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पिछले कई दिन से काफी कशमकश चल रही थी दिमाग में, समाज में हम महिलाओं के प्रति सोच को लेकर एक महिला का चरित्र तय करने वाला समाज कौन होता है।अगर कोई महिला अपने घर से निकल कर बाहर काम करती है तो इसका मतलब ये नहीं कि वो चरित्रहीन है या अवैलेबल है।
इस समय मुझे पिंक मूवी का वो सीन याद आ रहा है जिसमे वकील बने हुए अमिताभ बच्चन अपराधी से ये बुलवाने में कामयाब हो ही जाते है, कि उसने अपनी सह कर्मी का यौन शोषण इसलिए किया क्योंकि वो छोटे कपड़े पहनती थी, शराब पीती थी और लेट नाईट घर से निकल कर बाहर काम करती थी| हमारे घरों में ऐसा नहीं होता हम भले घर से है । इसका तो सीधा मतलब ये हुआ कि ऐसी महिलायें जो कम कपड़े पहनती है या शराब पीती है अपने घर से निकल कर बाहर काम करती है या लेट नाईट काम करती है वो मंदिर में मिलने वाले प्रसाद की तरह ही है,जो सबको मिलेगा ही।
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कितनी अजीब बात है जिस देश में महिलाओं को देवी दुर्गा और भी पता नहीं क्या क्या नाम दिए गए हैं उसी देश में महिलायें सबसे ज्यादा असुरक्षित हैं।कुछ सालों पहले दिल्ली में एक महिला रिपोर्टर की हत्या से दहल गई थी तो तत्कालीन मुख्य मंत्री जो खुद भी एक महिला थी कहती है, क्या जरूरत थी इतनी रात में घर से बाहर रहने की। कुछ महिला राजनेता को तो ये तक कहते सुना है कि रेप तो होते आ रहे है इसमें नया क्या है।रेप शब्द बहुत छोटा है।हम उस औरत की पीड़ा महसूस भी नहीं कर सकते जिसका रेप हुआ है।क्योंकि रेप उसके शरीर का नहीं उसकी आत्मा का होता है।शरीर पर लगे घाव तो वक्त के साथ भर ही जाते है पर क्या आत्मा पर लगा घाव कभी भर सकता है? शायद कभी नहीं।मात्र आठ महीने की बच्ची जिसे ढंग से बोलना और खाना भी न आया हो क्या उसने भी कोई भड़कीली ड्रेस पहन रखी थी। तीन साल की बच्ची, एक साल की बच्ची, अब कोई फर्क नहीं पड़ता कि लड़की की उम्र क्या है। बच्चियों का दोष सिर्फ इतना था कि उन्होंने एक लड़की के रूप में इस धरती पर जन्म लिया था।कितना खोखला है हमारा समाज एक तरफ तो कन्या को देवी के रूप में पूजता है और दूसरी तरफ भेड़िये उसके शरीर को नोच खाने के लिए आतुर रहते है।हर चेहरा मुझे बनावटी दिखता है पता नहीं किस चेहरे के पीछे कोई भेड़िया छुपा हो।
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अभी हाल में ही मैंने एक न्यूज़ पढ़ी जिसमे एक महिला ने उन लड़कियों के कपड़ों की प्रदर्शनी लगाई थी जो वो रेप के वक्त पहने हुए थे बहुत दुःख हुआ ये देखकर कि उसमे एक पांच साल की बच्ची की फ्रॉक भी थी।और वो सारे कपड़े कहीं से भी अश्लील नही दिख रहे थे।अश्लीलता हमारे कपड़ो में नहीं लोगों के दिमाग में है।ये न्यूज़ उन लोगों के गाल पर एक तमाचा थी जो ये कहते है कि लड़कियां ही रेप को आमंत्रण देती है।आज हमारी सरकार बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ और महिला सशक्तिकरण के भले ही नारे दे रही हो।माँ ने अगर अपनी बच्ची को अपने गर्भ में मरने से तो बचा लिया।तो क्या हमारे समाज में भी इतनी औकात है कि उसे खुले घूमते हुए भेडियों से भी बचा सके। क्या हमारी बच्ची जब मन चाहे बिना डरे घर से रात में भी बाहर निकल सकती है या हर समय उसकी पहरेदारी करना जरुरी है।