शिक्षा का व्यवसायीकरण या बाजारीकरण आज देश के समक्ष बड़ी चुनौती हैं। यह संकट देश में विगत 40-45 वर्षो में उभरकर आया है। परन्तु वास्तव में उसकी नींव अंग्रेज मैकाॅले द्वारा स्थापित शिक्षा में है। इसके पूर्व भारत में शिक्षा कभी व्यवसाय या धंधा नहीं थी।
किसी भी समस्या का समाधान चाहते है तो उसकी जड़ में जाने की आवश्यकता होती है। शिक्षा में वर्तमान का व्यवसायीकरण का कारण क्या है? उसका समाधान क्या हो? कुछ लोग ऐसा भी तर्क देते है कि शिक्षा का विस्तार करना है या सर्वसुलभ कराना है तो मात्र सरकार के द्वारा संभव नहीं है, निजीकरण आवश्यक है और जो व्यक्ति शिक्षा संस्थान में पैसा लगायेगा वह बिना मुनाफे क्यों विद्यालय,महाविद्यालय खोलेगा? कुछ लोग इससे भी आगे बढ़कर कहते है कि देश की शिक्षा का विस्तार एवं विकास करने हेतु विदेशी शैक्षिक संस्थाओं के लिए द्वारा खोलने चाहिए। वैश्वीकरण के युग में इसको रोका नहीं जा सकता आदि प्रकार के विभिन्न तर्क दिये जा रहे है। यह सारे तर्क तथाकथित सभ्रांत वर्ग के द्वारा ही दिये जाते है।
अंग्रेजो के पूर्व की स्थिति:-
देश में कुछ लोगों में ऐसा भी भ्रम है कि भारत में अंग्रेजो के आने के बाद शिक्षा का विस्तार एवं विकास हुआ। ईसा से 700 वर्ष पूर्व तक्षशिला विश्विद्यालय (वर्तमान पाकिस्तान में) उच्च शिक्षा का महान केन्द्र था। इसके अतिरिक्त काषी, नालंदा, विक्रमषिला आदि विश्विद्यालय थे जिसमें विश्व भर से लोग ज्ञान प्राप्त करने आते थे यह प्रचलित एवं वैष्विक स्तर पर सर्व स्वीकार्य तथ्य है। इसी प्रकार लगभग एक हजार वर्ष के संघर्ष के बाद जब अंग्रेजों के भारत में आने के बाद ई.स. 1820 में 33 प्रतिशत साक्षरता (विश्व में सबसे अधिक) भारत में थी। प्रसिद्ध गांधीवादी विचारक धर्मपाल जी ने अपनी पुस्तक ‘‘दी ब्यूटीफूल ट्री’’ में लिखा है कि पूर्व पादरी श्री विलियम्स एडम नेे किये सर्व के अनुसार बंगाल एवं बिहार में एक लाख से ज्यादा विद्यालय थे। मद्रास प्रेसिडेन्सी में हर गांव में विद्यालय थे। 1835 के पूर्व शिक्षा का दायित्व समाज का था। पूर्व में राजा-महाराजा एवं समाज के सम्पन्न लोग शिक्षा के संचालन में अपना योगदान देते थे लेकिन शिक्षा के प्रत्यक्ष कार्य में उनका कोई हस्तक्षेप नही था। बाद के समय में ग्राम पंचायते भी शिक्षा पर ध्यान देती थी।
1835 के बाद का स्वरूपः-
अंग्रेजों के शासन में भारत की सारी व्यवस्थाएं धीरे-धीरे समाप्त कर दी गई। इस कारण से देश की आर्थिक स्थिति भी बहुत खराब हो गई। कुछ वर्षो के बाद संस्कृत के पाठषालाओं को अनुदान बंद कर दिया गया और अंग्रेजी विद्यालयों को अधिक-2 अनुदान दिया जाने लगा। छात्रों से शुल्क लेना, शिक्षकों का वेतन एवं विद्यालय चलाने हेतु अनुदान सरकार के द्वारा दिया जाने लगा। एक प्रकार से शिक्षा का सरकारीकरण शुरू हो गया।
