भारत के आजाद होने के दो साल बाद ही पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना बना था। 50 और 60 के दशक में भारत जीडीपी और प्रति व्यक्ति आय में चीन से लगातार आगे रहा, लेकिन आज भारत की अर्थव्यवस्था दो ट्रिलियन डॉलर की है और चीन की नौ ट्रिलियन डॉलर की। देखते ही देखते शंघाई दुनिया के सबसे वैभवशाली समृद्ध शहरों में गिना जाने लगा। चीन ने 1981 से 2013 के बीच 68 करोड़ लोगों गरीबी से बाहर निकाल दिया। मानव इतिहास में इतनी तेजी से इतनी बड़ी संख्या में लोगों ने कभी गरीबी से आरामदेह जीवन यापन का सफर तय नहीं किया है।
आखिर कैसे चीन ने इतनी लंबी और ऊंची छलांग लगाई?
एक उदाहरण है, भारत की दीपावली। अब दीपावली की रात दीये नहीं जगमगाते। हर तरफ जगमग-जगमग करती बिजली की लड़ियां ही दिखती हैं। सब की सब चीन में बनी हुई। आतिशबाजी का सामान भी वहीं से आने लगा है और गणेश-लक्ष्मी की मूर्तियां भी। दीपावली के हमारे लक्ष्मी पूजन से चीन का यीवू शहर उतना ही खुशहाल होता है। इस शहर के लोग दीपावली का सामान ही नहीं बनाते, होली की पिचकारियां बनाकर भी भारत भेजते हैं। और मोबाइल निर्यात में प्रमुख भूमिका निभाई है चीन है।
यहां दुनिया का सबसे बड़ा थोक बाजार है-
करीब साढ़े सात लाख दुकानें। और तो और, इन दुकानों में सिख गुरुओं के शबद की किताबें भी मिल जाती हैं। यहां कुरान शरीफ की आयतें भी मिलती हैं और सैंटा क्लॉज भी। चीन में धंधे का एक ही फॉर्मूला है। वे कोई भी सौदा छोड़ते नहीं हैं और किसी भी सौदे में नुकसान नहीं उठाते। वे हर रेट का माल बनाते हैं। अच्छा भी और सस्ता व घटिया भी। यही वजह है कि 2011 में 40 हजार भारतीय व्यवसायी यहां आए , जबकि 2013 में तीन लाख 60 हजार। भारत ही नहीं, दुनिया भर के व्यापारी यहां पहुंच रहे हैं। भारत से यहां आने वाले व्यापारियों की संख्या इतनी ज्यादा है कि एक पूरी सड़क भारतीय रेस्तरां और होटलों से भरी हुई है। चीन ने पहले फैक्टरियां बनाईं, फिर उत्पाद को बेचने की यह व्यवस्था की। अब इंपोर्टरों को इधर-उधर जाने की जरूरत नहीं है और फैक्टरी मालिकों को भी खरीदार ढूंढ़ने की आवश्यकता नहीं है।
चीन की आर्थिक राजधानी शंघाई से लगभग 300 किलोमीटर की दूरी पर बसे यीवू शहर में भारत से बड़ी संख्या में व्यापारी आने लगे हैं। इससे कॉम्पिटीशन बढ़ा है और इन व्यापारियों का मुनाफा हाल के दिनों में कम हो गया है। लेकिन व्यापारियों की संख्या लगातार बढ़ रही है। और भारत जैसे देशों में उत्पादन कम हो रहा है। यही चीन की सोच थी। यीवू चीन के विकास की पूरी कहानी बताता है। इस कहानी की शुरुआत 1980 में तब हुई थी, जब चीन पूरी तरह साम्यवादी था। निजी संपत्ति का अधिकार किसी को नहीं था। जो था, वह स्टेट का था। लेकिन रातोंरात चीन ने इसे बदल दिया। अचानक ही ऐसी चीजें हो गईं, जिनके बारे में पहले सोचना संभव नहीं था। कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व ने इस काम को इतने अच्छे ढंग से अंजाम दिया कि किसी तरह के विरोध की कोई गुंजाइश ही नहीं थी।
