नीचाई नहीं, ऊँचाई की ओर बढ़ो, आगे बढ़ो, ऊँचे उठो


धनुर्धारी अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से प्रश्न किया- "अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुष:। अनिच्छन्नपि वारष्णेय बलादिव नियोजितः"।। वास्तव में यह प्रश्न बड़ा महत्वपूर्ण है। अर्जुन 'केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुष:' कहकर यही सवाल प्रभु से पूछते हैं कि इस सृष्टि में परमात्मा की सबसे महत्वपूर्ण रचना 'मनुष्य' किससे प्रेरणा पाकर पाप करने के लिए चल पड़ता है। 'अनिच्छन्नपि वारष्णेय' कहकर वह भगवान से कहते हैं कि हे वारष्णेय! न चाहते हुये भी उसके द्वारा पाप हो जाता है, ऐसा क्यों? मनुष्य जानता है कि यह मार्ग गलत है, लेकिन फिर भी उस पर चल पड़ता है।

व्यक्ति को पता है कि उसे क्रोध नहीं करना चाहिये और क्रोध उसके लिए हानिकारक है, लेकिन तब भी वह कर बैठता है। हम मानते हैं कि किसी को सताना ठीक बात नहीं, लेकिन फिर भी व्यवहार में यह बात नहीं उतरती। क्यों होता है ऐसा? ब़ड़ा मार्मिक प्रश्न है और बहुत ही सटीक, महत्वपूर्ण प्रश्न है। अर्जुन 'बलादिव नियोजितः' कहकर यहाँ तक कहता है कि जैसे बलपूर्वक किसी को खींचा जाता है, वैसे ही इन्सान उस बुराई की ओर चल पड़ता है। क्या कोई ऐसी शक्ति है जो मनुष्य को जबरदस्ती लेकर उस ओर जाती है? इस बात को मैं आपको ऐसे समझाऊँ, एक व्यक्ति चला था घर से बाजार को सामान लाने के लिए, मार्ग में किसी का झग़ड़ा देखा और चल पड़ा उसे सुलझाने के लिए। सुलझाते-सुलझाते खुद ही उसमें उलझ गया। जिसका झगड़ा था, वह तो चला गया, वह झगड़ा ख़ुद ने सिर पर मोल ले लिया। उसका झगड़ा तो हल्का था, इस आदमी का झगड़ा इतना भारी हो गया कि मुकदमे तक बात पहुँच गयी, सिर फूट गये, हाथ टूट गये। नीयत तो ऐसी नहीं थी ना? फिर बात क्या हो गयी? ऐसा कैसे हो गया?

अर्जुन के प्रश्न का बड़ा माक़ूल जवाब भगवान कृष्ण ने दिया। कहा-"काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः। महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्।।’’ भगवान कृष्ण कहते हैं कि ये काम व क्रोध जो रजोगुण से उत्पन्न होता है..., अर्जुन! इसको जानो। ये मनुष्य के बैरी हैं। महाशनो! ये बड़े भूखे और बहुत कुछ खा जाने वाले हैं। यह अवगुण मनुष्य के व्यक्तित्व को खा जाते हैं। पाप्मा और पाप्मा के आगे महा शब्द लगाकर श्रीकृष्ण ने काम व क्रोध को महापापी कह दिया। वह बोले- ये आदमी को पाप की ओर ढकेलने वाले हैं। रजोगुण के कारण काम और क्रोध उत्पन्न होते हैं। मित्रों! भगवान ने इन्हें बैरी क्यों कहा? क्योंकि ये अवगुण व्यक्ति के व्यक्तित्व को खा जाते हैं। काम और क्रोध को तृप्त नहीं किया जा सकता। क्रोध से क्रोध बढ़ता है और वासनाओं से वासनायें। इनका कोई अन्त नहीं। शरीर और इन्द्रियॉं शिथिल हो सकती हैं लेकिन मन की वासनायें शिथिल नहीं होतीं।

मित्रों! योग विद्या से बच्चों की आयु का भाग लेकर ययाति 300 साल तक जिया। संसार के समस्त भोग भोगे, वह संसार में खूब रमा। जीवन के अन्त में उसने निचोड़ लिखा, 300 सालों का निचोड़। उसने कहा कि मेरी जिंदगी का सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण तर्जुबा यह है कि ’न जातो कामः’ काम जो है ’उपभोगेन न शम्यति’ इसका भोग करते हुये इसका शमन नहीं किया जा सकता। वासनाओं की, भोगों की तृप्ति के लिए उनमें उतरते चले जाओगे, कभी भी तृप्ति नहीं होगी। भड़कती हुई अग्नि के ऊपर ईंधन डालने से कभी भी आग बुझेगी नहीं, बल्कि और भड़केगी। मैंने 300 सालों तक जीकर देखा, मन नहीं थका, और वीभत्स होता चला गया, भयंकर होता चला गया।

इसलिए मैं कहता हूँ कि निरन्तर आत्म-अवलोकन करो और हर क्षण, हर पल ऊँचाइयों की ओर बढ़ो। आगे बढ़ो, ऊँचे उठो।

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