मेरे कहने का मतलब है कि सिर्फ प्रशिक्षण देने या नारे लगाने से ही महिलाये सशक्त नहीं होंगी।उन्हें मौका देना होगा विश्वास करना होगा और सबसे बड़ी बात सोच, हमे अपनी सोच बदलनी होगी।और शुरुआत हमे अपने ही घर से करनी होगी। अगर मैं मेरी जैसी कामकाजी महिलाओं की बात करूँ तो हम में से कितनी ऐसी महिलाएं है, जो अपने आपको सुरक्षित महसूस करती हैं? अधिकतर महिलाओं का जबाब ना में होगा। सभी को रोज अपने आत्म सम्मान के लिए लड़ाई लड़नी पड़ती है अगर मैं घरेलू महिला मतलब हाउस वाइफ की बात करूँ तो कम से कम ये ताना तो हर औरत को सुनने मिलता ही है तुम घर में पड़े-पड़े करती ही क्या हो रिमोट ही तो चलाती हो दिन भर।पैसा कैसे कमाया जाता है तुम क्या जानो।जो औरत फुल टाइम मेड का काम करती हो बीमारी पर छुट्टी भी नहीं लेती हो कोई बहाना भी न करती हो अपना 100 परसेंट देती हो उसको ये शब्द अंदर तक भेद देते है। फिर भी उफ़ नहीं करती सिर्फ अपना काम करती है।अगर उन पैसे कमाने वाले साहब से ये कहा जाये कि जरा फुल टाइम मेड लगा कर तो देखो और उसे पेमेंट कर के तो देखो तो वो शायद ही कर पाये।लिखने को तो अब भी बहुत कुछ है लsकिन अंत में, मैं सिर्फ यही कहना चाहूंगी मेरे लिए तो सशक्तिकरण का मतलब तब सार्थक होगा, जब हम मनमर्जी खुल कर हस सकते है बात कर सकते है रात को भी बिना पेहरेदार के बाहर निकल सकते है। जब कोई लड़की दहेज़ के कारण जलाई न जाये। किसी भी लड़की का रेप न हो। कोई लड़की माँ के गर्भ में ही न मारी जाये। आपका क्या ख्याल है जरूर बतायें।
डिस्क्लेमर: इस पोस्ट में व्यक्त की गई राय लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं।https://ashok68.blogspot.com
पिछले कई दिन से काफी कशमकश चल रही थी दिमाग में, समाज में हम महिलाओं के प्रति सोच को लेकर एक महिला का चरित्र तय करने वाला समाज कौन होता है।अगर कोई महिला अपने घर से निकल कर बाहर काम करती है तो इसका मतलब ये नहीं कि वो चरित्रहीन है या अवैलेबल है।
इस समय मुझे पिंक मूवी का वो सीन याद आ रहा है जिसमे वकील बने हुए अमिताभ बच्चन अपराधी से ये बुलवाने में कामयाब हो ही जाते है, कि उसने अपनी सह कर्मी का यौन शोषण इसलिए किया क्योंकि वो छोटे कपड़े पहनती थी, शराब पीती थी और लेट नाईट घर से निकल कर बाहर काम करती थी| हमारे घरों में ऐसा नहीं होता हम भले घर से है । इसका तो सीधा मतलब ये हुआ कि ऐसी महिलायें जो कम कपड़े पहनती है या शराब पीती है अपने घर से निकल कर बाहर काम करती है या लेट नाईट काम करती है वो मंदिर में मिलने वाले प्रसाद की तरह ही है,जो सबको मिलेगा ही।
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कितनी अजीब बात है जिस देश में महिलाओं को देवी दुर्गा और भी पता नहीं क्या क्या नाम दिए गए हैं उसी देश में महिलायें सबसे ज्यादा असुरक्षित हैं।कुछ सालों पहले दिल्ली में एक महिला रिपोर्टर की हत्या से दहल गई थी तो तत्कालीन मुख्य मंत्री जो खुद भी एक महिला थी कहती है, क्या जरूरत थी इतनी रात में घर से बाहर रहने की। कुछ महिला राजनेता को तो ये तक कहते सुना है कि रेप तो होते आ रहे है इसमें नया क्या है।रेप शब्द बहुत छोटा है।हम उस औरत की पीड़ा महसूस भी नहीं कर सकते जिसका रेप हुआ है।क्योंकि रेप उसके शरीर का नहीं उसकी आत्मा का होता है।