पिछले दिनों खबर आयी कि राहुल गांधी कैलाश मानसरोवर यात्रा पर गए हैं। इसको लेकर जहां कांग्रेस काफी उत्साहित दिखी तो वहीं भारतीय जनता पार्टी के अंदर एक बेचैनी का माहौल देखा जा सकता है।
आखिर यह बेचैनी क्यों? क्या राहुल गांधी इस यात्रा से एक नए अवतार में आएंगे जिससे आने वाले 2019 के लोकसभा के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी सामना करने में असमर्थ होगी या फिर कुछ और ही मसला है।
आपको याद होगा गुजरात के पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान राहुल गांधी के मंदिर जाने को लेकर बड़ा घमासान हुआ था। तब भी बेचैनी ही थी…. और अब भी। लेकिन इससे एक सवाल यह उभरता है कि क्या जनता इस प्रकार के क्रियाकलापों से खुश होकर पार्टियों को सत्ता थमा देती है?
आप सोच रहे होंगे ऐसा तो नहीं है। तो फिर क्या राहुल गांधी ने वास्तव में धार्मिक भावना से ही मंदिरों में आना-जाना लगाया है क्योंकि इसके पहले तो ऐसा कुछ देखने को नहीं मिल रहा था। या फिर कांग्रेस को लोगों ने जो अल्पसंख्यक वर्ग की पार्टी का दर्जा दे दिया है उसको बदलने के लिए राहुल गांधी अलग-अलग मंदिरों में माथा टेकने पहुंच रहे हैं।
इस मसले को समझने के लिए आइए आपको ले चलते हैं 1977 के दौर में जब कांग्रेस थोड़ा कमजोर हुई और गठबंधन का एक नया दौर शुरू हुआ।
इतना तो तय है कि उस समय कांग्रेस पार्टी को किसी विशेष धर्म या जाति से लोग जोड़कर नहीं देखते थे परंतु फिर भी 1977 के लोकसभा चुनाव में वह हारी।
यहां हार का मसला कुछ अलग था जिनमें भ्रष्टाचार, इमरजेंसी लोकतंत्र, अधिकार, स्वतन्त्रता आदि कई सारे मुद्दे काम कर रहे थे।
कांग्रेस की 1977 के चुनाव की हार ज्यादा दिन तक नहीं रही और आने वाले 1980 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी के ही नेतृत्व में कांग्रेस और ज्यादा मजबूती के साथ सत्ता में आई। भले ही उसका कारण गठबंधन का ठीक ढंग से काम ना करना हो लेकिन यहां से इतना तो तय हो गया था कि आने वाले समय में देश को एक नई राजनीति देखने को मिलेगी और हुआ भी आगे यही।
1984 में सिख दंगों के पश्चात बहुसंख्यकवाद का एक नया रूप सामने आया और सहानुभूति के नाम पर कांग्रेस पुनः सत्ता में आई। इसी दशक से देश में बहुसंख्यक को एक अलग प्रकार से लुभाने की राजनीति होने लगी जो कि आज तक बनी हुई है।
मसलन देश में कितने ही ऐसे मुद्दे जो कि आम जनता से जुड़े हुए हों; जिनमें चाहे वह भ्रष्टाचार और बेरोजगारी हो, आंतरिक सुरक्षा हो लेकिन उसमें अब कहीं ना कहीं एक अलग प्रकार से लुभाने की झलक देखने को मिलने लगी।
हालांकि 1989 के लोकसभा चुनाव में यही कारण(भ्रष्टाचार, बेरोजगारी) दिखाए गए कांग्रेस के हारने के जो कि मूलतः थे भी परंतु इस समय कांग्रेस का अल्पसंख्यक वर्गों के प्रति जो उदार रूप दिखा उसको शायद हम इस हार से नहीं जोड़ पाए।
यही कारण है कि 1990 के आस पास आते-आते जब कांग्रेस को यह लगने लगा कि बहुसंख्यक आबादी उससे दूर होती जा रही है तो उसने अयोध्या में विवादित ढांचे के पास राममूर्ति के शिलान्यास करने की आज्ञा दे दी। शायद आपको भी पता होना चाहिए कि 1992 में पुनः कांग्रेस की सरकार बनी। अब इसके पीछे क्या कारण था वह भी आपको समझ आ ही गया होगा।
1992 के पश्चात कांग्रेस ने पुनः उदार रूप ग्रहण किया जिससे बहुसंख्यक आबादी कांग्रेस से दूर होने लगी और इसके पश्चात क्या हुआ यह आप सभी लोग जानते हैं। बहुसंख्यक आबादी को खुश करने के लिए राम मंदिर का मुद्दा इस प्रकार से उठाया गया कि 2 सीटों वाली भाजपा एक ही झिटके में 86 सीटों पर पहुंच गई। और फिर क्या 1996 में अटल जी के नेतृत्व में एक नई सरकार अस्तित्व में आई।
