बलिदानी कौम-गुरुओं व सिक्ख भाइयों ने हमारे लिए क्या-2 किया ?



धर्म और देश की रक्षा में जीवन की आहुति देने वाली महान सिख परंपरा का जन्म ऐसे समय में हुआ था, जब भारत पर बर्बर इस्लामियों का कहर अपने चरम पर था। उत्तर-पश्चिमी भारत इस अत्याचार से सर्वाधिक पीड़ित था।
ऐसे समय गुरु नानक ने एक ओर मुस्लिम शासकों द्वारा चलाई जा अत्याचार की आँधी के खिलाफ आवाज बुंलद की तो दूसरी ओर इंसान-इंसान के बीच भेदभाव करनेवाली सामाजिक व्यवस्था को जबरदस्त चुनौती दी।
गुरु नानक देव के संदेशों से इस्लामी आतंक से त्रस्त पंजाब और देश के अन्य भागों के हिंदुओं को बड़ी राहत मिली। जिन हिंदुओं के मंदिर मुस्लिम आतताइयों ने तोड़ डाले थे, उन्होनें सिखों के गुरुद्वारों में अपने देवी-देवताओं को प्रतिष्ठापित किया। जो मंदिर बच गए थे, उन्होंने श्रद्धा पूर्वक आदिग्रंथ को अपने गर्भगृह में स्थापित किया।
सिख संप्रदाय के संरक्षण में वैसे हिंदू वापिस अपने धर्म में लौटने लगे, जो तलवार के डर से इस्लाम कबूल कर चुके थे। यह इस्लाम के प्रचार-प्रसार को बड़ा धक्का था। इस्लामी शासकों के अत्याचार से हिंदू अपनी पूजा-पद्धति विस्मृत कर चुके थे, यहां तक कि उनके कोपभाजन से बचने के लिए रहन-सहन और खानपान में भी सावधानी बरती जाती थी।




गुरु नानक देव

ने इस मजहबी अत्याचार पर पहली चोट की। उन्होंने बिना किसी भय के ‘एकं सत्’ के वैदिक परंपरा को आगे बढ़ाते हुए कहा कि न कोई हिंदू है, न मुसलमान,‘‘अव्वल अल्लाह नूर उपाया कुदरत के सब बंदे, एक नूर से सब जग उपजिया कौन भले कौन मंदे।’’

आज गुरूनानक देव के जन्म-स्थल ननकाना साहिब पाकिस्तान के स्कूली पाठ्यक्रम में इस्लामी बर्बरता से लोहा लेने वाले नानक जी और सिख गुरुओं के बारे में अपमानजनक बातें पढ़ायी जाती हैं।


द्वितीय गुरु श्री अंगददेवजी ने गुरु मुखी लिपि विकसित की और सुस्वास्थ्य के लिए अखाड़ों का निर्माण किया।


तृतीय गुरु अमरदासजी ने परदा तथा सती प्रथा का विरोध किया। विधवाओं के पुनर्विवाह के जरिए उनके सामाजिक पुनर्वास की व्यवस्था की और धर्म-प्रचार के कार्य में स्त्रियों की नियुक्तियां की। यह श्री अमरदासजी की देश और समाज को सबसे बड़ी देन थी।



चतुर्थ गुरु श्री रामदासजी ने वर्तमान अमृतसर शहर को बसाकर धर्म को सामाजिक निर्माण के साथ जोड़ा।
सत्य की रक्षा के लिए क्रूर इस्लामी हुकूमत के हाथों शहीदी प्राप्त करनेवाले पंचम पातशाह, श्री गुरु अर्जन देवजी सिख धर्म के प्रथम शहीद हुए।



इन्होनें अमृतसर में हरिमंदिर साहिब (जो स्वर्णमंदिर के नाम से जाना जाता है) का निर्माण करवाया।

हरिमंदिर के निर्माण की पहली ईंट इन्होंने एक मुसलिम संत साँई मियाँ मीर से रखवाई और इस पवित्र धार्मिक स्थल में चार द्वार रखे। ताकि ईश्वर के इस घर में किसी भी धर्म, जाति अथवा समुदाय का कोई शख्स किसी भी दिशा से आकर उसकी इबादत कर सके। समाज के एकीकरण में गुरुदेव के ये कार्य एक बहुत बड़ी सामाजिक क्रांति थे।
गुरु अर्जुन देव ने मुसलमानों की धर्मान्धता पर खुलकर चोट की। इसके लिए उन्हें जहांगीर के दरबार में तलब किया गया और बिना किसी सुनवाई के मौत की सजा दे दी गई। गुरु अर्जुनदेव द्वारा संकलित और संपादित गुरु ग्रंथ साहिब इनकी मानव समाज को अनमोल देन है, जिसमें सामाजिक सौहार्द की अद्भुत छाप है। गुरुग्रंथ का संकलन अर्जुन देव ने शुरु किया था और उसका समापन दसवें गुरु गोविंद सिंह ने किया। उन्होंने आदेश दिया,