शरीर पर लगे घाव तो वक्त के साथ भर ही जाते है पर क्या आत्मा पर लगा घाव कभी भर सकता है? शायद कभी नहीं।मात्र आठ महीने की बच्ची जिसे ढंग से बोलना और खाना भी न आया हो क्या उसने भी कोई भड़कीली ड्रेस पहन रखी थी। तीन साल की बच्ची, एक साल की बच्ची, अब कोई फर्क नहीं पड़ता कि लड़की की उम्र क्या है। बच्चियों का दोष सिर्फ इतना था कि उन्होंने एक लड़की के रूप में इस धरती पर जन्म लिया था।कितना खोखला है हमारा समाज एक तरफ तो कन्या को देवी के रूप में पूजता है और दूसरी तरफ भेड़िये उसके शरीर को नोच खाने के लिए आतुर रहते है।हर चेहरा मुझे बनावटी दिखता है पता नहीं किस चेहरे के पीछे कोई भेड़िया छुपा हो।
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अभी हाल में ही मैंने एक न्यूज़ पढ़ी जिसमे एक महिला ने उन लड़कियों के कपड़ों की प्रदर्शनी लगाई थी जो वो रेप के वक्त पहने हुए थे बहुत दुःख हुआ ये देखकर कि उसमे एक पांच साल की बच्ची की फ्रॉक भी थी।और वो सारे कपड़े कहीं से भी अश्लील नही दिख रहे थे।अश्लीलता हमारे कपड़ो में नहीं लोगों के दिमाग में है।ये न्यूज़ उन लोगों के गाल पर एक तमाचा थी जो ये कहते है कि लड़कियां ही रेप को आमंत्रण देती है।आज हमारी सरकार बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ और महिला सशक्तिकरण के भले ही नारे दे रही हो।माँ ने अगर अपनी बच्ची को अपने गर्भ में मरने से तो बचा लिया।तो क्या हमारे समाज में भी इतनी औकात है कि उसे खुले घूमते हुए भेडियों से भी बचा सके। क्या हमारी बच्ची जब मन चाहे बिना डरे घर से रात में भी बाहर निकल सकती है या हर समय उसकी पहरेदारी करना जरुरी है।मेरे कहने का मतलब है कि सिर्फ प्रशिक्षण देने या नारे लगाने से ही महिलाये सशक्त नहीं होंगी।उन्हें मौका देना होगा विश्वास करना होगा और सबसे बड़ी बात सोच, हमे अपनी सोच बदलनी होगी।और शुरुआत हमे अपने ही घर से करनी होगी। अगर मैं मेरी जैसी कामकाजी महिलाओं की बात करूँ तो हम में से कितनी ऐसी महिलाएं है, जो अपने आपको सुरक्षित महसूस करती हैं? अधिकतर महिलाओं का जबाब ना में होगा। सभी को रोज अपने आत्म सम्मान के लिए लड़ाई लड़नी पड़ती है अगर मैं घरेलू महिला मतलब हाउस वाइफ की बात करूँ तो कम से कम ये ताना तो हर औरत को सुनने मिलता ही है तुम घर में पड़े-पड़े करती ही क्या हो रिमोट ही तो चलाती हो दिन भर।पैसा कैसे कमाया जाता है तुम क्या जानो।जो औरत फुल टाइम मेड का काम करती हो बीमारी पर छुट्टी भी नहीं लेती हो कोई बहाना भी न करती हो अपना 100 परसेंट देती हो उसको ये शब्द अंदर तक भेद देते है। फिर भी उफ़ नहीं करती सिर्फ अपना काम करती है।अगर उन पैसे कमाने वाले साहब से ये कहा जाये कि जरा फुल टाइम मेड लगा कर तो देखो और उसे पेमेंट कर के तो देखो तो वो शायद ही कर पाये।लिखने को तो अब भी बहुत कुछ है लsकिन अंत में, मैं सिर्फ यही कहना चाहूंगी मेरे लिए तो सशक्तिकरण का मतलब तब सार्थक होगा, जब हम मनमर्जी खुल कर हस सकते है बात कर सकते है रात को भी बिना पेहरेदार के बाहर निकल सकते है। जब कोई लड़की दहेज़ के कारण जलाई न जाये। किसी भी लड़की का रेप न हो। कोई लड़की माँ के गर्भ में ही न मारी जाये। आपका क्या ख्याल है जरूर बतायें।
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