भारत के विभाजन और कश्मीर समस्या के लिए जिम्मेदार कौन?




राजनैतिक शक्तियां अपने एजेंडे को लागू करने के लिए इतिहास को तोड़ती-मरोड़ती तो हैं ही, वे अतीत की घटनाओं और उनके निहितार्थों के संबंध में सफ़ेद झूठ बोलने से भी नहीं हिचकिचातीं। जहाँ तक इतिहास का प्रश्न है, उस पर यह सिद्धांत पूरी तरह से लागू होता है कि “तथ्य पवित्र हैं, मत स्वतंत्र है” अर्थात आप तथ्यों के साथ छेड़-छाड़ नहीं कर सकते परन्तु आप उनके बारे में कोई भी राय रखने के लिए स्वतंत्र है। परन्तु मोदी और उनके जैसे अन्यों के लिए “प्रेम और युद्ध में सब जायज है”। अपनी व्यक्तिगत महत्वकांक्षाएं पूरी करने और अपने राजनैतिक एजेंडे को लागू करने के प्रयास में मोदी सभी सीमायें पार कर रहे हैं। सरदार पटेल का महिमामंडन करने के लिए वे जवाहरलाल नेहरु का कद छोटा करने का प्रयास कर रहे हैं और इन दोनों नेताओं को एक-दूसरे का प्रतिद्वंद्वी सिद्ध करने पर आमादा हैं। उनके इस प्रयास के दो लक्ष्य हैं। पहला, चूँकि “मोदी परिवार” ने कभी स्वाधीनता आन्दोलन में भागीदारी नहीं की इसलिए वे पटेल को अपना बताकर इस कमी को पूरा करना चाहते हैं। यह इस तथ्य के बावजूद कि पटेल का यह स्पष्ट मत था कि मोदी के वैचारिक पितामह (हिन्दू महासभा-आरएसएस), महात्मा गांधी की हत्या के लिए ज़िम्मेदार थे। “इन दोनों संस्थाओं (आरएसएस और हिन्दू महासभा) की गतिविधियों के चलते, देश में ऐसा वातावरण बना जिसके कारण इतनी भयावह त्रासदी संभव हो सकी।आरएसएस की गतिविधियां, सरकार और राज्य के अस्तित्व के लिए खतरा हैं।”

जहां तक देश के त्रासद विभाजन का प्रश्न है, ऐसी अनेक विद्वत्तापूर्ण पुस्तकें और लेख उपलब्ध हैं, जो हमें न केवल विभाजन की पृष्ठभूमि से परिचित करवाते हैं, बल्कि यह भी बताते हैं कि वह अनेक जटिल प्रक्रियाओं और कारकों का नतीजा था। यह सही है कि यह प्रक्रिया इतनी जटिल थी और इसके इतने विविध पहलू और कारण थे कि आप उनमें से किसी एक को चुन कर अपना मनमाना चित्र प्रस्तुत कर सकते हैं। जिन्ना के समर्थकों की दृष्टि में, देश के विभाजन के लिए कांग्रेस ज़िम्मेदार थी। मोदी भी जिन्ना-समर्थकों की तरह, कांग्रेस को ही कटघरे में खड़ा कर रहे हैं।

विभाजन के पीछे तीन मूल कारण थे। इनमें से पहला था अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति। अंग्रेज़ यह जानते थे कि भारत के राजनैतिक नेतृत्व का समाजवाद की ओर झुकाव है और उन्हें डर था कि स्वाधीन भारत, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर रूस के नेतृत्व वाले समाजवादी देशों के गठबंधन के साथ जुड़ सकता है। अपने साम्राज्यवादी हितों की पूर्ति के लिए अंग्रेज़ चाहते थे कि दुनिया के इस इलाके में एक ऐसा देश हो जो उनका पिछलग्गू बना रहे। और पाकिस्तान ने यह भूमिका बखूबी अदा की। अंग्रेजों के लिए अपना यह लक्ष्य पूरा करना इसलिए आसान हो गया क्योंकि सावरकर, जो कि मोदी की विचारधारा के मूल प्रतिपादक थे, ने द्विराष्ट्र सिद्धांत की स्थापना की। तीसरा कारण था जिन्ना की यह मान्यता कि चूंकि मुस्लिम एक अलग राष्ट्र हैं, इसलिए उनका एक अलग देश होना चाहिए।

अपनी एक महत्वपूर्ण पुस्तक “गिल्टी मेन ऑफ़ इंडियाज पार्टीशन” में लोहिया लिखते हैं, ”हिन्दू कट्टरवाद, उन शक्तियों में शामिल था जो भारत के विभाजन का कारण बनीं। जो लोग आज चिल्ला-चिल्लाकर अखंड भारत की बात कर रहे हैं अर्थात आज का जनसंघ (बीजेपी का पूर्व अवतार), और उसके पूर्ववर्तियों, जो हिन्दू धर्म की ‘गैर-हिन्दू” परंपरा के वाहक थे, ने भारत का विभाजन करने में अंग्रेजों और मुस्लिम लीग की मदद की। उन्होंने कतई यह प्रयास नहीं किया कि हिन्दू और मुस्लिम नज़दीक आयें और एक देश में रहें। बल्कि उन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों के परस्पर संबंधों को ख़राब करने के लिए हर संभव प्रयास किये। और दोनों समुदायों के बीच यही अनबन और मनमुटाव भारत के विभाजन की जड़ बनी।”

