भ्रष्टाचार और युवा;


संस्कार, विचार और आचार ये तीन ऐसे गुण हैं, जिनसे किसी भी व्यक्ति के चरित्र का निर्माण होता है। इनमें से एक में भी थोड़ी बहुत कमी हो तो असर तीनों पर ही पड़ता है और अगर कही इनमें से एक भी भ्रष्ट हो जाये तब परिणाम क्या होते होंगे इसका अन्दाज़ा आप खुद ही लगा सकते हैं। भ्रष्ट हमारे संस्कार भी हो सकते हैं, हमारे विचार भी हो सकते हैं और हमारे आचार भी हो सकते हैं। जब आचार भ्रष्ट होते हैं तो उसे हम नाम देते भ्रष्ट आचार यानि की भ्रष्टाचार का। जब आचार बिगड़ता है तो हमारे विचार सड़ने लगते हैं और अगर आचार-विचार दोनों खोखले हों तो संस्कार के नाम पर हमारे पास कुछ भी नहीं बचता।

किसी भी समाज में भ्रष्टाचार उस दीमक की तरह है जो भीतर ही भीतर खमोशी से उसकी जड़ों को खोखला कर देता है और अगर जड़ ही खोखली हो जायें तो समाज किसके सहारे खड़ा होगा। आज हमारे देश की रुह में भी ये दीमक लग चुकी है, देश की जड़ें खोखली हो चुकी हैं। पुलिस, प्रशासन, राजनीति कुछ भी इस से अछूता नहीं है। सरकारी विभागों में मृत्यु प्रमाण पत्र बनवानें तक के लिए रिश्वत देनी पड़ती है तो सार्वजनिक हित के लिए बननें वाली योजनाओं पर नेताओं और अधिकारियों की नज़र होती है। सैकड़ों में गिने जाने वाले घोटाले अब करोड़ों और अरबों में तब्दील हो गये हैं। बोफोर्स से शुरु हुयी कहानी अब टू-जी स्पैक्ट्रम तक पहुंच चुकी है। जनता की गाढ़ी कमाई का जो पैसा देश के विकास पर खर्च होना चाहिये वो नेताओं और अधिकारियों के लॉकरो में पहुंच जाता है। नज़रिया बदल चुका है, किसी हद तक हम भ्रष्टाचार को स्वीकार भी कर चुके हैं। बहुत से उदाहरणों में गड़बडि़यों को हम ये कह कर टाल देते हैं कि इतना तो चलता ही है। हम अपनी सहूलियत के हिसाब से भ्रष्टाचार के मानक तय कर लेते हैं, अपने आराम के लिए इसे बढ़ावा भी देते हैं। बात जब बड़े स्तर की होती है, तो बड़ी योजनाओं में शामिल लोग अपनें स्तर पर यही करते हैं और मौका परस्त बन जाते हैं।

हाल के एक दो वर्षो में जिस कदर भ्रष्टाचार बढ़ा है, उसनें बुद्धिजीवियों के माथे पर चिंता की लकीरें खींच दी हैं। अब धीरे-धीरे इसके खिलाफ अवाज़ बुलन्द होने लगी है, आन्दोलन खड़े होने लगे हैं। इन आन्दोलनों के सबसे बड़े सहभागी है हमारे देश के युवा। हाल के वक्त में युवाओं ने जिस तरह से भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी विचारधारा को खुल कर जाहिर किया है, आन्दोलनों में खुल कर हिस्सा लिया है और उन लोगों को जगानें का काम किया है जिन्होंने सब कुछ जानते हुये भी अपनी आंखें मूंदी हुयी थीं,  वो वाकई एक नई सुबह की ओर इशारा करता है। किसी देश की रीढ़ होते हैं युवा, हमारा देश तो वैसे भी युवाओं का देश कहलाता है, जहां पर 60 फीसदी से ज्यादा जनसंख्या युवाओं की है। वैसे भी आनें वाली पीढ़ी युवाओं की ही होती है और अगर युवा किसी आचार को, विचार को या फिर संस्कार को बदल ले तो वो भविष्य के पटल पर दिखायी देने लगता है। भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम की बागडोर भी युवाओं के हाथों में ही सुरक्षित कही जा सकती है। यही पीढ़ी इसे अंदाम तक ले जा सकती है।

