भ्रष्ट राजनीति का तंत्र और त्रस्त जनता

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किसी देश का इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा कि आजादी के सत्तर साल बाद उस देश की जनता यह मानने पर मजबूर हो कि आज से अच्छा तो अंग्रेजों का राज था। तब न तो ऐसा भ्रष्टाचार था और न ही काम के लिए इस तरह की लेतलाली बरती जाती थी। आज हम जिस भ्रष्ट तंत्र में जीने को मजबूर हैं, उसकी जड़ों को हमारे राजनेताओं ने भरपूर सींचा है। यही वजह है कि नेताओं की कौम से आम आदमी घृणा करने लगा है, लेकिन उसकी मजबूरी यह है कि वह आखिर करे भी तो क्या? भ्रष्ट तंत्र की हर साख पर तो एक उल्लू बैठा है...अंजाम ए गुलिस्तां यही होना है।
राजनीति में भ्रष्टाचार का आलम यह है कि नेता को चिल्लपों के अलावा काम तो कुछ करना नहीं है, लेकिन दाम पूरे वसूलने हैं। देश में लोकतंत्र के सफल संचालन के लिए संसद और विधानसभाओं का गठन किया गया था, जहां पूरे विचार-विमर्श के बाद नियम कानून बनाए जाने थे और उनका पालन सुनिश्चित कराया जाना था, लेकिन हर आदमी देख रहा है कि वहां कितना काम हो रहा है? करोड़ों रुपए खर्च करने के बावजूद सदनों में धेले का भी काम नहीं होता। जो भी नियम कानून बनता है वह शोर के बीच सरकारों द्वारा जबरन किया जाता है। हां, एक बात जरूर है कि नेता अपने हित के कामों को एक स्वर में शांतिपूर्वक कर लेता है। मसलन अपने वेतन भत्तों को बढ़वाना, पार्टियों के चंदे को हर बुरी (?) नजर (आयकर आदि) से बचाना। जैसा कि हाल में संसद के सत्र में किया गया। चंदे के मामले में चुनाव आयोग और अदालतों को भी नेताओं की कौम ठेंगा दिखा देती है।



नोटबंदी के कारण सारा देश एक-एक रुपए के लिए तरस रहा है और नेता चंदे के नाम पर अपने करोड़ों रुपए के काले धन को सफ़ेद करते रहे। इसके अलावा पूरा सत्र हंगामे की भेंट चढ़ गया। व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप हमारे नेताओं की पहचान बन गए हैं। जब कांग्रेस और भाजपा समेत अन्य दलों के नेता संसद के अंदर के हंगामे के पतन को संसद के बाहर सड़कों या महात्मा गांधी की प्रतिमा के सामने आकर जनता के सामने सफाई देने की कोशिश करते हैं तो बड़ा ही हास्यास्पद-सा लगता है। नैतिकता की राजनीति तो अब जैसे दूर की कौड़ी हो गई है।

ऐसा नहीं है कि यही सत्र हंगामे की भेंट चढ़ा है, इसके पहले भी अनेक सत्र हंगामे के गवाह रहे हैं। देश में जबसे राजनीति भटककर मुद्दों के बजाय विरोध की राजनीति बनी है, तबसे संसद या विधानसभाओं में सुचारु काम का संचालन दिखना लगभग दूभर हो गया है। हमारी युवा पीढ़ी ने तो शायद ही कभी विधायिकाओं को सभ्य और सुसंस्कृत तरीके से चलते देखा हो! इसीलिए उसके दिल में हमारी इन संवैधानिक संस्थाओं और इनके सदस्यों के प्रति सम्मान नहीं है। वह अपनी दैनंदिन प्रक्रियाओं में व्यस्त है। युवा पीढ़ी की दिलचस्पी भी राजनीति में नहीं दिखाई देती।



सम्मान खोने के लिए सिर्फ और सिर्फ हमारे आज के दौर के नेता जिम्मेदार हैं। नेतागण शायद हंगामे के लिए मुद्दे का इंतजार ही करते हैं। प्रत्येक सत्र के पहले उन्हें कोई न कोई मुद्दा मिल भी जाता है। इस बार का मुद्दा रहा नोटबंदी। राजनीति में सैद्धांतिक विरोध जायज है, लेकिन छीछालेदर की राजनीति को किसी भी रूप में जायज नहीं माना जा सकता और हमारे देश में आज का दौर छीछालेदर की राजनीति का ही हो गया है।

