अंग्रेजों ने हमें पढ़ाया कि
आर्य विदेश से आए और द्रविड़ो को उन्होंने खदेड़ा।
अंग्रेजों ने यह इसलिए पढ़ाया की
आर्य (हम) भी भारत में आक्रमणकारी बनकर आए थे तो फिर हमें अंग्रेजों को विदेशी एवं आक्रामक कहने का क्या अधिकार है।
भारत की संस्कृति, धर्म, परम्पराएं श्रेष्ठ हैं। पश्चिम की एक लॉबी व भारत की एक विचार धारा के लोगों को यह सहन नहीं होता।
यदि आज हमारे विद्यार्थियों को अगर पूछा जाये!
कि भारत का प्रथम तथा अंतिम अंग्रेज वायसराय कौन था? प्रथम व अंतिम मुगल शासक कौन था?
आदि प्रश्नों के उत्तर वह सही बता सकते है लेकिन
वे 4 वेदों के नाम नहीं बता पाते।
जैन धर्म मानने वाले बालकों को उनके 24 तीर्थंकरों के नाम बोलने को कहा जाए तो वह उत्तर नहीं दे सकते है।
क्योंकि यह सारी बाते पाठ्य पुस्तकों में नहीं है। यह भारतीय स्वाभिमान को समाप्त करने का षड़यन्त्र हैं। जब बालकों के मन में यह आ जाएगा कि हमारे देशवासी, असंस्कारी, अशिक्षित थे। हमारे देवी-देवताएँ भी ऐसे ही थे तो देश के बारे में वह गर्व कैसे करेंगे। अपने यहाँ यदि वैदिक गणित की बात की जाए तो साम्प्रदायिकता के नाम पर बदनाम किया जाता है। लेकिन जब अपने यहां से ये पुस्तकें विदेश पहुँची और एक विदेशी ने भारत में इनका प्रस्तुतीकरण किया तब अपने देश में इस पर अधिक कार्य शुरू हुआ। अपने यहां साधारण धारणा है कि पश्चिम का जो भी है वह श्रेष्ठ है।
डॉ. कलाम जी ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि उनके घर में एक कलैण्डर लगा था। यह जर्मनी में छपा था। सभी देखने वाले जर्मनी की प्रशंसा करते हुए कहते थे कि चित्र बहुत ही सुन्दर है। कलाम साहब कहते थे कि नीचे छोटे अक्षरों में लिखा है, यह भी पढ़ो। वह पढ़ने पर लोग कहते है कि क्या यह भारतीय के द्वारा लिए गए चित्र है? इसी प्रकार आज अपने देश में अंग्रेजी में बोलने वाले को विद्वान माना जाता है। अपनी भाषा में बोलने वाले को हेय दृष्टि से देखा जाता है।
अपने पालक को माता-पिता कहने पर पुरानी विचारधारा का माना जाता है। मम्मी-पापा कहने पर आधुनिक माना जाता है। मॉम-डेड कहने पर और आधुनिक माना जाता है। आज वैदिक गणित को दुनिया स्वीकार कर रही है। बच्चों को वैदिक गणित की विधि से पढ़ाया जाए तो उनको गणित बोझ नहीं लगेगा और वे प्रसन्नता से गणित के प्रश्नों को हल करेंगे। जर्मनी, इंग्लैण्ड आदि देशों में इस विषय पर अधिक कार्य हो रहा है। अपने यहां के कुछ विद्वान कहते हैं- इसका नाम वैदिक गणित क्यों रखा है? हमारे देश में प्रत्येक बात विवाद से प्रारम्भ होती है। हम विवाद करते रहे, अमेरिका के एक सज्जन ने तो वैदिक गणित की एक विद्या पर पेटेन्ट के लिए आवेदन कर दिया है। इसलिए बोर्ड पर गलत बाते लिखी है उसको मात्र हटाने से नही चलेगा। उस पर अच्छी बाते लिखने हेतु हमें इस दिशा में ठोस कार्य करना होगा। केवल भारतीय शिक्षा बालेने पर शिक्षा भारतीय नहीं होगी। हमारे यहां शिक्षा के मूलभूत सिद्वांत तो शावत सत्य है। लेकिन आधुनिक आवश्यकता के अनुसार एक नई व्यवस्था देनी होगी।
