“बुराई के बदले किसी से बुराई न करो”


“बुराई के बदले किसी से बुराई न करो। जो बातें सब लोगों की दृष्टि में भली हैं, उनकी चिन्ता किया करो।”


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पंडित जयदेव एक बड़े अच्छे संत हए हैं| एक राजा उन पर बहुत भक्ति रखता था और उनका सब प्रबंध अपनी तरफ से ही किया करता था|

वे ब्राह्मण देवता (जयदेव) त्यागी थे और गृहस्थ होते हुए भी ‘ मेरे को कुछ मिल जाय, कोई धन दे दे’- ऐसा चाहते नहीं थे| उनकी स्त्री भी बड़ी विलक्षण पतिव्रता थी; क्योंकि उनका विवाह भगवान ने करवाया था, वे विवाह करना नहीं चाहते थे|

एक दिन की बात है, राजा ने उनको बहुत-सा धन दिया, लाखों रूपये के रत्न दिये| उनको लेकर वहाँ से रवाना हुए और घर की तरफ चले| रास्ते में जंगल था| डाकुओं को इस बात का पता लग गया| उन्होंने जंगल में जयदेव को घेर लिया और उनके पास जो धन था, वह सब छीन लिया| डाकुओं के मन में आया कि यह राजा का गुरु है, कहीं जीता रह जायेगा तो हमारे को पकड़वा देगा| अतः उन्होंने जयदेव के दोनों हाथ काट लिये और कहा उनको एक सूखे हुए कुएं में गिरा दिया| जयदेव कुएं के भीतर पड़े रहे| एक-दो दिन में राजा जंगल में आया| उसके आदमियों ने पानी लेने के लिए कुएँ में लोटा डाला तो वे कुएँ में से बोले कि ‘भाई, ध्यान रखना मेरे को लग न जाय| इसमें जल नहीं है, क्या करते हो!’ उन लोगो ने आवाज सुनी  तो बोले कि यह आवाज पंडित जी की है! पंडित जी यहाँ कैसे आये! उन्होंने राजा को कहा कि महाराज! पंडित जी तो कुएँ में से बोल रहे हैं| राजा वहाँ गया| रस्सा डालकर उनको कुएँ में से निकाला तो देखा कि उनके दोनों हाथ कटे हुए है| उनसे पूछा गया कि यह कैसे हुआ? तो वे बोले कि देखो भाई, जैसा हमारा प्रारब्ध था, वैसा हो गया| उनसे बहुत कहा गाय कि बताओ तो सही, कौन है, कैसा है| परन्तु उन्होंने कुछ नही बताया, यही कहा कि हमारे कर्मों का फल है| राजा उनको घर पर ले गये| उनकी मरहम-पट्टी की, इलाज किया और खिलाने-पिलाने आदि सब तरह से उनकी सेवा की|

