्य की प्राप्ति उनके द्वारा असंभव है.।।।
वन्देमातरम
जय हिन्द