बाजारीकरण के चंगुल में फंसी शिक्षा


आज के संदर्भ में हमारा व्यवहार और आचरण ही हमारी शिक्षा और परवरिश का आधार तय करता है। शिक्षा एक माध्यम है जो जीवन को एक नई विचारधारा प्रदान करता है। यदि शिक्षा का उद्देश्य सही दिशा में हो तो आज का युवा मात्र सामाजिक रूप से ही नहीं बल्कि वैचारिक रूप से भी स्वतंत्र और देश का कर्णधार बन सकता है।

मैकाले की संस्कार विहीन शिक्षा प्रणाली ने हमारी भावी पीढिय़ों को अंग्रेजी का खोखला शाब्दिक ज्ञान देकर अंग्रेजों के लिए कर्मचारी तो तैयार किए परन्तु हमें हमारी पुरातन दैनिक संस्कृति मान्यताओं से पूरी तरह काटकर खोखला कर दिया। यही कारण था कि इस शिक्षा प्रणाली से निकले छात्र अपनी संस्कृति की जड़ों से कटकर रह गए। शिक्षा के बिना विद्यार्थी का सर्वांगीण विकास संभव नहीं है।

प्राचीन समय में छात्र गुरुकुल में रहकर शिक्षा ग्रहण करते थे। वहां गुरु छात्र को संस्कारित बनाता था लेकिन आधुनिक जीवन में लोगों के पास शायद विकल्प कम रह गए हैं और ये कोचिंग संस्थान इसी का फायदा उठाते हैं। शिक्षा को व्यवसाय बनाकर  उसका बाजारीकरण किया जा रहा है। निजी कोचिंग सैंटर हर गली, मोहल्ले और सोसायटी में सभी को झूठे प्रलोभन देकर अपने जाल में फंसा रहे हैं और खुल्लम-खुल्ला शिक्षा  के नाम पर सौदेबाजी कर रहे हैं। मजबूर और असहाय अभिभावक विकल्प खोजते-खोजते उनकी चिकनी-चुपड़ी बातों में फंस जाते हैं जिसका निजी संस्थान भरपूर लाभ उठा रहे हैं।

कई तो ऐसे पूंजीपति लोग देखने में आते हैं जिनका शिक्षा से कोसों तक कोई नाता नहीं होता लेकिन उन्होंने अपने धन और ऐश्वर्य के बल पर इन विद्या मंदिरों को सिर्फ और सिर्फ पैसा कमाने का साधन बना डाला है। आज यह शिक्षा का व्यापारीकरण नहीं तो और क्या है? कई बार तो जहन में यह भी सवाल उठता है कि आखिरकार इसका उत्तरदायी कौन है? हम स्वयं, सरकार या हमारी शिक्षण पद्धति। इस बात का उत्तर शायद किसी के पास नहीं है।

शिक्षा के बाजारीकरण का अर्थ है शिक्षा को बाजार में बेचने-खरीदने की वस्तु में बदल देना अर्थात शिक्षा आज समाज में मात्र एक वस्तु बन कर रह गई है और स्कूलों को मुनाफे की दृष्टि से चलाने वाले दुकानदार बन चुके हैं तथा इस प्रकार की दुकानें ही छात्रों के भविष्य को बर्बाद कर रही हैं। अभिभावक भी शिक्षा की इन दुकानों की चकाचौंध को देख कर उनमें फंसते जा रहे हैं परन्तु अंत में जब तक अभिभावकों को इन दुकानों की वास्तविकता का पता चलता है तब तक वे अपना धन और समय गंवा चुके होते हैं।

इन सभी कारकों के परिणामस्वरूप शिक्षा का स्तर भी निम्र होता जा रहा है। स्कूलों में बच्चों की गुणवत्ता की अपेक्षा बच्चों की संख्या पर विशेष ध्यान दिया जाता है जोकि सर्वथा अनुचित है। नए शैक्षिक सत्र के आरंभ में भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रलोभन देकर स्कूल प्रशासक अभिभावकों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं लेकिन कुछ समय के पश्चात जब वास्तविकता सामने आती है तो वे मजबूरन कुछ नहीं कर सकते और अपने बच्चों के लिए स्कूल प्रशासन की उचित-अनुचित मांगों को पूरा करने के लिए बाध्य हो जाते हैं।