चीन ने विदेशी निवेश के लिए अपने दरवाजे खोल दिए और स्पेशल इकोनॉमिक जोन बनाने का फैसला किया। ये इकोनॉमिक जोन चीन के विकास में तुरुप का पत्ता साबित हुए। भारत की तरह न तो इसका प्रस्ताव कहीं संसद या किसी संसदीय समिति में अटका और न ही इसके लिए भूमि अधिग्रहण की कोई समस्या आड़े आई। उजाड़े गए लोगों के पुनर्वास के बारे में अक्सर सोचा ही नहीं जाता। बीजिंग ओलंपिक से पहले शहर के आसपास बसे सैकड़ों गांवों को रातोंरात हटाया गया। चीन के विकास का यह दूसरा पहलू है, जिसमें विरोध और बहस की कोई गुंजाइश नहीं है। चीन की राजनीति ने विकास के आगे विरोध और बहस को दरकिनार कर दिया।
आर्थिक निवेश को विचारधारा और राजनीति के चश्मे से नहीं देखा। चीन का कोई भी स्पेशल इकोनॉमिक जोन 30,000 हेक्टेयर से छोटा नहीं है। इन विशेष आर्थिक क्षेत्रों ने दुनिया भर के उद्यमियों को अपनी ओर खींचा। यहां तक कि भारत के कई उद्योगपतियों ने वहां अपनी फैक्टरियां लगाई हैं। चीन सरकार ने अपने सबसे चर्चित बांध को बनाने का ऐलान 1994 में किया था और 4 जुलाई, 2012 को इस परियोजना से बिजली पैदा होनी शुरू हो गई। इसके लिए 13 बड़े शहर, 140 कस्बे और 1,600 गांव खाली करवा दिए गए। इसके निर्माण के दौरान पर्यावरण से जुड़े सवालों को दरकिनार कर दिया। जबकि भारत में नर्मदा बांध बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई थी 1979 में और काम पूरा हुआ 2006 में। इस दौरान बांध की उंचाई व विस्थापन के सवाल पर लगातार काम रुकता रहा।
चीन, भारत से आगे क्यों निकला?
इसके पीछे की एक वजह वहां के मजदूर भी माने जाते हैं। अर्थशास्त्री इसे ह्यूमन कैपिटल कहते हैं। 1980 में जब चीन ने आर्थिक बदलाव शुरू किए, तब वहां की साक्षरता करीब 65 फीसदी थी। इतना ही नहीं, पढ़े-लिखे होने के साथ-साथ काम में चीन की महिलाओं की भागीदारी 74 फीसदी है, जबकि भारत में यह सिर्फ 34 फीसदी है। निवशकों के लिए इससे भी बड़ी बात यह थी कि यहां न तो हड़ताल होती है और न कोई यूनियनबाजी। यह हाल उस देश में है, जहां कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार है। यहां के बहुत से श्रम कानून निवेशकों के लिए नरम हैं, तो श्रमिकों के लिए सख्त।
यहां के कानूनों के मुताबिक, एक प्रांत का मजदूर दूसरे प्रांत में बस नहीं सकता, न ही अपने परिवार को पास रख सकता है। क्या भारत जैसे खुले समाज में इसकी उम्मीद की जा सकती है? चीन में इसके अच्छे नतीजे भी मिले हैं, मानव विकास के सभी पैमानों पर चीन ने पिछले कुछ साल में काफी तरक्की की है। इन्हीं नियम-कायदों की वजह से चीन दुनिया भर की फैक्टरी बन गया है। कुछ लोग चीन और भारत की तुलना को अलग ढंग से देखते हैं। चीन में वाशिंगटन पोस्ट के ब्यूरो चीफ साइमन डेयर का कहना है कि भारत का लोकतंत्र उसकी सबसे बड़ी पूंजी है। आज नहीं तो कल लोकतंत्र के सहारे भारत चीन से आगे निकल सकता है।
बिना लोकतंत्र के आगे बढ़ रहे चीन की समस्याएं कम नहीं हैं। यहां जनता के पास बहुत सीमित आजादी है। लोग अपनी पसंद का नेतृत्व नहीं चुन सकते। निष्पक्ष न्यायपालिका जैसी कोई चीज चीन में नहीं है। चीन में प्रदूषण लगातार बढ़ा है और इसके खिलाफ आवाज भी नहीं उठाई जा सकती। लेकिन इस सबका यह मतलब भी नहीं है कि चीन से सीखने लायक कुछ भी नहीं है। अब यह हम पर है कि हम चीन से कौन से सबक लेते हैं?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
आखिर कैसे चीन ने इतनी लंबी और ऊंची छलांग लगाई?