इसके परिणामस्वरूप 1820 में 33 प्रतिशत साक्षरता थी वह 1921 में 7.2 प्रतिशत रह गई। 20 अक्टूबर 1931 को लन्दन के रॉयल इन्स्टीटयूट आफ इन्टरनेषनल अफेर्स में गांधी जी ने अपने भाषण में कहा कि पिछले 50-100 वर्षो में भारत की सारक्षरता का प्रमाण काफी नीचे गया है। उसके लिये अंग्रेज जिम्मेदार है। उस समय स्वतंत्रता के आन्दोलन के साथ-2 ‘‘राष्ट्रीय शिक्षा’’ का भी आन्दोलन चला। स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द सरस्वती, महर्षि अरविन्द्र, महात्मा गांधी, महामना मालवीय जी आदि का इसमें महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। इसके परिणामस्वरूप 1947 में साक्षरता दर 17 प्रतिशत हो गई। स्वतंत्रता के पूर्व में इस प्रकार के प्रयासों में समर्पित भाव से आर्यसमाज, सनातन धर्म सभा, भारतीय विद्या भवन आदि संस्थाओं के द्वारा बड़ी मात्रा में शैक्षिक संस्थाएं शुरू हुई। जिसका लक्ष्य पैसा प्राप्त करना कतई नहीं था। स्वतंत्रता के बाद भी इस भाव से कुछ शैक्षिक संस्थाए कार्यरत है।
स्वतंत्रता के बाद:-
समग्र शिक्षा व्यवस्था का सरकारीकरण हुआ। शैक्षिक संस्थाए या तो सीधे तोर पर सरकार चलाती थी या सरकार के अनुदान से संस्थाएं चलती थी। विद्यार्थियों का निष्चित शुल्क शिक्षकों का निष्चित वेतन एवं संस्था चलाने हेतु अनुदान जैसी व्यवस्थाए बनी।
कुछ समय के बाद सरकारी शैक्षिक संस्थाओं के स्तर में लगातार गिरावट आती गई। इस कारण से निजी विद्यालयों का आकर्षण बढ़ा शुरू में अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में वस्तुओं के रूप में दान लेना शुरू हुआ। आगे जाकर छात्र से बड़ी मात्रा में दान लेना, शिक्षकों की निुयक्ति में पैसा लेना और कम वेतन देना शुरू हुआ। विद्यालयों में शिक्षा के स्तर गिरने से ट्यूशन प्रथा प्रारम्भ हुई। क्रमशः शिक्षा का स्वरूप धन्धे जैसा बनने लगा।
1960 के दशक में दक्षिण भारत में व्यवसायी उच्च शिक्षा के संस्थान बिना सरकारी अनुदान से खुले जिसमें छात्रों के पास बड़ी मात्रा में शुल्क लिया जाने लगा। जिसको उस समय केपीटेषन फ्री कहा गया। एक प्रकार से अमीरों के बालकों हेतु शैक्षिक संस्थान। इसके विरूद्ध उन्नीकृष्णन नाम के व्यक्ति ने न्यायालय में याचिका दायर की। इसके सन्दर्भ में निर्णय देते हुए न्यायालय ने 50 प्रतिशत सीटस पर अधिक शुल्क एवं 50 प्रतिशत सीटस पर मेरीट के आधार पर सामान्य शुल्क से प्रवेश की व्यवस्था दी।
वैश्वीकरण:-
1990 के बाद दुनिया में वैश्वीकरण की हवा चली जिसको एल.पी.जी.(लीबरेलाइजेशन, प्राइवेटाईजेशन, ग्लोबलाईजेशन) भी कहा गया जिसका शिक्षा पर भी प्रभाव हुआ। सरकारें उच्च शिक्षा में अपना हाथ खीचनें लगी। शुरू में व्यवसायिक महाविद्यालय सरकार के द्वारा खुलना बंद हो गया जिसके परिणामस्वरूप स्ववित्तप्रोषित शैक्षिक संस्थान खुलने लगे। इसके कई प्रकार के स्वरूप बनने लगे डीम्ड विश्विद्यालय, स्वायत्त (आटोनोमस) महाविद्यालय, निजी विश्विद्यालय आदि। यह सब नाम अलग-2 थे लेकिन उनका सबका स्ववित्तप्रोषित संस्थान का स्वरूप था। जिस पर सरकार का किसी भी प्रकार का नियंत्रण नहीं था। छत्त्तीसगढ़ के रायपुर में कुछ ही दिनों में 120 निजी विश्विद्यालय खुल गये (वहां इतने महाविद्यालय भी नहीं थे)। डीम्ड विश्विद्यालय की संकल्पना बदल दी गई। पूर्व में किसी विषय में विशेषता प्राप्त संस्थान को डिम्ड का दर्जा दिया जाता था लेकिन बाद में किसी भी निजी शैक्षिक संस्थान को डीम्ड का दर्जा दिया जाने लगा। यह सब कार्य शासन-प्रषासन एवं शिक्षा माफियाओं की मिलीभगत से होने लगे। ‘‘मामा के घर भोजन परोसने वाली माँ’’ फिर क्या कहना? जिसका आज इस प्रकार विभत्स स्वरूप बन गया कि शिक्षा यह सब्जी मंडी का बाजार जैसे हो गई।