‘सब सिखन को हुकुम है, गुरु मान्यो ग्रंथ,’ तब से सिख गुरु ग्रंथ साहिब को ही अपना गुरु मानते हैं।


गुरुग्रंथ साहिब संपूर्ण मानवजाति के लिए एक अमूल्य
आध्यात्मिक निधि है। इसमें केवल सिख गुरुओं की वाणी का ही संकलन नहीं है। इसमें भारत के विभिन्न
भागों, भाषाओं और जातियों में जन्मे संतों की वाणी भी एकत्रित है। मराठी, पुरानी पंजाबी, बृज, अवधी आदि अनेक बोलियों से सुशोभित गुरुग्रंथ साहब ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’ की भावना से ओत-प्रोत है, इसलिए इसे समस्त मानव जाति का शाश्वत व सनातन अध्यात्म कोश कहा जा सकता है।



पंचम पातशाह तक सिख धर्म का स्वरूप भक्ति और सेवा तक सीमित था लेकिन गुरु अर्जन देवजी की शहीदी के बाद षष्ठम गुरु श्री हरिगोविन्द साहिब(१६०६-१६४४) ने भक्ति के साथ शक्ति भी जोड़ दी और सिखों के हाथ में तलवार थमाकर उन्हें अत्याचारियों के खिलाफ लड़ने का बल प्रदान किया। राजसी सत्ता व शक्ति के प्रतीक के रूप में उन्होंने हरिमंदिर साहिब के ठीक सामने अकालतख्त साहिब की स्थापना की। यहाँ वे एक शाहंशाह की तरह विराजते और लोगों के कष्टों और विवादों का निपटारा करते।



हरगोविंद सिंह ने मुगलिया आतंक के खिलाफ शस्त्र उठाया और सिख पराक्रमियों की एक छोटी टुकड़ी को सैन्य प्रशिक्षण दिया। हिंदुओं को जबरन आतंक के दम पर इस्लाम कबूल करने के लिए बाध्य किया जाता था। इस्लाम कबूल करने वालों को सुल्तान की ओर से हर तरह का प्रोत्साहन मिलता था। परिणामस्वरूप भारी संख्या में हिंदू, खासकर कश्मीर घाटी के हिंदू व सिख इस्लाम कबूल कर चुके थे।



गुरु हरगोविंद सिंह ने के आहवान पर बहुत से ऐसे लोग, जो अपना मत छोड़कर इस्लाम स्वीकार कर चुके थे, वापस अपने धर्म में लौट आए।


सप्तम पातशाह श्री गुरु हरिराय और अष्टम पीर श्री गुरु हरिकृष्ण साहिब से होती हुई गुरु-परंपरा नौवें पातशाह श्री गुरु तेगबहादुर जी तक पहुँची।



उस समय हिंदुओं को इस्लाम कबूल कराने के लिए औरंगजेब ने खूनी मुहिम छेड़ रखी थी। उनके समर्थन में तेग बहादुर के खड़े होने के कारण ही औरंगजेब ने पहले उन्हें ही इस्लाम में परिवर्तित करना चाहा। परन्तु अपने धर्म का त्याग करने की बजाए गुरु तेग बहादुर ने १६७५ में तिलक और जनेऊ (हिन्दुओं) की रक्षा के लिए अपने तीन शिष्यों भाई मतिदास, सतीदास और दयालदास के साथ दिल्ली के चाँदनी चौक में मुगलों के हाथों अपने शीश कटाकर बलिदान दे दिया- ‘‘तिलक जूं राखा प्रभ ताका। कीनो बडो कलू महि साका। साधन हेति इती जिनि करी। सीसु दीआ परु सी न उचरी।’’
तब गोविंद सिंह की आयु मात्र नौ वर्ष ही थी। अपने पिता के दुखद अंत का समाचार सुन उन्होंने कहा, ‘‘अपना खून देकर उन्होंने अपने धर्म की प्रतिष्ठा रखी।’’



गुरु गोविंद सिंह दसवें गुरू बने। उन्होनें देश और धर्म के रक्षार्थ सिखों का सैनिकीकरण किया। मुसलमानों की बर्बरता से लोहा लेने के लिए उन्होंने पूरे देश का दौरा कर हिन्दुओं को जागृत किया।



