मैं मानता हूँ और वहस जरुरी है , इससे ही सही दिशा तय किया जा सकता है ।
उदारवादी सभ्यता और संस्कृति का परिचायक सिर्फ भारत ही है। लेकिन गहराई में जाने के वजाय कट्टरवाद कह देना बिना सर - पैर वालो का द्योतक है।
अगर वेद विज्ञान नहीं है तो -------------
क्या इसे सिद्ध किया जा सकता है ?
भूमध्यरेखा, कर्करेखा , अक्षांश और देशान्तर रेखा क्या वास्तविक रेखा है ? आकाश में यही ध्रुब तारा है ! क्या प्रमाण है ?
प्रकाश सीधे दिशा में गमन करता है --मार्ग में बाधा उत्पन्न होने के बाद भी सीधे गमन करता है ?
कांच या मिटटी या ताम्बा या लोहा के पात्र में --XX -- YY का संयोग करवाया जाय तो जीव पैदा हो सकता है ?
अगर पृथ्वी की घूर्णन गति बंद हो जाय तो वैज्ञानिक गति दे सकता है ?
0 + 0 = 0 तो 1 + 1 = 1 क्यों नहीं , गणित सिर्फ कल्पना पर आधारित है ।
वेद मानसिक तर्क -वितर्क पैदा करता है , वेद का आधार सिर्फ हिरण्यगर्भ (जिसे विज्ञान एक अदृश्य कण मान रहा है , जो जलीय कण है , इस पर वेद विज्ञान का संयोग हो रहा है या नहीं ) है यह सभी उत्पत्तियों का कारण है।
वेद में यही मान्य है जिसे पर- ब्रह्म (यही विंदु है जो वेद में प्रमाणित है लेकिन विज्ञान में नहीं ) कहा गया है। इसके बाद सृष्टि की रचना हुई है।
वेद कभी भी काल्पनिकता पर आधारित नहीं है ----उसमे अदृश्य शक्ति की प्रार्थना नहीं है जो सर्वविदित है। स्पष्ट है।
विज्ञान ने -----पानी का रसायनिक खंडन किया ( ऑक्सीजन + हाइड्रोजन ) लेकिन वेद पानी को ब्रह्म की उत्पति से जोड़ दिया है।
विज्ञान हिरण्यगर्भ को एक अदृश्य विंदु मानकर - कल्पना को मूर्तिरूप देता है।
विज्ञान का आधार वेद है इसलिए वेद विज्ञान है।
घर्षण से आग पैदा होता है। आग पर ही जीवन है । वेद यह सिद्ध कर दिया। लेकिन आग का काम और जीवन के संबधो का विश्लेषण वैज्ञानिक ने किया है।
वैज्ञानिक ने घर्षण में मौजूद तत्वों का विश्लेषण किया है । प्रमाणित करने की कोशिश की है। परमाणु और अणु के बाद विज्ञान गौण है।
विज्ञान का आधार वेद है , इसलिए वेद विज्ञान है।
यह ऋचाएं स्पष्ट है और अखण्डनीय है और रहेगा।
ब्रह्म देवां अनुक्षियति ब्रह्म देवजनिर्विश:. ब्रह्मो दमन्यन्न क्षत्रं ब्रह्म सत क्षत्रमुच्यते।
अर्थ - ब्रह्म ही शौर्यहीन (क्षात्र बलहीन ) और ब्रह्म ही शौर्ययुक्त (क्षात्रबल वाला ) है। ब्रह्म की दिव्य -सम्पन्नता से प्रजाजनों के अनुकूल रहा जा सकता है। ब्रह्म द्वारा ही प्रेरित होकर मनुष्य देवताओ की अनुकूलता में रह पा है।
ब्रह्मणा भूमिरविहिता ब्रह्म द्यौरुत्तरा हिता। ब्रह्मोदमूर्ध्व तिर्यक् चान्तरिक्षं व्यचो हितम्।।
अर्थ - ब्रह्मा ने ही स्वर्ग को ऊपर और अंतरिक्ष को तिरक्षा व्याप्त किया है , तथा उसी ने भूमि को भी स्थित किया है।
उर्ध्वो नु सृष्टास्तिर्यग्णु सृष्टा: सर्वा डिश: पुरुष आ बभावां। पुरं यो ब्राह्मणो वेद यस्या : पुरुष उच्यते।
अर्थ - जो पुरुष ब्रह्म की नगरी का जाननेवाला है , उसे ही पुरुष कहा गया है , वह उर्ध्वतिर्यक् आदि समस्त दिशाओं में प्रकट हो जाता है और अपने प्रभाव को भी उजागर करता है।
ब्रह्म श्रोत्रियमाप्नोति ब्रह्मोमम परमेष्ठिनम। ब्रह्ममग्निम पुरुषों ब्रह्म संवत्सरं मेम।
अर्थ - यह ब्रह्म ही संवत्सर काल का मापन कर रहा है , तथा ब्रह्म ही श्रोत्रिय , परमेष्ठी प्रजापति और अग्नि को व्याप्त करने वाला है।
(पृष्ठ संख्या -542 -543 अथर्ववेद भाग - 1 ) ध्यान के चौथे चरण की स्थितियां :
इस स्थिति में जिस देवता का ध्यान कर रहे होते है उनका क्षणिक समय के लिए ' छाया वृत्त नजरों पर मंडराने लगेगा । एक फिल्म की तरह घुमने लगेगा। इस अवस्था में वह क्षण भी स्मंरण पटल पर आने लगेगा जिसे बाल काल में किया गया है। इस काल में जीवन में घटित घटनाये सामने में दिखेगा। इसी अवस्था के द्वितीय चरण में - प्रथम चरण की समाप्ति पर --- एक दम मीठी सुरीली आवाज कान में सुनाई पड़ेगी। ध्यान भंग हो जाएगा।
इस अवस्था के बाद क्या होता है इसके लिए हमें और इंतिजार करना पड़ेगा क्योंकि यह मुझे भी मालूम नहीं ----- --अगर आपके पास इसका अनुभव हो तो साझा करे ----- वास्तविकता पर पहुंचे ,क्योंकि सिर्फ ध्यान मार्ग से अकल्पनीय अदृश्य शक्ति को सिद्ध किया जा सकता है , और हमें ऐसे ही गुरुओं की खोज है।।।