वैसे अगर किसी भी बुराई को मिटाना हो, तो उसकी जड़ तक जाना ज़रुरी होता है। ऐसे में सवाल ये है कि आखिर भ्रष्टाचार के बढ़ने की वजह क्या है। जो लोग बड़े ओहदों पर पहुंच कर समाज और देश की सेवा की कसमें खाते हैं वो ही क्यों उसकी नींव को खोखला करने में जुट जाते हैं। दरअसल कुछ दशकों में हमारी मानसिकता ने दिशा परिर्वतन किया है। अब आध्यात्मिक सुख के बजाए, शारीरिक सम्पन्नता को ज्यादा तरज़ीह दे रहे हैं हम। जिस तरह से इन्सान ने अपने दिमाग का इस्तेमाल कर नये-नये अविष्कार किये, अपनी जि़न्दगी को आसान बना दिया, मशीनों पर निर्भर हो गया वो बाहरी उत्थान के साथ साथ आन्तरिक पतन का भी बोध है। इसी तरक्की का ही नतीजा है कि हमारी जरुरतें बढ़ गयी हैं। हमारे भीतर प्रतिस्पर्धा और दिखावे की भावना प्रबल हो गयी है। रोटी, कपड़ा और मकान ही अब हमारी आवश्यकतायें नहीं हैं, अब ये कहावत विस्तृत रुप ले चुकी है। अब जो-जो हम अपनी आंखों से देख सकते है वो सब हमें चाहियें। भौतिक सुखों की आदत नहीं बल्कि लत लग गयी है हमें और जब लत लग जाये तो वो हमारी सोंच समझ की शक्ति को क्षींण कर देती है, हमे अच्छें बुरे का ज्ञान भी नहीं रहता और आभास भी नहीं है। हम बस उस चीज़ को पानें के लिए लालायित हो उठते हैं। वैसे भी हमारी संस्कृति तो वो है जहां पर ये कहावत है कि पैसे का नशा सबसे ख़तरनाक होता है, बस यही नशा हम पर हावी हो रहा है। ज़रुरत जब लत बन जाये तो आचार को भ्रष्ट होते देर नहीं लगती, फिर हम जो करते हैं वो हमें ग़लत नहीं लगता, हम उसे सही साबित करनें के लिए कुतर्को का सहारा भी लेते है। कुछ ऐसी ही हो चली है हमारी मानसिकता भी।



हम ये भी कह सकते हैं कि ये दौर हमारी मानसिकता की गुलामी का है, हमारे गिरते नैतिक मूलों का है, अगर हमें इस गुलामी से, इस नशे से बाहर निकलना है तो पहल भी खुद ही करनी होगी। विकास को, तरक्की को अपनी ज़रुरतों को हमें दूसरे नज़रिये से देखना होगा। हमें खुद ही ये आदत डालनी होगी कि हम अपनें आचार को भ्रष्ट नहीं होने देंगे और हमें खुद ही ये भी आदत डालनी होगी कि हम दूसरे के आचार को भी भ्रष्ट नहीं होने देंगे। कुबार्नी तो करनी ही पड़ेगी, समाज को इस हाशिये से ऊपर उठानें के लिए। बलिदान तो देना ही होगा, इस गर्त से निकलनें के लिए क्योंकि अभी हमें बहुत कुछ रंग बिरंगा और लुभावना दिख रहा है। ये उस छलावे की तरह है, जो दूर से तो खूबसूरत दिखता ही है, नज़दीक आनें पर भी सुखमयी लगता है लेकिन उसका परिणाम घातक होता है। उस परिणाम को या तो हम खुद भुगतते हैं या फिर हमारी आनें वाली पीढ़ी। हम ये कह कर लापरवाह नहीं हो सकते है कि आने वाला वक्त बुरा होगा तो क्या? कौन सा हम उस वक्त को देखनें के लिए जीवित होंगे? क्योंकि ये बुरा परिणाम जिस पीढ़ी को भुगतना होगा वो हमारी ही तो सन्तानें होगी।

अब हमें, हमारे समाज को और हमारी न्याय व्यवस्था को कुछ बड़े उदाहरण पेष करनें होंगे। लोगों के भीतर एक डर भी बैठाना होगा, भ्रष्टाचार के परिणाम का। हालाकि कुछ मामलों में प्रशासन और न्याय व्यवस्था ने मिसाल भी पेश की हैं लेकिन काम सिर्फ मिसाल से नहीं चलने वाला, बुराई की एक-एक शाखा को ढूंढ-ढूंढ कर ख़त्म करना होगा। लोकपाल के नाम से देश में जो चिंगारी हमारे युवाओं ने पैदा की थी उसे अब लपटों में तब्दील करनें की भी ज़रुरत है। अभी हमारे पास वक्त है खुद को बदलनें का, समाज को बदलाव के रास्ते पर ले जाने का, क्योंकि भ्रष्टाचार वो दीमक है जो हमारे नैतिक मूलों को ही नहीं कुरेदता बल्कि विश्व पटल पर देश की छवि को भी धूमिल करता है। वैसे भी अगर हमारे संस्कार, हमारे विचार और हमारे आचार ही भ्रष्ट हो जायें तो हमें ख़त्म होनें में भी वक्त नहीं लगेगा।

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