बुरा जो देखन मैं चला, बुरा ना मिलया कोय !
जो दिल खोजा आपना, मुझसा बुरा ना कोय !!
यह मनुष्य की प्रवृत्ति है कि वह स्वयं को छोड़ संसार के प्रत्येक जीव पर वस्तुओं में बुराई खोजता रहता है| यदि वह खुद के भीतर बुराइयाँ खोजने का प्रयास करे तो यह संसार उसके लिए सुखद बन जाए|बुराई का कोई अंत नहीं है, मानो तो यह कण-कण में विद्यमान है और न मानो तो कहीं भी नहीं, सिवाए एक भ्रम के|
एक संत अपने शिष्यो के साथ जा रहे थे| रास्ते मे एक शराबी मिला| वह झूमते हुए संत के पास आकर खड़ा हो गया और बोला – “आप सभी को उपदेश देते हैं कि शराब मत पियो, ये बुरी चीज़ है| लेकिन आप अन्न और फल को बुरा नहीं कहते| अगर ये अच्छे हैं तो इन्हीं से बनने वाली शराब कैसे बुरी हो सकती है?” शिष्य हैरत से देखने लगे की संत इस बात का क्या जवाब देंगे| संत ने मुस्कराकर कहा- “अगर कोई तुमपर एक गिलास में पानी भरके फेंक के मारे तो क्या तुम्हें चोट लगेगी?” शराबी ने कहा- “नहीं, बिलकुल भी नहीं|” संत ने कहा- “अगर कोई थोड़ी सी मिट्टी उठाकर तुम्हें मारे तो क्या तुम घायल हो जाओगे?” शराबी ने फिर सर हिलाते हुए कहा- नहीं, नहीं|” संत ने आगे पूछा –“अब अगर कोई उसी मिट्टी और पानी को मिलाकर तुमपर फेंके तो क्या तुम्हें चोट लगेगी?” शराबी ने कहा- “हाँ! उससे तो मैं घायल हो सकता हूँ|” संत ने समझाते हुए कहा- “इसी तरह अंगूर और चावल अपने आप में बुरे नहीं हैं लेकिन यदि इन्हें मिलाकर सड़ा दिया जाए और शराब बनाकर सेवन किया जाए तो ये चीज़ें भी मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो बन जातीं हैं|” संत की इस बात का शराबी पर गहरा असर
पड़ा और उस दिन से उसने शराब छोड़ दी|
इस कहनी से दो बातें सीखने को मिलती हैं- एक तो यह कि शराब बुरी चीज़ है और दूसरी यह कि हम इंसान हर किसी में बुराई ही खोजते रहते हैं और उन्हीं का ढिंढोरा पीटते रहते हैं जबकि उसके बेहतर पक्ष भी हैं| हमें दोनों पहलुओं पर विचार करना चाहिए और बुराई को दरकिनार करके उसकी अच्छाइयों पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए|