इंसान की फितरत


वंदे मातरम्
''न मैं कवी हूँ न कवितायें , मुझे अब रास आती हैं , मैं इनसे दूर जाता हूँ , ये मेरे पास आती हैं, हज़ारों चाहने वाले, खड़े हैं इनकी राहों में, मगर कुछ ख़ास मुझमें है , ये मेरे साथ आती हैं।''

अच्छाई विरूपता है और बुराई व्यक्ति का मूल स्वाभाव। अच्छाई सिखाई जाती है और बुराई जन्म से व्यक्ति में विद्यमान होती है। स्वाभाव से हर व्यक्ति उद्दण्ड होता है किन्तु विनम्रता ग्रहण या अनुकरण करने की विषय-वस्तु होती है।


विरूपता सीखी जाती है। वास्तव में किसी भी शिशु के व्यवहारिक विरूपण की प्रक्रिया उसके जन्म के समय से ही प्रारम्भ हो जाती है। परिवार के सभी सदस्य विरुपक होते हैं। सबका सामूहिक उद्देश्य होता है कि कैसे शिशु का आचरण मर्यादित हो,व्यवहारिक हो और बोधगम्य हो…ये सभी तत्त्व विरुपक तत्व हैं जिनको ग्रहण किया या कराया जाता है।


किसी नावजात शिशु को यदि समाज से पृथक रखा जाए और उसे किसी भी सामाजिक व्यवस्था से अनभिज्ञ रखा जाए(जैसे-सम्बन्ध,रिश्ते,भाषा,विज्ञान,प्रसन्न्ता,दुःख और व्यवहारिकता..इत्यादि) तो उसका स्वाभाव मानवीय आचरण के अनुरूप नहीं होगा। तब वह अपने मूल स्वाभाव में होगा। तब वह सृष्टि के आदिम छलावे से मुक्त होगा। जो होगा वही दिखेगा। उच्छश्रृंखल होगा और सभ्यता के आवरण को ओढ़ेगा भी नहीं।


फिर न उसे सम्मान का मोह होगा न अपमान का भय। वह इन सभी विरुपक तत्वों से भिन्न होगा।
किन्तु कहाँ इस जग को किसी भी व्यक्ति का मूल स्वाभाव स्वीकार्य होता है। सब विरूपता चाहते हैं। सब चाहते हैं कि व्यक्ति बदले। किन्तु क्यों बदले यह तर्क किसी के पास नहीं है।


मेरा एक मित्र है। बहुत सरल,सभ्य और संस्कारित है। विनम्रता उसकी विशिष्टता है। वह सबको अच्छा लगता है। एक दिन एक महाशय मिले। उन्हें उसमें भी
अनंत दोष दिखने लगे। उन्होंने मेरे मित्र के चरित्र-चित्रण में अपना जो बहुमूल्य समय गवांया उसमें उनके चिंतन का मुख्य बिन्दु केवल उसका सीधापन था। कहने लगे कि उसका सीधापन उसके प्रगति में बाधक है। उनके कहने का सार बस इतना सा था कि पागलपन और सीधापन एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं।


उनके कथनानुसार सीधा व्यक्ति समाज में जीवित रहने योग्य नहीं होता इस लिए चालाक बनो।


मेरे मित्र का मूल स्वाभाव उसकी सरलता है तो वह क्यों जटिल बने?क्यों कुटिलता सीखे? क्यों विरूपण स्वीकारे? यदि वह बदल भी जाये तो बदला हुआ रूप क्या उसके परिवार को स्वीकार होगा? क्या खुद को बदलकर वह अपने आपको झेल पाएगा?? जवाब शायद नहीं ही होगा।


एक मेरे परिचित हैं। बहुत चालाक हैं। उनकी चालाकी धूर्तता की सीमा लांघती है। बनावटी भाषा, और अभिनय देखकर चिढ़न भी होती है। कई बार बात करते हैं तो मैं अनसुना कर देता हूँ। कई बार बात भी नहीं सुनता बीच में ही उठकर चला जाता हूँ। उन्हें लगता है कि वो मुझे बेवकूफ़ बना रहे हैं और मैं बेवकूफ़ बन भी रहा हूँ।
मैं भी सोचता हूँ कि चलो भाई! ग़लतफ़हमी जरूरी है..उन्हें इसी में आनंद मिलता है तो ईश्वर करे सतत् इसी कार्य में वो लगे रहें…हाँ! अलग बात है कि महाशय दीन-प्रतिदिन अपना विश्वास खोते जा रहे हैं। कई बार जब वे सच बोलते हैं लेकिन मुझे विश्वास ही नहीं होता उनके किसी भी बात पर।



अगर ये महाशय तनिक सी विरूपता सीखें और सरल स्वाभाव के हो जाएं तो इन्हें सब विश्वास और सम्मान की दृष्टि से देखेंगे…पर निःसंदेह उनका सरल होना उनके मूल स्वभाव को और बनावटी बना देगा।


तात्पर्य यह कि आप जैसे हैं वैसे ही रहिये। किसी के कहने पर मत बदलिए, लोगों की सुनेंगे तो सब आपको अपने हितों के अनुसार बदलने को कहेंगे।
किसी के लिए बदलना अपराध है। बदलाव तभी आ सकता है जब आपको लगे कि आप अव्यवहरिक हो रहे हैं। बदलाव अपने प्रकृति के अनुसार अपने आप में लाइये…ऐसा परिवर्तन जिसे आपका ह्रदय स्वीकार कर सके वह आपका मूल स्वाभाव होगा किन्तु यदि इससे इतर आप कोई परिवर्तन आप स्वयं में लाना चाहते हैं तो वह विशुद्ध विरूपण होगा।



विरूपित व्यक्तित्त्व को मन स्वीकार कर नहीं पाता।
पुष्प की शोभा केवल तभी तक है कि जबतक वह अपनी शाखा से संयुग्मित है, जैसे ही शाखा से विलगन होता है वह सूख जाती है…उसके विग्रह का विरूपण उसे स्वीकार नहीं होता और वह सूख जाता है….यही स्थिति व्यक्ति के साथ है। जब किसी को परिवर्तन के लिए बाध्य किया जाता है तब उसके स्वभाव में परिवर्तन नितांत कुंठा ही होती है।




जो जैसा है वैसा ही रहे…..बाध्यकारी परिवर्तन विरूपण है….अनैसर्गिक है….और जो नैसर्गिक नहीं है वह अपनाने योग्य नहीं है….

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