शिक्षा में अल्पसंख्यकवाद:-
संविधान की धारा 29,30 के तहत अल्पसंख्यक समुदाय को अपने शैक्षिक संस्थान स्थापित करने का अधिकार दिया गया है। लेकिन इस धारा का इस प्रकार से दुरू पयोग शुरू हुआ कि उनको किसी प्रकार का कानून लागू नहीं हो सकता। इसका दुरउपयोग इतने आगे बढ़ा कि जिस संस्थान में अल्पसंख्यक छात्रों की संख्या बहुत कम है, शिक्षकों की भी यही स्थिति है, प्रबंधन में भी अधिक अन्य लोग है ऐसे संस्थानों को अल्पसंख्यक दर्जा प्राप्त होने लगा। इस सन्दर्भ में कोई भी सरकार या न्यायालय भी कुछ करने के लिये तैयार नहीं है। इसके विरूद्ध देश के विभिन्न न्यायालयों में याचिकाएं दायर की गई। इन सभी याचिकाओं की उच्चतम न्यायालय में सामूहिक रूप से सुनवाई शुरू की जिसका निर्णय 30 अक्टूबर 2010 टी.एम.ए.पाई फाउण्डेषन विरूद्ध स्टेट आफ कर्णाटका एवं अर्दस के नाम से दिया गया जिसमें अल्पसंख्यक संस्थाओं के सन्दर्भ में कुछ न कहते हुए स्ववित्तप्रोषित शैक्षिक संस्थानों में 50 प्रतिशत प्रेमन्ट सीटस एवं 50 प्रतिशत फ्री सीटस की संकल्पना खारिज की गई। एक के लिये दूसरा शुल्क वहन करे यह कुदरती न्याय के विरूद्ध है इस प्रकार के तर्के दिये गये। उच्चतम न्यायालय ने इस हेतु एक नई व्यवस्था बनायी जिसमें जब तर्क केन्द्र या राज्य सरकार कोई कानून नहीं बनाते तब तक प्रत्येक राज्य में शुल्क एवं प्रवेश हेतु राज्य स्तर पर दो समिति बनायी जाए और उसके द्वारा स्ववित्तप्रोषित शैक्षिक संस्थानों की व्यवस्था चले। अभी तक मध्यप्रदेश सरकार को छोड़कर किसी भी सरकार ने कोई कानून नहीं बनाया है। विभिन्न राज्यों में स्ववित्त प्रोषित शैक्षिक संस्थानों में मनमाने तरीके से शुल्क लिया जा रहा है। उदाहरण के लिए कुछ राज्यों में इंजीनियरिंग महाविद्यालय में 30 हजार है तो कुछ राज्यों 60 से 70 हजार शुल्क है। कुछ प्रतिशत मैनेजमेंट सीट है वह भी अलग-2 राज्यों में अलग-2 है जिसमें तो कोई शुल्क तय ही नही है। इस तरह लाखों रूपये बटोरे जा रहे है। मेडिकल कॉलेज की इस प्रकार की सीटस में 25 से 50 लाख तक शुल्क लिया जा रहा है।
विदेशी विश्विद्यालय भी इस कड़ी का एक अगला कदम है। एक सांसद ने अपने मानव संसाधन विकास मंत्री से पूछा ओक्सफोर्ड, कैम्बीज आदि वैष्विक स्तर के विश्विद्यालय या उसी स्तर के प्राध्यापक भारत में पढ़ाने हेतु आने की सम्भावना है क्या? तब मंत्री जी के पास कोई उत्तर नहीं था। विदेशी विश्विद्यालय हमारे देश की शिक्षा का उद्वार करेंगे यह कैसी सोच है? और विदेशी विश्विद्यालय हेतु हम लाल जाजम बिछाने जा रहे है। देश के सरकारी, निजी, स्ववितप्रोषित सारे संस्थानों में आरक्षण लागू है लेकिन विदेशी विश्वविद्यालयों को यह लागु नहीं होगा। इस प्रकार के संस्थानों में हमारे देश की आवष्यकता के अनुसार पाठ्यक्रम कैसे होगा? उन संस्थानों में उनके देश की आवष्यकता के अनुसार पाठ्यक्रम होगा। उन संस्थानों में शुल्क संरचना भी अधिक होगी। ऐसे संस्थान बड़े-2 शहरों में ही खुलेगें और उसमें अपने सांस्कृति मूल्यों की कल्पना ही व्यर्थ होगी। बंग्लुरू के एक अन्तर्राष्ट्रीय विद्यालय मे वहां के शिक्षक ने छात्रों को बताया की परिवार