उन्होंने मां दुर्गा के सामने गौमाता की रक्षा के लिए प्रतिज्ञा की थी-‘‘यदि देहु आज्ञा तुर्क गाहै खपाऊं,
गऊ घात का दोष जग सिउ मिटाऊं।’’



उनके चारों पुत्र देश के लिए बलिदान हो गये। दो पुत्रों को मुस्लिम शासकों के आदेश पर जिंदा दीवारों में चिनवा दिया गया था और दो शहीद हो गये।


 इस प्रकार धार्मिक आजादी और पहचान की रक्षा के लिए गुरु गोविदसिंह जी की पूरी चार पीढ़ियाँ मुगलों के हाथों कुर्बान हो गईं—
सबसे पहले परदादा गुरु अर्जनदेवजी, फिर पिता गुरु तेग बहादुरजी, उनके बाद गुरु गोविंदसिंहजी के चार साहिबजादे और अंततः गुरुदेव स्वयं। जाहिर है, पीढ़ी-दर-पीढ़ी बलिदान का ऐसा अनुपम उदाहरण इतिहास में अन्यत्र दुर्लभ है।
१६०८ में नांदेड़ में एक विश्वासघाती अफगान ने धोखे से
उनकी हत्या कर दी।



आज ऐसे समय में जब दुनिया के अधिकांश देश जिहादी आतंक से संत्रस्त हैं, तब गुरु नानक देव सहित सनातन संस्कृति और मानवता की रक्षा में शहीद हुए सभी सिख गुरुओं का स्मरण हो आना स्वाभाविक है।



इस देश की कालजयी सनातनी बहुलतावादी संस्कृति की सलामती में सिखों का बहुत बड़ा योगदान है। उन्होंने
विचारों की स्वतंत्रता की रक्षा एवं जबरन धर्मांतरण के खिलाफ घोर संघर्ष किया।



सिख आज भी यदि तलवार उठाते हैं तो केवल देश के लिए और अपने सर कटवा देते हैं मगर कभी भी देश का सर नहीं कटने देते । सिख दुनिया में जहाँ कहीं भी रहते हैं बड़ी ही शान्ति तथा अपने पड़ोसियों के साथ मेल जोल के साथ रहते हैं, और वहाँ की सरकारें उन्हें कभी तंग नहीं करती । सिख केवल 2% हैं फिर भी कभी आजतक किसी सरकार के सामने अल्पसंख्यक मान्यता या आरक्षण के लिए हाथ नहीं फैलाया कि हमें सरकारी मदद में ये दो या वो दो, भले ही दो रोटी कम खा लेते हैं मगर कभी भीख नहीं माँगते।



ऐसा नहीं है कि सिखों के नेता नहीं होते, मगर आज तक
कभी भी किसी सिख नेता के मुँह से ऐसी बात नहीं सुनी कि जल्दी ही सिख हिंदुस्तान पर राज करेगा या पन्द्रह मिनट के लिए पुलिस हटा लो फिर देखो हम 100 करोड़ जनता को मार देंगे, या कभी भी सिखों द्वारा किसी भी मजहब के देवी, देवताओं को गाली देते नहीं सुना।



इनके गुरूद्वारों के गेट हर मजहब के लोगों के लिए हमेशा खुले रहते हैं। आंकड़ों के मुताबिक देश में 60 हजार से भी अधिक गुरुद्वारे 24 घंटे करीब 60 लाख लोगों को लंगर खिलाते हैं। वो भी किसी किसी भेदभाव के और बिना किसी का जाति-धर्म बिना पूछे। यहाँ तक कि हिन्दू तीर्थस्थानों और मुस्लिम क्षेत्र के गुरूद्वारों भी इनका लंगर और सेवाकार्य चलता रहता है। कुछ दिनों पहले सहारनपुर दंगों में जिस गुरूद्वारे को जलाया गया था वहाँ भी लंगर चलते थे और लोगों को मुफ्त दवाईयाँ बाँटी जाती थी।



सिखों में आपसी लगाव काफी है। न सिर्फ जश्न के मौकों पर बल्कि तकलीफ में भी सदा एक दूसरे के साथ रहते हैं। अपनी अरदास में भी ये लोग दूसरों के लिए पहले 'सरबत दा भला' मांगते हैं और आखिर में अपने लिए कुछ मांगते हैं।



जरूरत पड़ी तो 12 फिर बजेंगे!