इस नई सरकार के सत्ता में आने के पीछे पूर्ण रूप से बहुसंख्यक आबादी को लुभाना ही था जिसमें चाहे वो मुरली मनोहर जोशी का हिन्दुत्ववाद हो या आडवाणी जी की रथयात्रा। 1999 में पुनः अटल जी के नेतृत्व में सरकार आने के पश्चात अटल जी के उदारवादी रूप के कारण ही 2004 में भारतीय जनता पार्टी को हार का सामना करना पड़ा।
खास बात यह रही कि इसमें कांग्रेस के पास कोई भी बड़ा नेता नहीं था फिर भी वह चुनाव जीती। 2004 और 2009 के चुनाव में भी बहुसंख्यक वर्ग को ही खुश करना था परंतु यह बहुसंख्यक वर्ग एक नए रूप में था जिसमें मजदूर और किसान था।
यह तो थी 2014 के पहले की थोड़ी झलक। अब आते हैं वर्तमान में जब राहुल गांधी मंदिरों का चक्कर लगा रहे हैं। वह भी जान रहे हैं कि बिना बहुसंख्यक आबादी को खुश किए 2019 का चुनाव जीतना बहुत ही मुश्किल है, जबकि देश के सामने कई मुद्दे हैं जिस पर भारतीय जनता पार्टी की सरकार
विफल हो चुकी है।
2014 के एक के बदले 10 सिर वाले नारे से अब बात हो रही है अबकी बार पेट्रोल 100 के पार लेकिन फिर भी राहुल मानसरोवर की यात्रा पर क्यों जा रहे हैं यह बताने की अब मैं जरूरत नहीं समझता। आप समझ ही चुके होंगे।
इस पूरे लेख का मकसद यही है कि हमको यह बात समझनी होगी कि असल में आज के नेता बुनियादी मुद्दों से इतर जनता को अपने पाले में लाने के लिए दिखावा मात्र कर रहे हैं। क्या राहुल गांधी भारत की जनता से यह नहीं बोल सकते कि वह मंदिर-मस्जिद या चर्च नहीं जाते? शायद उनमें वह हिम्मत नहीं जो पंडित जवाहरलाल नेहरु में थी।
क्योंकि पंडित जवाहरलाल नेहरु यदि मंदिर नहीं जाते थे तो वह पूरी तरीके से जनता के सामने बोलते भी थे कि वह ईश्वर को नहीं मानते हैं। और इस बात से ऐसा भी नहीं कि वह चुनाव हारते थे। सबसे ज्यादा समय तक वह भारत के प्रधानमंत्री रहे यह भी हमें नहीं भूलना चाहिये।
अब सवाल यह उठता है कि क्या आज के समय में नेहरू जनता से ऐसे बोल पाते जैसे वह 50 या 60 के दशक में जनता से खुलकर बोलते थे या फिर आज हमको नेहरु के जैसे किसी नेता की जरूरत है।
आखिर यह बेचैनी क्यों? क्या राहुल गांधी इस यात्रा से एक नए अवतार में आएंगे जिससे आने वाले 2019 के लोकसभा के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी सामना करने में असमर्थ होगी या फिर कुछ और ही मसला है।
आपको याद होगा गुजरात के पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान राहुल गांधी के मंदिर जाने को लेकर बड़ा घमासान हुआ था। तब भी बेचैनी ही थी…. और अब भी। लेकिन इससे एक सवाल यह उभरता है कि क्या जनता इस प्रकार के क्रियाकलापों से खुश होकर पार्टियों को सत्ता थमा देती है?
आप सोच रहे होंगे ऐसा तो नहीं है। तो फिर क्या राहुल गांधी ने वास्तव में धार्मिक भावना से ही मंदिरों में आना-जाना लगाया है क्योंकि इसके पहले तो ऐसा कुछ देखने को नहीं मिल रहा था। या फिर कांग्रेस को लोगों ने जो अल्पसंख्यक वर्ग की पार्टी का दर्जा दे दिया है उसको बदलने के लिए राहुल गांधी अलग-अलग मंदिरों में माथा टेकने पहुंच रहे हैं।
इस मसले को समझने के लिए आइए आपको ले चलते हैं 1977 के दौर में जब कांग्रेस थोड़ा कमजोर हुई और गठबंधन का एक नया दौर शुरू हुआ।
इतना तो तय है कि उस समय कांग्रेस पार्टी को किसी विशेष धर्म या जाति से लोग जोड़कर नहीं देखते थे परंतु फिर भी 1977 के लोकसभा चुनाव में वह हारी।
यहां हार का मसला कुछ अलग था जिनमें भ्रष्टाचार, इमरजेंसी लोकतंत्र, अधिकार, स्वतन्त्रता आदि कई सारे मुद्दे काम कर रहे थे।
कांग्रेस की 1977 के चुनाव की हार ज्यादा दिन तक नहीं रही और आने वाले 1980 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी के ही नेतृत्व में कांग्रेस और ज्यादा मजबूती के साथ सत्ता में आई। भले ही उसका कारण गठबंधन का ठीक ढंग से काम ना करना हो लेकिन यहां से इतना तो तय हो गया था कि आने वाले समय में देश को एक नई राजनीति देखने को मिलेगी और हुआ भी आगे यही।