देश में 2 वर्ष पूर्व यौन शिक्षा थोपने का प्रयास केन्द्र सरकार के द्वारा किया गया। यह देश की संस्कृति के प्रति भयानक षडयंत्र थे। अपने द्वारा इसके विरूद्ध देशव्यापी आन्दोलन चला। देश की कई संस्थाएं इसमें जुड़ी सबके प्रयास के परिणाम स्वरुप इस पर रोक लगी। इसको लागू करने हेतु तर्क यह दिया गया की देश में एड्स बहुत फैल रहा है। सरकार के पास एड्स के नाम से विदेशों से पैसा आता है। इसका केवल 10 प्रतिशत ही उपयोग होता है। शेष का उपयोग क्या होता है प्रश्न है?। अतः सरकारी अधिकारी इस तरह के कार्यक्रमों के प्रति उत्साहित रहते हैं। यौन शिक्षा पर देशव्यापी चर्चा हो इस हेतु अपने द्वारा राज्यसभा की याचिका समिति (पेटिशन कमेटी) को याचिका दी गई। जिसको स्वीकार करते हुए समिति ने देशभर में सुनवाई की जिसमें उनको 40 हजार से अधिक ज्ञापन प्राप्त हुए। उसमें से 90 प्रतिशत यौन शिक्षा के विरूद्ध थे। समिति ने डेढ़ वर्ष कार्य करके राज्यसभा के सभापति को रिपोर्ट सौपा। उन्होंने हस्ताक्षर करके राज्यसभा में प्रस्तुत भी किया। जिसमें सुझाव था कि यौन शिक्षा के बदले ‘‘चरित्र निर्माण एवं व्यक्तित्व विकास’’ की शिक्षा देनी चाहिए।
शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन बड़ा विषय है। इस हेतु अपने-2 विषय में भारतीय दृष्टिकोण क्या है? इस दिशा में अधिक चिन्तन करना होगा। परिवर्तन के लिए स्वयं से शुरुआत करने की आवश्यकता है। साधारण बातचीत में हम अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग करते हैं। भाषा की लड़ाई लम्बी है। लड़ाई की शुरुआत अपने से करनी होगी। हमें अपने हस्ताक्षर मातृभाषा हिन्दी में करने चाहिए। आजकल इण्डिया शब्द अधिक प्रचलित है। नाम का अनुवाद नहीं होता। अंग्रेजी में बोलना या लिखना हमारी मजबूरी हो सकती है। लेकिन अंग्रेजी में भी भारत ही लिखें व बोलें। परिवर्तन छोटी-छोटी बातों से ही होता है।
शिक्षा में परिवर्तन यह ईश्वरीय कार्य है। यदि देश का पुनः उत्थान करना है, इसे जगदगुरु बनाना है तो प्रथम शिक्षा में परिवर्तन आवश्यक है। मैकाॅले को मालूम था कि शिक्षा को बदले बिना भारत में शासन करना कठिन है। इसलिए उसने सबसे पहले शिक्षा को बदला, उसकी भाषा को बदला। संस्कृत के स्थान पर अंगे्रजी विद्यालय खोले। उसने अपने पिता को पत्र लिखा कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था को बदलने पर उन्हें अत्यन्त खुशी है। लेकिन सही सफलता तब मानी जायेगी कि जब हम यहां नहीं रहेंगे परन्तु शिक्षा व्यवस्था चलती रहेगी। उस शिक्षा प्राप्त, दिखने मै तो भारतीय होंगे लेकिन आचार, व्यवहार, विचार से अभारतीय होगें। वर्तमान में शिक्षा में परिवर्तन यह प्रथम आवश्यकता है। शिक्षक के रूप में हमारा दायित्व इस परिवर्तन के लिए अधिक है। हम शिक्षा में परिवर्तन की दिशा में चिन्तन, विचार करे यही आपसे प्रार्थना।
देश की शिक्षा में नये विकल्प हेतु योजना एवं प्रयास करना चाहिए।