लोकतंत्र में बढ़ती सत्ता- साधना की चाहत


किसी शायर ने कहा है, कि यहाॅं पर तहजीब बिकती है, यहाॅ पर फरमान बिकते हैं। अरे जरा तुम दाम तो बदलो, यहाॅ  ईमान बिकते हैं।

इस शायरी की चंद लाइनों को वर्तमान लोकतांत्रिक राजनीति के सांचे में देखे, तो हमें मालूमात पड़ता है, कि सत्ता लोलुपता और राजनीतिक सरपरस्ती सोच राजनीतिक दलों पर ऐसी हावी हो रही है, कि अब तहजीब नहीं बल्कि विधायकों की बोली के साथ अन्य अलोकतांत्रिक कार्य भी हो रहें है। बीते दिनों के दो -तीन घटनाक्रम ऐसे भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में दीप्तमान हुए, जिसके कारण लोकतांत्रिक व्यवस्था से जनता का भरोसा तार-तार हुआ। पहला अवसरवादिता की भेंट चढ़ा बिहार। और दूसरा भी अवसरवादी सोच या भी एकछत्र राज करने की चाहत में गुजरात में विधायकों का एक पार्टी से दूसरी पार्टी में जाना। जिसका आरोप कांग्रेस पार्टी ने अपने विधायकों को तोड़ने का भाजपा पर लगाया।


आज देश के सामने सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है, कि लोकतंत्र की छाया में खड़े होने को राजनीतिक विचारधारा का क्यों मोल नहीं रह गया है। क्या इससे लोकतंत्र मजबूत होगा? क्या बिहार में बनी भाजपा और जदयू की सरकार ने स्वस्थ प्रजातंत्र को मजबूत किया है, तो यह सरासर झूठ की बिसात पर खेल खेला जा रहा है। आज देश में छद्म राजनीति का दौर चल रहा है। ऐसी स्थिति में राजनेताओं के अवसरवादी होने पर भले कुछ स्तर पर रोक लग गई है, लेकिन अब तो दल के दल बदल जाते है। उसके लिए क्या कदम उठाएं जाएं। लोकतंत्र में यह विचार करना होगा। वरना जनता के अंतरआत्मा की आवाज ऐसे ही दबती रहेगी।



                                इसके साथ लालू ने नीतीश कुमार से बदला लेने के लिए जिस सीताराम हत्याकांड के मुद्वे को हवा दी, उससे उनकी सत्ता लोभिता और अवसरवादिता साफ पता चलती है। इसके इतर इस मुद्वे से उनकी राजनीति का ही बंटाधार होना है, क्योंकि जनता उनसे सवाल करेगी, कि उन्होने ऐसे शख्स का साथ क्यों दिया, जो आपराधिक छवि का है, तो इसका जवाब लालू के पास क्या होगा। बीते कुछ समय के प्रकारणों पर गौर किया जाएं, तो उससे पता चलता है, कि भाजपा कांग्रेस मुक्त भारत की परिकल्पना के लिए अपने ही सिद्वांतो को ठेंगा दिखा रही है। कालांतर में भाजपा को इस अवसरवादिता की भारी चोट झेलना पड़ सकता है।



               बिहार की राजनीति में हुए अवसरवादी प्रकरण ने देश के सामने कई ज्वलंत प्रश्न  खड़े किए है। क्या आने वाले वक्त में हमारी राजनीतिक व्यवस्था और जनातांत्रिक व्यवस्था में इसके उत्तर ढूढ़ने की कोशिश होगी। यह भविष्य के गर्भ में है। परन्तु जब अब बिहार की सियासत में हुए उठा-पटक के बाद जनता दल यूनाइटेड के पूर्व अध्यक्ष शरद यादव ने अपनी चुप्पी तोड़ी है, कि बिहार की जनमानस ने जदयू को बिहार में भाजपा के साथ आने का जनादेश नहीं दिया था। तो ऐसे में क्या अब नीतीश कुमार और उनकी पार्टी यह जगजाहिर करेगी, कि आखिर ऐसी कौन सी आफत आ गई, कि राजनीतिक गेंद को भाजपा के पाले में डालने को मजबूर हो गए। अगर भ्रष्टाचार एकमात्र कारण था, तो आज के दौर में राजनीति भ्रष्टाचार से अछूती नहीं रही है। फिर भ्रष्टाचार और अंतरमन की आवाज की बात कहां से आ गई।