व्यवस्था आपकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिये हानिकारक है। हमारे देश में आज भी विदेश, पष्चिम के नाम का आर्कषण हैं। इस कारण से ऐसे विश्वविद्यालयों में अधिक शुल्क देकर छात्र प्रवेश लेगें बाद में पछताने का समय आयेगा। वर्ष 2002 में दिल्ली में कुछ छात्र आन्दोलन कर रहे थे। वह सहयोग हेतु मुझे मुझे मिलने आये। उनका प्रष्न था कि उन्होंने रषिया में मेडिकल डिग्री प्राप्त की है लेकिन देश में उस डिग्री के आधार पर उनको नौकरी नहीं मिल रही और प्रैक्टीस करने हेतु सरकार अनुमति भी नही दे रही है। इस हेतु सरकार के द्वारा दो वर्ष का एक पाठ्यक्रम तय किया है वह अनिवार्य रूप से करने के बाद ही वह भारत में नौकरी या व्यवसाय कर सकेंगे ऐसा कानून है। इसमें से कई छात्रों ने 50 से 60 प्रतिशत अंक लेकर रषिया में अधिक पैसे देकर प्रवेश लिये थे बाद में वह यहां के छात्रों के बराबर स्तर चाह रहे थे। वह कैसे सम्भव होगा? मैने सहयोग के लिये असमर्थता बताई। एक प्रकार से स्ववित्तप्रोषित शैक्षिक संस्थानों से शिक्षा में जिस प्रकार से गिरावट आ रही है उसको और गति देने का कार्य विदेशी विश्विद्यालय से होगा।
परिणाम:-
आज अराजकता का माहौल है। शुल्क न भर सकने के कारण छात्र आत्महत्याएं कर रहे है। अभिभावक इस हेतु गलत कार्य करने को मजबूर है। एक प्रकार से व्यवसायिक उच्च-शिक्षा उच्च मध्यम वर्ग या उच्च वर्ग को छोड़कर अन्य किसी भी वर्ग के बस की बात नही रही। प्रष्न उठता है इस प्रकार के लगभग 20 प्रतिशत वर्ग को छोड़कर 80 प्रतिशत वर्ग के बच्चे प्रतिभाव नहीं है क्या? इससे देश की प्रतिभाएं भी कुठित हो रही है। इन सारी परिस्थितियों के कारण वर्तमान में शिक्षा का मात्र बजारीकरण नहीं हुआ है। एक प्रकार से अतिभ्रष्ट व्यापार हो गया है। इस प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र किस प्रकार के निर्माण होगे? और इस प्रकार के छात्र देश के विभिन्न क्षेत्रों का नेतृत्व करेंगे तब देश का चरित्र कैसा बनेगा? यह बड़ा प्रष्न है। देश में भ्रष्टाचार, अनाचार, चरित्र-हीनता बढ़ रही है उसकी चिंता करने से कुछ परिणाम नहीं होगा। जब तक शिक्षा का बाजारीकरण नहीं रूकेगा तब तक बाकी सारी गलत बातें बढ़ना स्वाभाविक है। देश की सभी समस्याओं की जड़ वर्तमान शिक्षा है।
समाधान:-
शिक्षा पर व्यय बढ़कार कम से कम सकल धरेलु उत्पाद (GDP) का 6 प्रतिशत किया जाए।
शिक्षा के व्यापारीकरण, बाजारीकरण को रोकने हेतु केन्द्र सरकार कानून बनाये।
शिक्षा में व्याप्त भ्रष्टाचार पर रोक लगे।
विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए भारत के शैक्षिक संस्थानों से भी कड़े कानून हो। उनका प्रत्ययायन एवं मूल्यांकन उस देश में तथा भारत में भी हो ।
अपने देश की विशेषकरके सरकारी शैक्षिक संस्थानों की गुणवत्ता सुधार हेतु ठोस योजना बनें।
उच्च शिक्षा विशेषकरके व्यवसायी उच्च शिक्षा को मात्र निजी भरोसे पर न छोड़ा जाए। सरकार के द्वारा भी नये शैक्षिक संस्थान शुरू करने की योजना बनें।
शिक्षा की भारतीय संकल्पना को पुनः स्थापित करने हेतु प्रयास किये जाएं।
शिक्षा मात्र सरकार का दायित्व न होकर समाज भी अपने दायित्व का निर्वाह करें।
धन्यवाद।
त्रुटियों के लिए क्षमा चाहूंगा।