कोई भी गुण जो इंसान की मान्यता या स्वयं की उपज हो, वो धर्म ही है . यह गुण स्वाभाविक भी हो सकता है.
जैसे अगर आग जलती है तो हम ये कह सकते हैं की जलना आग का धर्म है. जलन के बिना, तेज के बिना और गर्मी के बिना आग की कोई महत्ता ही नहीं. यहीं धर्म है.
मनुष्य ने धर्म को अपने अपने हिसाब से परिभाषित कर दिया. किसी ने उसे हिन्दू कहा, किसी ने मुस्लिम, किसी ने सिख तो किसी ने ईसाई. किसी-किसी ने मानवता को धर्म बताया.
“वेदों की तरफ लौटो”, ये नारा दिया था स्वामी विवेकानंद ने. वेदों ने बहुत कुछ सिखाया है. वेदों के अनुसार, “मनुर्भव बनो.” यानि की वेद कहते हैं, मनुष्य बनो, यहीं धर्म है. वेद सिर्फ हिन्दू के नहीं हैं. वेद सबके हैं. क्यूंकि जीवन और धर्म को जिस तरह से वेद देखता है, कोई भी और धार्मिक ग्रंथ नहीं देखता.
जैसे कभी भी अगर कोई, समाज, कोई वास्तु या यन्त्र बनता है तो उसके सही सञ्चालन के लिए कुछ नियम कानून बनाये जाते हैं. ऐसे हिन् परमात्मा द्वारा हमारे सभी कार्यों के लिए कुछ नियम हैं. वैदिक धर्म के अलावा जितने भी धर्म आएं वो सब व्यक्तियों द्वारा हीं चलाये गए. फिर उन्होंने अपने को ईश्वर का दूत, ईश्वर का पुत्र, ईश्वर के गण , ईश्वर का अंश बताया और लोगों ने उनका अनुसरण किया. किन्तु ये सब तो धर्म मनुष्यों को बाटने का काम करते थे. फिर? सच्चा धर्म क्या है?
सच्चा धर्म वही है, जिसकी मैंने अभी बात की. वो धर्म जो संपूर्ण विश्व को एक ही नज़र से देखता है. जो सबको एक ही समझता है और जिसे सबको अपना कहने में झिझक महसूस नहीं होती. उस धर्म को हम वेद-धर्म कहते हैं.
वेद किसने लिखा, कब लिखा इसके बारे में बस अपवाद ही है. इसलिए अगर ये कहा जाये कि यहीं वैदिक रचनायें मनुष्य के धर्म को सही सही परिभाषित करती हैं तो गलत नहीं होगा. हाँ, फिर शायद इसपर भी मनुष्य अपने धर्म का लेबल लगा दे.
अशोक कुमार वर्मा
(उत्तर प्रदेश)
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