                                खैर राजनीति में अवसरवाद की पुनरावृत्ति कोई आज का नया ढोंग नहीं है। जब-जब सत्ता की लालसा राजनीतिक दलों में बढ़ी है। तो ऐसा खेल रचा जाता रहा है। और जनादेश की फिक्र शायद किसी ने नहीं किया। वह चाहे कांग्रेस के पिछले साठ वर्षों का शासन रहा हो। अगर सरकार ने अपने सिंहासन के पांच वर्ष पूरे भी किए है, तो उसने कहां जनता के हितार्थ होकर कार्य किया है। इसकी गारंटी आजतक भारतीय राजनीति में कोई लेने को तैयार नहीं है। अगर जनता के मन की ही सुनवाई भारतीय लोकतंत्र में होती, तो देश में आज बेरोजगारी, भूखमरी और मूलभूत सुविधाओं के लिए जनमानस तरस नहीं रहा होता।  आज देश कि राजनीति में जिस तरीके से नंबरों का खेल चल रहा है, वह स्वस्थ लोकतंत्र और जनमानस की आवाज को दबाने का कार्य कर रहा है। ऐसे में देश की संवैधानिक व्यवस्था को कुछ दलीय प्रणाली के चुनाव में बदलाव की तरफ बढ़ना चाहिए। जिससे स्वस्थ जनमानस के मतों का सार्थक उपयोग हो सकें। उसके मतों का निहितार्थ मात्र नंबरों के खेल में जोड़-तोड़ की राजनीति तक संभव न रह सकें।




                                                 वर्तमान भारतीय राजनीति में नरेंद्र मोदी और भाजपा की राह में सबसे बड़ी दुखती नस बिहार थी। ऐसे में अगर बिहार अवसरवाद के रूप में मिला, तो यह वहीं हाल हुआ। जैसे मणिपुर, गोआ की थी। अब भाजपा के साथ सबसे बड़ी चुनौती यह है, कि उसके ऊपर गुजरात और अन्य राज्यों में विधायकों को तोड़ने का आरोप लग रहा है। जिसको लेकर कांग्रेस इसको लोकतंत्र की हत्या बता रही है, लेकिन ऐसे में कांग्रेस को यह याद रखना चाहिए, कि भारतीय लोकतंत्र में जोड़-तोड़ की सियासी रवायत नई नहीं है। इसकी ढ़ाल काफी पुरानी है, और उसकी  खेवनहार भी कांग्रेस ही है। इसलिए लोकतंत्र की हत्या पहले भी हो रही थी, और आज भी हो रही है। जिसकी लाठी, उसकी भैंस की तर्ज पर। ऐसे में आने वाले वक्त की भाजपा और मोदी के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही होगी, कि एकछत्र राज की उसकी रणनीति में वह सफल तो हो रही है, लेकिन जिसका कोई विरोधी नहीं होता, वह निरंकुश  हो जाता है। इसके साथ मंदाधता उसके सिर चढ़कर बोलती है। इसलिए मजबूत विपक्ष का होना आवश्यक  है, नहीं तो उचित- अनुचित का फर्क नहीं हो पाता। जो कांग्रेस के कार्यकाल में भी हुआ था। जिसकी उत्पत्ति अब दिख रही है, कांग्रेस का जड़ से अलग होना।  कहीं आने वाले वक्त में भाजपा को भी यही दिन न देखने पड़े. इसके लिए सचेत रहना होगा, क्योंकि जब देश में व्यक्ति का अर्थ देश हो जाता हैं, फिर दिक्क़त वही से शुरू होती हैं।  जिसको हमारा देश आपातकाल के वक्त देख और महसूस कर चूका हैं।

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