एक दिन की बात है| जिन्होंने जयदेव के हाथ काटे थे, वे चारों डाकू साधु के वेश में कहीं जा रहे थे| उनको राजा ने भी देखा और जयदेव ने भी| जयदेव ने उनको पहचान लिया कि ये तो वहीं डाकू हैं| उन्होंने राजा से कहा कि देखो राजन! तुम धन लेने के लिए बहुत आग्रह किया करते हो| अगर धन देना हो तो वे जो चारों जा रहे हैं, वे मेरे मित्र हैं, उनको धन दे दो| मेरे को धन दो या मेरे मित्रों को दो, एक ही बात है| राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ कि पंडित जी ने कभी उम्र भर में किसी के प्रति ‘आप दे दो’ ऐसा नहीं कहा, पर आज इन्होंने कह दिया है! राजा ने उन चारों को बुलवाया| वे आये और उन्होंने देखा कि हाथ कटे हुए पंडित जी वहाँ बैठे हैं, तो उनके प्राण सूखने लगे कि अब कोई आफत आयेगी! अब ये हमें मरवा देंगे| राजा ने उनके साथ बड़े आदर का बर्ताव किया और उनको खजाने में ले गया| उनको सोना, चाँदी, मुहरें आदि खूब दिये| लेने में तो उन्होंने खूब धन ले लिया, पर पास में बोझ ज्यादा हो गया| अब क्या करें? कैसे ले जायँ? तो राजा ने अपने आदमियों से कहा कि इनको पहुँचा दो| धन को सवारी में रखवाया और सिपाहियों को साथ में भेज दिया| वे जा रहे थे| रास्ते में उन सिपाहियों में बड़ा अफसर था, उसके मन में आया कि पंडित जी किसी को कभी देने के लिए कहते ही नहीं और आज देने के लिए कह दिया, तो क्या बात है! उसने उनसे पूछा कि महाराज, आप बताओ कि आपने पण्डित जी का क्या उपकार किया है? पण्डितजी के साथ आपका क्या संबंध है? आज हमने पण्डित जी के स्वभाव से विरुद्ध बात देखी है| बहुत वर्षों से देखता हूँ कि पंडित जी किसी को ऐसा नही कहते कि तुम इसको दे दो, पर आपके लिए ऐसा कहा, तो बात क्या है? वे चारों चोर आपस में एक-दूसरे को देखने लगे, फिर बोले कि ‘ये एक दिन मौत के मुंह में जा रहे थे तो हमने इनको मौत से बचाया| इनके हाथ ही कटे, नहीं तो गला कट जाता| उस दिन का ये बदला चूका रहे हैं|’ उनकी इतनी बात पृथ्वी सह नहीं सकी| पृथ्वी फट गयी और वे चारों पृथ्वी में समा गये! सिपाही लोगों को बड़ी मुश्किल हो गयी कि अब धन कहाँ ले जायँ! वे तो पृथ्वी में समा गये! अब वे वहाँ से लौट पड़े और आकर सब बात बतायी| उनकी बात सुनकर पंडित जी जोर-जोर से रोने लग गये! रोते-रोते आँसू पोछने लगे तो उनके हाथ साबूत हो गये| यह देखकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ कि यह क्या तमाशा है| हाथ कैसे आ गये? राजा ने सोचा कि वे इनके घनिष्ठ मित्र थे, इस लिए उनके मरने से पंडित जी रोते हैं| उनसे पूछा कि महाराज, बताओ तो सही, बात क्या है? हमारे को तो आप उपदेश देते हैं कि शोक नहीं करना चाहिए, चिंता नहीं करनी चाहिए, फिर मित्रों का नाश होने से आप क्यों रोते हैं? शोक क्यों करते हैं? तो वे बोले कि ये चार आदमी थे, इन्होंने ही मेरे से धन छीन लिया और हाथ काट दिये| राजा ने बड़ा आश्चर्य किया और कहा कि महाराज, हाथ काटने वालों को आपने मित्र कैसे कहा? जयदेव बोले कि देखो राजन! एक जबान से उपदेश देता है और एक क्रिया से उपदेश देता है| क्रिया से उपदेश देने वाला ऊँचा होता है| मैंने जिन हाथों से आपसे धन लिया, रत्न लिए, वे हाथ काट देने चाहिये| यह काम उन्होंने कर दिया और धन भी ले गये| अतः उन्होंने मेरा उपकार किया, मेरे पर कृपा की, जिससे मेरा पाप कट गया| इसलिए वे मेरे मित्र हुए| रोया मैं इस बात के लिए कि लोग मेरे को संत कहते हैं, अच्छा पुरुष कहते हैं, पंडित कहते हैं धर्मात्मा कहते है और मेरे कारण से उन बेचारों के प्राण चले गये! अतः मैंने भगवान् से रो करके प्रार्थना की कि हे नाथ! मेरे को लोग अच्छा आदमी कहते हैं तो बड़ी गलती करते हैं| मेरे कारण से आज चार आदमी मर गये तो मैं अच्छा कैसे हुआ? मैं बड़ा दुष्ट हूँ| हे नाथ! मेरा कसूर माफ करो| अब मैं क्या करूँ? मेरे हाथ की बात कुछ रहीं नहीं; अतः प्रार्थना के सिवा और मैं क्या कर सकता हूँ| राजा को बड़ा आश्चर्य ह्या और बोला महाराज, आप अपने को अपराधी मानते हो कि चार आदमी मेरे कारण मर गये, तो फिर आपके हाथ कैसे आ गये? वे बोले कि भगवान् अपने जन के अपराधोंको, पापोंको, अवगुणोंको, देखते ही नहीं! उन्होंने कृपा की तो हाथ आ गये! राजा ने कहा कि महाराज! उन्होंने आपको इतना दुःख दिया तो आपने उनको धन क्यों दिलवाया| वे बोले की देखो राजन! उनको धन का लोभ था और लोभ होने से वे और किसी के हाथ काटेंगे; अतः विचार किया कि आप धन देना नहीं हैं तो उनको इतना धन दे दिया जाय कि जिससे बेचारों को कभी किसी निर्दोष की हत्या न करनी पड़े| मैं तो सदोष था, इसलिए मुझे दुःख दे दिया| परन्तु वे किसी निर्दोष को दुःख न दे दें, इसलिए मैंने उनको भरपेट धन दिलवा दिया| राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ! उसने कहा कि आपने मेरे को पहले क्यों नहीं बताया? वे बोले कि महाराज! अगर पहले बताता तो आप उनको दण्ड देते| मैं उनको दण्ड नहीं दिलाना चाहता था| मै तो उनकी सहायता करना चाहता था; क्योंकि उन्होंने मेरे पापों का नाश किया, मेरे को क्रियात्मक उपदेश दिया| मैंने तो अपने पापों का फल भोग, इसलिए मेरे हाथ कट गये| नहीं तो भगवान् के दरबार में, भगवान् के रहते हुए किसी को अनुचित दण्ड दे सकता है? कोई नहीं दे सकता| यह तो उनका उपकार है कि मेरे पापों का फल भुगताकर मेरे को शुद्ध कर दिया|

इस कथा से सिद्ध होता है, सुख या दुःख को देने वाला कोई दूसरा नहीं है; कोई दूसरा सुख-सुख देता है-यह समझना कुबुद्धि है-‘सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता परो ददातीति कुबुद्धिरेषा’ दुःख तो हमारे प्रारब्ध से मिलता है, पर उसमें कोई निमित्त बन जाता है तो उस पर दया आनी चाहिए कि बेचारा मुफ्त में ही पाप का भागी बन गया!

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