समय के साथ जिन्ना ने भी अलग पाकिस्तान की अपनी मांग पर और अड़ियल रूख अपना लिया। नेहरु के यह कहने के बाद कि वे कैबिनेट मिशन योजना से बंधे हुए नहीं हैं, जिन्ना ने यह साफ़ कर दिया कि वे अलग पाकिस्तान की अपनी मांग से पीछे हटने वाले नहीं हैं।

जिस समय अंग्रेज़ ये चालें चल रहे थे, गांधीजी देश में मुसलमानों और हिन्दुओं के बीच धधक रही हिंसा की आग को बुझाने में व्यस्त थे। उन्होंने हिंदुस्तान-पाकिस्तान का मुद्दा सुलझाने का काम अपने विश्वस्त सहयोगियों सरदार पटेल और नेहरू के हाथों में सौंप दिया था। मौलाना अबुल कलाम आजाद अपनी विद्वतापूर्ण पुस्तक “इंडिया विन्स फ्रीडम” में लिखते हैं कि सरदार पटेल पहले ऐसे प्रमुख कांग्रेस नेता थे, जिन्होंने भारत के विभाजन की अंग्रेजों की योजना का समर्थन किया था। मौलाना ने कभी विभाजन को स्वीकार नहीं किया और गांधीजी ने अंततः भारी मन से इस योजना को अपनी स्वीकृति दी। उन्हें यह आशा थी कि भारत कभी न कभी फिर से एक हो जायेगा। 


मोदी मंत्रिमंडल के सदस्य एमजे अकबर ने नेहरु की अपनी जीवनी “नेहरु - द मेकिंग ऑफ़ इंडिया” (1988) में लिखा “भारत के लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल ने रूमानी नेहरु के बहुत पहले देश के विभाजन को स्वीकार कर लिया था” (पृष्ठ 406)।

हम सबको याद है कि मोदी की पार्टी के एक बड़े नेता जसवंत सिंह ने अपनी एक पुस्तक (जिन्ना, पार्टीशन, इंडिपेंडेंस) में पटेल की भूमिका की चर्चा करते हुए लिखा था कि पटेल ने परिस्थितियों के आगे झुकते हुए विभाजन को स्वीकार लिया। यही कारण है कि गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री के रूप में, मोदी ने इस पुस्तक को अपने राज्य में प्रतिबंधित कर दिया था।

कश्मीर समस्या के बारे में जितना कम कहा जाये, उतना बेहतर होगा। यह समस्या ऐतिहासिक परिस्थितियों की उपज थी। कश्मीर एक मुस्लिम-बहुल राज्य था परन्तु वह पाकिस्तान का हिस्सा बनना नहीं चाहता था। पाकिस्तान की सेना के सहयोग से कबाइलियों द्वारा राज्य पर आक्रमण करने के बाद वहां के महाराज हरिसिंह ने भारत की मदद मांगीं। शेख अब्दुल्ला यह चाहते थे कि भारत उनकी मदद करे। इस मामले में पटेल और नेहरू की सोच एक सी थी। पटेल तो कश्मीर घाटी पर भारत का दावा छोड़ने के लिए तक तैयार थे। राजमोहन गांधी ने पटेल की अपनी जीवनी (पटेल: ए लाइफ) में लिखा है कि पटेल इस सौदे के लिए तैयार थे कि अगर जिन्ना, हैदराबाद और जूनागढ़ को भारत का हिस्सा बन जाने दें तो भारत, कश्मीर के पाकिस्तान में विलय पर कोई आपत्ति नहीं करेगा। वे पटेल की जूनागढ़ के बहाउद्दीन कॉलेज में दिए गए एक भाषण को उद्दत करते हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि “हम कश्मीर पर राजी हो जायेगें, अगर वे हैदराबाद के बारे में हमारी बात मान लें”, (पृष्ठ 407-8)। यह भाषण पटेल ने जूनागढ़ के भारत में विलय के बाद दिया था।

पटेल-नेहरु संबंधों के बारे में सबसे महत्वपूर्ण कथन राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का है। ‘इंडियन एक्सप्रेस’ से बात करते हुए उन्होंने कहा था कि मोटे तौर पर, कश्मीर सहित सभी मामलों में पटेल और नेहरु की सोच एक सी थी। मोदी एक झूठ को बार-बार दोहरा कर, उसे सच सिद्ध करना चाहते हैं। वह सिर्फ इसलिए क्योंकि उसमें उन्हें अपना फायदा नज़र आता है। (कुछ सन्दर्भ सुधीन्द्र कुलकर्णी की पुस्तक “मोदीस डिसलाइक फॉर नेहरु कैन नोट ओब्लिटीरेट द फैक्ट्स” से)


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