एक उदाहरण है, भारत की दीपावली। अब दीपावली की रात दीये नहीं जगमगाते। हर तरफ जगमग-जगमग करती बिजली की लड़ियां ही दिखती हैं। सब की सब चीन में बनी हुई। आतिशबाजी का सामान भी वहीं से आने लगा है और गणेश-लक्ष्मी की मूर्तियां भी। दीपावली के हमारे लक्ष्मी पूजन से चीन का यीवू शहर उतना ही खुशहाल होता है। इस शहर के लोग दीपावली का सामान ही नहीं बनाते, होली की पिचकारियां बनाकर भी भारत भेजते हैं। और मोबाइल निर्यात में प्रमुख भूमिका निभाई है चीन है।
यहां दुनिया का सबसे बड़ा थोक बाजार है-
करीब साढ़े सात लाख दुकानें। और तो और, इन दुकानों में सिख गुरुओं के शबद की किताबें भी मिल जाती हैं। यहां कुरान शरीफ की आयतें भी मिलती हैं और सैंटा क्लॉज भी। चीन में धंधे का एक ही फॉर्मूला है। वे कोई भी सौदा छोड़ते नहीं हैं और किसी भी सौदे में नुकसान नहीं उठाते। वे हर रेट का माल बनाते हैं। अच्छा भी और सस्ता व घटिया भी। यही वजह है कि 2011 में 40 हजार भारतीय व्यवसायी यहां आए , जबकि 2013 में तीन लाख 60 हजार। भारत ही नहीं, दुनिया भर के व्यापारी यहां पहुंच रहे हैं। भारत से यहां आने वाले व्यापारियों की संख्या इतनी ज्यादा है कि एक पूरी सड़क भारतीय रेस्तरां और होटलों से भरी हुई है। चीन ने पहले फैक्टरियां बनाईं, फिर उत्पाद को बेचने की यह व्यवस्था की। अब इंपोर्टरों को इधर-उधर जाने की जरूरत नहीं है और फैक्टरी मालिकों को भी खरीदार ढूंढ़ने की आवश्यकता नहीं है।
चीन की आर्थिक राजधानी शंघाई से लगभग 300 किलोमीटर की दूरी पर बसे यीवू शहर में भारत से बड़ी संख्या में व्यापारी आने लगे हैं। इससे कॉम्पिटीशन बढ़ा है और इन व्यापारियों का मुनाफा हाल के दिनों में कम हो गया है। लेकिन व्यापारियों की संख्या लगातार बढ़ रही है। और भारत जैसे देशों में उत्पादन कम हो रहा है। यही चीन की सोच थी। यीवू चीन के विकास की पूरी कहानी बताता है। इस कहानी की शुरुआत 1980 में तब हुई थी, जब चीन पूरी तरह साम्यवादी था। निजी संपत्ति का अधिकार किसी को नहीं था। जो था, वह स्टेट का था। लेकिन रातोंरात चीन ने इसे बदल दिया। अचानक ही ऐसी चीजें हो गईं, जिनके बारे में पहले सोचना संभव नहीं था। कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व ने इस काम को इतने अच्छे ढंग से अंजाम दिया कि किसी तरह के विरोध की कोई गुंजाइश ही नहीं थी।
चीन ने विदेशी निवेश के लिए अपने दरवाजे खोल दिए और स्पेशल इकोनॉमिक जोन बनाने का फैसला किया। ये इकोनॉमिक जोन चीन के विकास में तुरुप का पत्ता साबित हुए। भारत की तरह न तो इसका प्रस्ताव कहीं संसद या किसी संसदीय समिति में अटका और न ही इसके लिए भूमि अधिग्रहण की कोई समस्या आड़े आई। उजाड़े गए लोगों के पुनर्वास के बारे में अक्सर सोचा ही नहीं जाता। बीजिंग ओलंपिक से पहले शहर के आसपास बसे सैकड़ों गांवों को रातोंरात हटाया गया। चीन के विकास का यह दूसरा पहलू है, जिसमें विरोध और बहस की कोई गुंजाइश नहीं है। चीन की राजनीति ने विकास के आगे विरोध और बहस को दरकिनार कर दिया।
