राजनीति एक व्यवसाय बन गया है



ठीक उपरोक्त चित्र की तरत ही आज की राजनैतिक स्थिति है कि जब तक नेताओं का पेट नहीं भर जाता है तब तक बजट का पैसा आगे नहीं जाने पाता है।।


राजनेताओं का वेतन बढ़ते ही जा रहा है। यह विडम्बना ही है कि देश-सेवा के नाम पर राजनीति में प्रवेश करने वालों की आज तक कोई योग्यता तय नहीं की गई है। मात्र पंच-सरपंचों और सी आर, डीआर की योग्यता जरूर तय की गई है, वह भी गत विधान सभा चुनावों से ही।  सोचने वाली बात है कि इस देष के पढ़े-लिखे युवा को नौकरी मिलती है तो उसकी हर प्रकार की योग्यता परखी जाती है, उस पर कई तरह की पाबन्दी होती है, प्रोबेशन पीरियड होता है और न्यूनतम वेतन मिलता है। उसी का न पढऩे वाला और राजनीतिक दलों से सांठ-गांठ रखने वाला दोस्त येन- केन प्रकरेण जब कही से जीत कर विधायक या सांसद बनता है तो पहले ही महीने से लाखों रुपये का वेतन, भत्ते, मुफ्त सरकारी आवास, मुफ्त बस, रेल और हवाई यात्रा, फोन, मोबाईल आदि सुविधायें पा जाता है। 

ये ही नेता जब जनता के पास जाते हैं तो खुद को सेवक और समाज का सिपाही बताते हैं। जबकि ये रिटायर होने पर भी खूब पेंशन पाते हैं। अत: आज के परिदृश्य को देखते हुए राजनीति को किसी भी तरह घाटे का सौदा नहीं कहा जा सकता है। यह एक पूर्णकालिक सेवा है जिसमें अच्छा वेतन मिलता है, बेशुमार सुविधाएं मिलती हैं और रिटायर होने पर पेंशन भी मिलती है। वर्तमान में सांसदों का वेतन दुगुना किये जाने का मामला चर्चा में है। ये सभी आपस में मिल कर स्वयं के वेतन-भत्ते बढ़ा लेते हैं, कोई रोकने-टोकने वाला नहीं होता है। अधिक पैसा मिलना किसे बुरा लगता है? पर देश के भले की सोचने का दावा करने वाले सब नेता इस वक्त मौन धारण कर लेते हैं।         

 इतना सब कुछ मिलने के बाद भी नेता अपने क्षेत्र के लिये ऐसा क्या करते हैं जो जनता के हित में हो ? चुनावों के अलावा कभी ये नजर आते नहीं, क्षेत्र के लोगों की परेशानियों को, समस्याओं को दूर करते नहीं, जो मूलभूत समस्यायें आजादी के वक्त थीं, वो ही आज भी हैं। गांवों और कस्बों की यात्रा करते समय यह सोचने को मजबूर हो जाते हैं कि आखिर आजादी के बाद की सरकारों ने आज तक किया क्या है ? धूल उड़ाती कच्ची-पी सड़कें या पगडंडियां, लाखों बीघा बंजर जमीन, जो कीकर बबूलों या अनुपयोगी वनस्पति से ढंकी है, कीचड़ भरी कच्ची नालियां, सड़कों पर बहता पानी 'विकास' की कहानी कहते नजर आते हैं। निष्चित रूप से बदलाव की हवा दीखती है, लेकिन कई कार्य ऐसे होते हैं जिनका नेताओं से कोई लेना-देना नहीं होता है। आज किसी ने मोबाईल खरीदा, तो इसमें सांसद या एमएलए का क्या रोल? 

मेरा तात्पर्य यह है कि विकास के जो आधारभूत कार्य होने चाहिये थे, हर हाथ को काम, हर इसांन को दो वक्त की रोटी, पहनने को कपड़ा, रहने को घर और विकास के लिये शिक्षा, वो कहाँ हैं ? आज भी हमारे देश के नागरिक इन्हीं आधारभूत सुविधाओं के लिये जूझ रहे हैं। बेरोजगारों की फौज, कचरे में खाना बीनते इंसान, अद्र्धनग्न भिखारी और गरीब, फुटपाथों और रेलवे स्टेशनों को ही घर-बार मान कर रहने वाले बेघरबार लोग और हस्ताक्षर के स्थान पर आज भी अंगूठा टेकते लोग आजादी के सत्तर साल की कहानी कह रहे हैं कि देखों, ये किया आज तक नेताओं और देश के कर्णधारों ने। विकास हुआ है, लेकिन चंद लोगों तक, सीमित रूप से। कुछ के पास धन के अम्बार लगे हैं तो कई पैसे-पैसे के लिये तरस रहे हैं, कुछ लोगों के पास कई-कई मकान हैं तो अधिकतर लोगों के सिर पर छत नहीं है। कुछ के पास कई जोड़े कपड़े हैं तो कई तन ढंकने को मोहताज़ हैं। फिर यह विकास किस काम का? और ऐसे विकास के लिये क्या लाखों रुपयें महीना पाने वाले नेता जिम्मेदार नहीं हैं? आखिरकार सभी प्रकार की योजनाये तो ये ही लाते है, संसद और विधानसभाओं में ये ही बिल पास कराते हैं जिनका नमूना यह है कि गैस और रसोई की वस्तुऐं तो महंगी कर देते है, पर कारें, सौंदर्य प्रसाधन, और इत्र आदि सस्ते कर दिये जाते हैं! आप चाँद पर यान भेजो या मंगल पर, परमाणु बम बनाओ या मिसाइल, इन सबका कोई मतलब नहीं है जब तक कि देश के नागरिकों को एक इंसान का जीवन जीने के लिये आधारभूत सुविधायें भी नहीं मिलती हैं। चाँद और मंगल पर यान भेज देने से देश के उन करोड़ों गरीबों का क्या भला होगा जो आज भी बंधुआ मजदूरों की जैसी जिन्दगी जी रहे हैं, जिनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य ही किसी तरह अपने-आप को जीवित रखना उसी के लिये संघर्ष करना रह गया है?         

कहने अर्थ यह है कि जिस हिसाब से नेताओं के वेतन और भत्ते बढ़ते जा रहे हैं, उसका कोई तो आधार होना चाहिये। आज तक इनकी योग्यता तो तय हो नहीं पाई है, अत: एक अनपढ़ सांसद को भी वही सब कुछ मिलता है जो एक पीएच डी धारी को। और अंत में, आप सेवा का कार्य मत करो, लेकिन उतना कार्य अवष्य करो जितना वेतन और भत्ते लेते हो। नहीं तो देष की जनता की खून-पसीने की कमाई को, जो कि वह विभिन्न करों के जरिये देती हैं, अपने ऐषो-आराम पर खर्च करने का आपको कोई अधिकार नहीं है। आपको जनता ने इसलिये तो नहीं चुना है कि आप सारे नेता इकट्टे होकर देश के ही खजाने को लूटने लगो।

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