कई बार देखने में आया है कि प्रतिस्पर्धा या ईष्र्या के कारण भी निजी स्कूल अपनी गुणवत्ता का प्रदर्शन करते हैं और इसके लिए सभी उचित-अनुचित तरीकों को अपनाते हैं जोकि सर्वथा अनुचित है। ये संस्थाएं शिक्षा की गुणवत्ता को नजरअंदाज कर देती हैं। इनका मुख्य उद्देश्य होता है धन अर्जन करना, चाहे वह कमाई पुस्तकों के माध्यम से हो या यूनीफार्म के द्वारा हो, यहां तक कि ये अध्यापकों का शोषण करने से भी नहीं चूकते।

एक अच्छा तथा सुशिक्षित अध्यापक भी बेरोजगारी के डर से सात-आठ हजार में नौकरी करने को तैयार हो जाता है लेकिन वह इतने कम वेतन का हकदार नहीं होता। इस संबंध में आम जनता को जागरूक होकर अपने अधिकारों के लिए लडऩा होगा तथा शिक्षा के ऐसे ठेकेदारों से बचना होगा।

आज यह बिल्कुल सत्य है कि शिक्षा के गिरते स्तर के कारण किसी भी तरह की परीक्षा पास करना और प्रमाण पत्र हासिल करना ही शिक्षा का मुख्य उद्देश्य मान लिया गया है, फिर वह प्रमाण पत्र छल-कपट, बेईमानी या रिश्वत आदि अनैतिक तरीकों से ही क्यों न हासिल किया हो। मनुष्य जीवन का विकास उत्तम शिक्षा से संभव है वह शिक्षा जो उसे स्वविवेक, बौद्धिक जागृति और रचनात्मक दृष्टिकोण की स्पष्टता दे सके।

आज शिक्षा की आड़ में पैसा कमाना ही मूल उद्देश्य बन कर रह गया है। महंगाई और बाजारीकरण के मौजूदा दौर में छात्र इस असमंजस में फंसा हुआ है कि वह कमाने के लिए पढ़े या पढऩे के लिए कमाए। बाजारीकरण की दीमक पूरी शिक्षा व्यवस्था को खोखला करती जा रही है। आज आवश्यकता है कि इस विषय में सरकार कुछ ठोस कदम उठाए तथा शैक्षिक संस्थानों में प्रवेश की प्रक्रिया में अधिक से अधिक पारदॢशता लाने का प्रयास करे क्योंकि किसी भी राष्ट्र का विकास तभी संभव हो सकता है जब वहां की अधिकतम जनसंख्या शिक्षित और अपने कत्र्तव्यों के प्रति जागरूक हो।

यह वही भारत है जो अपनी संस्कृति के कारण विश्व भर में विख्यात है और जहां दूसरे देशों से भी विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने आते हैं लेकिन भारतीय संस्कृति की पहचान हमारी शिक्षा का नैतिक मूल्य स्तर दिन-प्रतिदिन कम होता जा रहा है।
ऐसे समय में आवश्यकता है उचित मार्गदर्शन और सही निर्देशन की जोकि एक जिम्मेदार और कुशल शिक्षक ही दे सकता है। शिक्षक का दृष्टिकोण संकुचित न होकर व्यापक होना चाहिए जो विद्यार्थियों को शिक्षा के वास्तविक आयामों से परिचित करवा उचित ज्ञान से सम्पन्न बना सके।

एक श्रेष्ठ अध्यापक वही है जो बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ न करे तथा जिसका उद्देश्य मात्र धन अर्जन करना नहीं अपितु ज्ञान का प्रकाश चारों ओर फैला कर मानव मात्र की सेवा करना हो तभी हम राम-राज्य जैसे सु समाज की कल्पना कर सकते हैं।

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