आर्थिक निवेश को विचारधारा और राजनीति के चश्मे से नहीं देखा। चीन का कोई भी स्पेशल इकोनॉमिक जोन 30,000 हेक्टेयर से छोटा नहीं है। इन विशेष आर्थिक क्षेत्रों ने दुनिया भर के उद्यमियों को अपनी ओर खींचा। यहां तक कि भारत के कई उद्योगपतियों ने वहां अपनी फैक्टरियां लगाई हैं। चीन सरकार ने अपने सबसे चर्चित बांध को बनाने का ऐलान 1994 में किया था और 4 जुलाई, 2012 को इस परियोजना से बिजली पैदा होनी शुरू हो गई। इसके लिए 13 बड़े शहर, 140 कस्बे और 1,600 गांव खाली करवा दिए गए। इसके निर्माण के दौरान पर्यावरण से जुड़े सवालों को दरकिनार कर दिया। जबकि भारत में नर्मदा बांध बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई थी 1979 में और काम पूरा हुआ 2006 में। इस दौरान बांध की उंचाई व विस्थापन के सवाल पर लगातार काम रुकता रहा।
चीन, भारत से आगे क्यों निकला?
इसके पीछे की एक वजह वहां के मजदूर भी माने जाते हैं। अर्थशास्त्री इसे ह्यूमन कैपिटल कहते हैं। 1980 में जब चीन ने आर्थिक बदलाव शुरू किए, तब वहां की साक्षरता करीब 65 फीसदी थी। इतना ही नहीं, पढ़े-लिखे होने के साथ-साथ काम में चीन की महिलाओं की भागीदारी 74 फीसदी है, जबकि भारत में यह सिर्फ 34 फीसदी है। निवशकों के लिए इससे भी बड़ी बात यह थी कि यहां न तो हड़ताल होती है और न कोई यूनियनबाजी। यह हाल उस देश में है, जहां कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार है। यहां के बहुत से श्रम कानून निवेशकों के लिए नरम हैं, तो श्रमिकों के लिए सख्त।
यहां के कानूनों के मुताबिक, एक प्रांत का मजदूर दूसरे प्रांत में बस नहीं सकता, न ही अपने परिवार को पास रख सकता है। क्या भारत जैसे खुले समाज में इसकी उम्मीद की जा सकती है? चीन में इसके अच्छे नतीजे भी मिले हैं, मानव विकास के सभी पैमानों पर चीन ने पिछले कुछ साल में काफी तरक्की की है। इन्हीं नियम-कायदों की वजह से चीन दुनिया भर की फैक्टरी बन गया है। कुछ लोग चीन और भारत की तुलना को अलग ढंग से देखते हैं। चीन में वाशिंगटन पोस्ट के ब्यूरो चीफ साइमन डेयर का कहना है कि भारत का लोकतंत्र उसकी सबसे बड़ी पूंजी है। आज नहीं तो कल लोकतंत्र के सहारे भारत चीन से आगे निकल सकता है।
बिना लोकतंत्र के आगे बढ़ रहे चीन की समस्याएं कम नहीं हैं। यहां जनता के पास बहुत सीमित आजादी है। लोग अपनी पसंद का नेतृत्व नहीं चुन सकते। निष्पक्ष न्यायपालिका जैसी कोई चीज चीन में नहीं है। चीन में प्रदूषण लगातार बढ़ा है और इसके खिलाफ आवाज भी नहीं उठाई जा सकती। लेकिन इस सबका यह मतलब भी नहीं है कि चीन से सीखने लायक कुछ भी नहीं है। अब यह हम पर है कि हम चीन से कौन से सबक लेते हैं?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)