नेता के लिए जितना काम, उतना दाम हो : देश के संचालन की व्यवस्था के तहत चार प्रमुख स्तंभ तय किए गए थे। विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और मीडिया। यह भी तय है कि इन चारों में कोई भी एक दूसरे के काम में दखल नहीं देगा। यह व्यवस्था अभी तक सुचारु चल भी रही है। समय के साथ एक बड़ा अंतर यह आया है कि विधायिका के अलावा तीनों स्तंभों के लिए काम की मात्रा और घंटे लगभग तय हैं और वे काम भी कर रहे हैं। उनके काम का पैमाना भी दिखाई देता रहता है, लेकिन विधायिका लगभग निरंकुश हो चुकी है। इनके काम का कोई पैमाना तय नहीं है।


विधायिका संचालन के लिए शीत, ग्रीष्म और मानसून सत्र बुलाए जाते हैं। इनमें बजट से लेकर सभी प्रकार के मुद्दों पर चर्चा कर देश का सुचारु संचालन सुनिश्चित किया जाता है। इनमें बैठने वाले सदस्यों को माननीय संबोधन के साथ बुलाया जाता है। दो तीन दशक पहले तक तो यह माननीय संबोधन उचित लगता था। मन में अपने आप इनके लिए सम्मान का भाव उपजता था, लेकिन हाल के वर्षों में यह भाव तिरोहित जैसा हो गया है। खासतौर से आज की युवा पीढ़ी में। अधिकांश युवाओं का मानना है कि आखिर ये माननीय करते क्या हैं। जब भी विधायिका का सत्र बुलाया जाता है, उसमें सिवाय हंगामे के कुछ नहीं होता। काम के मुद्दे कानून आदि तो हंगामे के बीच चर्चा के बिना ही पारित होते हैं। एक अपवाद है- सांसदों या विधायकों के वेतन-भत्तों का कानून बिना किसी हंगामे के सर्वसम्मति से पारित होता है। कितना अजीब लगता है अपना वेतन खुद बढ़ा लेने की सुविधा! शेष सभी के मन की बात है ये - काश हमारे लिए भी ऐसी ही कोई व्यवस्था होती!



ऐसी स्थिति में सवाल यह उठता है कि विधायिका के दायरे में आने वाले सभी कामकाज क्यों न एक बैठक बुलाकर आम सहमति से मंजूर कर लिए जाएं। इसके लिए संसद या विधानसभाओं का सत्र बुलाकर करोड़ों रुपए बर्बाद करने की क्या जरूरत है। संसद हो या विधानसभाएं सभी की कार्रवाई हंगामे की भेंट चढ़ना तो लगभग तय होता है। सरकार किसी भी पार्टी की हो विपक्ष का काम सिर्फ हंगामा करना ही रह गया।

कालेधन की भीड़ : राजनीति का भी कुछ अजब ही रिवाज है। इसमें हमारे सामने जो दृश्य बनता है, उसमें तो यही लगता है कि नेता जितना ज्यादा हंगामा करता है, उसका वेतन उतना ही पक्का और काफी हद तक ज्यादा हो जाता है। प्राय: सुनने में आता है कि नेताओं की रैलियों में उनके अनुयायी भारी भीड़ एकत्र करते हैं और इसके लिए यह भी कहा जाता है कि भारी रकम चुकाई जाती है। हालांकि इसका कोई आकलन नहीं होता कि यह रकम आती कहां से है और इसका भुगतान का तरीका क्या होता है। यह तो अघोषित तथ्य है कि यह रकम कालेधन में ही शुमार होती है। जिसका कोई रिकॉर्ड नहीं वह कालाधन। यहां बात कालेधन की नहीं उस सफेद धन की की जा रही है, जो विधायिकाओं के संचालन पर खर्च किया जाता है।

संसद के शीतकालीन सत्र के संचालन पर भी करोड़ों रुपया बर्बाद हुआ। हमारे देश में मजदूरों, कर्मचारियों के लिए यही व्यवस्था तो है कि काम नहीं तो वेतन नहीं। सरकारें हों या निजी कंपनियां सभी में यही नियम लागू होते हैं, तो नेता अपने आपको इस दायरे से बाहर क्यों समझते हैं? यानी हंगामा चलता रहेगा, जनता का पैसा पानी में जाता रहेगा और नेताओं को शोर-शराबे तथा हंगामे के पैसे मिलते रहेंगे। पैसे की इस बंदरबांट के विरुद्ध उठने वाली आवाज को कुचला जाता रहेगा। भारतीय नेताओं के लिए शायद यही लोकतंत्र है!




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