अक्सर 12 बजे को लेकर सिखों का व्यंग्य किया जाता है। 1737 से 1767 के बीच नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली जैसे लुटेरे मारकाट के बाद सोना-चांदी और कीमती सामान के साथ-साथ सुंदर लड़कियों और स्त्रियों को भी लूटकर साथ ले जाते थे। सिखों ने उन लुटेरों से स्त्रियों को बचाने की ठानी और संख्या में कम होने के कारण छोटे-छोटे दल बना कर 'रात 12 बजे' हमले की योजना की। अपने दल को हमले के लिए चौकन्ना करने के लिए सिखों ने एक कोड बनाया था '12 बज गए'। सिखों के लिए यह वाक्य आज भी वीरता एवं गर्व का प्रतीक है।



यही नहीं कांग्रेसियों ने इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद उनके अंगरक्षकों संत सिंह और बेअंत सिंह के नाम संता-बंता के नाम पर पूरे सिख समुदाय का मजाक उड़ाने की कुत्सित परम्परा शुरू की। परन्तु देश और धर्म के रक्षक बलिदानी सिखों का उपहास करने वालों को शर्म आनी चाहिए। सिख राष्ट्र के शुभचिंतक और हमारे सच्चे भाई हैं।


जान को हथेली पर रखना और हर काम में अव्वल आने के लिए जोर लगाना, ऐसी इमेज है सिखों की। जाहिर है
तभी आर्मी से लेकर ड्राइवरी तक, कोई भी काम जिसमें
ज्यादा रिस्क हो, उसमें सबसे आगे आपको लंबा-चौड़ा गबरू जवान, मूछों को तांव देता दिखाई दे जाएगा। पॉजिटिव सोच इनका 'एक्स फैक्टर' है। किसी भी काम को छोटा न समझने और विरासत में मिली मेहनत की आदत की बदौलत केवल देश के हर प्रान्त में ही नहीं बल्कि दुनियाँ के लगभग हर देश में ऊंचाइयों तक पहुंची है यह कौम।




थामा देश की रक्षा का जिम्मा-

यह बहादुर कौम देश की सुरक्षा में हमेशा आगे रही। पूरे भारत की आबादी का केवल 2% होने के बावजूद भी देश की सेना में 10% योगदान इन्हीं का है।


मुगलों के जमाने से लेकर स्वतंत्रता संग्राम, विश्व युद्धों से लेकर चीन और भारत-पाकिस्तान युद्धों में सिखों की बहादुरी को आज भी हम नहीं भूले हैं।


पिछले दोनों विश्व युद्धों में उन्होंने फ़्रांस, इटली, मलयेशिया, अफ्रीका,बर्मा आदि (सभी यूरोपीय, देशों, मध्य पूर्व तथा दक्षिण पूर्व) देशों में अपनी शूरवीरता के परचम लहराए थे।
आज भी उनकी बेमिसाल बहादुरी को चिरंजीवी बनाने के लिए लगभग सभी देशों में उनकी याद में स्मारक बनाये गये हैं।



इन युद्धों में भी एक लाख से उपर सिख सैनिकों ने अपनी आहुतियाँ दी थीं । आज़ाद हिंद फौज में भी उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है इस की कुल संख्या के लगभग ६०% सिख सैनिक ही थे।


बहुत कम लोगों को पता होगा कि फ्रांस समेत यूरोप के कई देशों में सिखों की बहादुरी की ऐसी अनेकों दास्तां स्कूली बच्चों को पढ़ाई जाती हैं। 'यूनेस्को' की ओर से छापी गई किताब 'स्टोरीज़ ऑफ ब्रेवरी' में ये सब फैक्ट्स आपको मिल जाएंगे।
धर्म और राष्ट्र के रक्षक सिख कौम को पूरे भारत का सलाम ।


गर्व है हमें अपने इन भाईयों पर।
जो बोले सो निहाल..


अपील :- 
14 नवम्बर को बाल दिवस के रूप में मनाना बन्द करें क्योंकि एक एय्यास व अंग्रेजों के एजेंट के बारे में जानकर हमारे बच्चे क्या बनेंगें ये बताने में भी अच्छा नहीं लगता।
बाल दिवस तो जोरावर सिंह (9 वर्ष ) फतहसिंह (6 वर्ष) के लिए होना चाहिए जिन्होंने अपने पूर्वजों के मार्ग पर चलकर 12-12-1705 को दिवार में जीवित मरना मन्जूर किया लेकिन धर्म नहीं बदला दुनिया में ऐसे बालकों का कोई उदाहरण शायद ही मिले।


पोस्ट को पढ़ने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद आपका 🙏







अशोक कुमार वर्मा
    (उत्तर प्रदेश)
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