1984 में सिख दंगों के पश्चात बहुसंख्यकवाद का एक नया रूप सामने आया और सहानुभूति के नाम पर कांग्रेस पुनः सत्ता में आई। इसी दशक से देश में बहुसंख्यक को एक अलग प्रकार से लुभाने की राजनीति होने लगी जो कि आज तक बनी हुई है।
मसलन देश में कितने ही ऐसे मुद्दे जो कि आम जनता से जुड़े हुए हों; जिनमें चाहे वह भ्रष्टाचार और बेरोजगारी हो, आंतरिक सुरक्षा हो लेकिन उसमें अब कहीं ना कहीं एक अलग प्रकार से लुभाने की झलक देखने को मिलने लगी।
हालांकि 1989 के लोकसभा चुनाव में यही कारण(भ्रष्टाचार, बेरोजगारी) दिखाए गए कांग्रेस के हारने के जो कि मूलतः थे भी परंतु इस समय कांग्रेस का अल्पसंख्यक वर्गों के प्रति जो उदार रूप दिखा उसको शायद हम इस हार से नहीं जोड़ पाए।
यही कारण है कि 1990 के आस पास आते-आते जब कांग्रेस को यह लगने लगा कि बहुसंख्यक आबादी उससे दूर होती जा रही है तो उसने अयोध्या में विवादित ढांचे के पास राममूर्ति के शिलान्यास करने की आज्ञा दे दी। शायद आपको भी पता होना चाहिए कि 1992 में पुनः कांग्रेस की सरकार बनी। अब इसके पीछे क्या कारण था वह भी आपको समझ आ ही गया होगा।
1992 के पश्चात कांग्रेस ने पुनः उदार रूप ग्रहण किया जिससे बहुसंख्यक आबादी कांग्रेस से दूर होने लगी और इसके पश्चात क्या हुआ यह आप सभी लोग जानते हैं। बहुसंख्यक आबादी को खुश करने के लिए राम मंदिर का मुद्दा इस प्रकार से उठाया गया कि 2 सीटों वाली भाजपा एक ही झिटके में 86 सीटों पर पहुंच गई। और फिर क्या 1996 में अटल जी के नेतृत्व में एक नई सरकार अस्तित्व में आई।
इस नई सरकार के सत्ता में आने के पीछे पूर्ण रूप से बहुसंख्यक आबादी को लुभाना ही था जिसमें चाहे वो मुरली मनोहर जोशी का हिन्दुत्ववाद हो या आडवाणी जी की रथयात्रा। 1999 में पुनः अटल जी के नेतृत्व में सरकार आने के पश्चात अटल जी के उदारवादी रूप के कारण ही 2004 में भारतीय जनता पार्टी को हार का सामना करना पड़ा।
खास बात यह रही कि इसमें कांग्रेस के पास कोई भी बड़ा नेता नहीं था फिर भी वह चुनाव जीती। 2004 और 2009 के चुनाव में भी बहुसंख्यक वर्ग को ही खुश करना था परंतु यह बहुसंख्यक वर्ग एक नए रूप में था जिसमें मजदूर और किसान था।
यह तो थी 2014 के पहले की थोड़ी झलक। अब आते हैं वर्तमान में जब राहुल गांधी मंदिरों का चक्कर लगा रहे हैं। वह भी जान रहे हैं कि बिना बहुसंख्यक आबादी को खुश किए 2019 का चुनाव जीतना बहुत ही मुश्किल है, जबकि देश के सामने कई मुद्दे हैं जिस पर भारतीय जनता पार्टी की सरकार
विफल हो चुकी है।
2014 के एक के बदले 10 सिर वाले नारे से अब बात हो रही है अबकी बार पेट्रोल 100 के पार लेकिन फिर भी राहुल मानसरोवर की यात्रा पर क्यों जा रहे हैं यह बताने की अब मैं जरूरत नहीं समझता। आप समझ ही चुके होंगे।
इस पूरे लेख का मकसद यही है कि हमको यह बात समझनी होगी कि असल में आज के नेता बुनियादी मुद्दों से इतर जनता को अपने पाले में लाने के लिए दिखावा मात्र कर रहे हैं। क्या राहुल गांधी भारत की जनता से यह नहीं बोल सकते कि वह मंदिर-मस्जिद या चर्च नहीं जाते? शायद उनमें वह हिम्मत नहीं जो पंडित जवाहरलाल नेहरु में थी।
क्योंकि पंडित जवाहरलाल नेहरु यदि मंदिर नहीं जाते थे तो वह पूरी तरीके से जनता के सामने बोलते भी थे कि वह ईश्वर को नहीं मानते हैं। और इस बात से ऐसा भी नहीं कि वह चुनाव हारते थे। सबसे ज्यादा समय तक वह भारत के प्रधानमंत्री रहे यह भी हमें नहीं भूलना चाहिये।
अब सवाल यह उठता है कि क्या आज के समय में नेहरू जनता से ऐसे बोल पाते जैसे वह 50 या 60 के दशक में जनता से खुलकर बोलते थे या फिर आज हमको नेहरु के जैसे किसी नेता की जरूरत है।