क्या लोकतंत्र खतरे में है;

लोकतंत्र खतरे में है इस वाक्य को हर दूसरा विपक्षी नेता आजकल दोहरा रहा है। इस बात में कितनी सच्चाई है। क्या वाकई सत्ताधारी दल अपने राजनीतिक लाभ के लिए लोकतंत्र की मूल भावना से खिलवाड़ कर रही है या फिर यह एक चुनावी जुमला है जो आने वाले लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए गढ़ा गया है। इस बात को समझने के लिए सबसे पहले यह जान लेना आवश्यक है कि लोकतंत्र होता क्या है?

लोकतंत्र क्या है? अगर इस सवाल का जवाब पूछा जाए तो अधिकांश लोग एक रटा रटाया जवाब देंगे, “जनता के लिए, जनता के द्वारा, जनता का शासन”। यानी की एक ऐसी शासन वयवस्था जिसमें आम आदमी सीधे शामिल होता है। दावा किया जाता है कि लोकतंत्र से बेहतर शासन व्यवस्था पूरी दुनिया में कोई और नहीं है। क्योंकि इस वयवस्था में लोक यानी की जनता के पास अपना शासक खुद चुनने का अधिकार होता है। दरअसल लोकतंत्र की जो परिभाषा हमें रटाया गया है उसे वर्षो पहले अब्राहम लिंकन ने दिया था। लिंकन ने समाज को दो हिस्सों में बांटा था एक शासक और दूसरा शासित वर्ग। दोनों के अपने अपने अधिकार और कर्तव्य भी दिए गए है। इसमें कई शक नहीं है कि लोकतंत्र एक उन्नत शसान प्रणाली है लेकिन क्या भारत जैसे देश में जहां पर समाज कई जाति और धर्मों में बटा हुआ है वहां लिंकन का लोकतंत्र अपनी मूल भावनाओं को छू भी सकता है, अगर हां तो कितना और कैसे? 

1947 में जब देश आजाद हुआ तो देश का शासन चलाने के लिए लोकतंत्र को चुना गया। देश के सभी नागरिकों को मताधिकार का अधिकार दिया गया। यह सोच कर कि जनता की भागीदारी से एक बेहतर शासन व्यवस्था का निर्माण होगा। जिसमें समाज के हर वर्ग को बिना किसी भेदभाव के उसका हक मिलेगा। चारों तरफ खुशहाली होगी, सभी का विकास होगा, किसी के साथ भेदभाव नहीं होगा, लेकिन देश की आजादी के सत्तर साल बाद भी हम लोकतंत्र के मूल उद्देश्य को कायम करने में नाकाम रहे है। ऐसे में सवाल उठता है कि इसके लिए कौन जिम्मेदार है। सत्ताधारी दल, विपक्षी दल या फिर वो जनता जिसे लोकतंत्र का जनार्दन कहा जाता है। क्योंकि शासक कौन होगा यह फैसला करने का अधिकार तो जनता के पास होता है। 

2014 के लोकसभा चुनाव के बाद एक नई बहस तेज हो गई है। विपक्षी दल के नेता और कुछ बुद्धिजीवी बार बार दावा कर रहे है कि लोकतंत्र खतरे में है। बार बार दावा किया जा रहा है कि सत्ताधारी दल लोकतंत्र की मूल भावनाओं का हनन कर रही है। वहीं सत्ताधारी दल के नेता भी खुलकर कहते दिखाई दे रहे है कि विपक्ष के पास कोई काम नहीं है इसलिए लोकतांत्रिक मुल्यों का मजाक बना रही है और इस खेल में कुछ विचारधारा विशेष के लोग उनका साथ दे रहे हैं। कौन सच बोल रहा है और कौन झूठ इस बात का फैसला जनता को करना है क्योंकि लोकतंत्र में जनता ही जनार्दन है। राजनीतिक स्तर पर अगले साल 2019 में होने वाले आम चुनाव की तैयारी शुरू हो गई है। राजनीतिक दलों की दुकानें सजने लगी है। आने वाले पांच साल के लिए सत्ता के केंद्र में कौन बैठेगा इस बात पर जनता की अदालत में फैसला होने वाला है। लिहाजा कोई भी राजनीतिक दल अपनी दावेदारी ठोकने में पिछड़ना नहीं चाहता है। जो दल खुद को इस चुनावी दंगल में कमजोर महसूस कर रहा है वह दूसरे दलों के सहारे सत्ता के केंद्र में बैठके के फिराक में है। रास्ते भले ही अलग हो लेकिन सभी राजनीतिक दलों का एक ही मकसद है, 2019 के आम चुनाव में अपनी जीत का परचम लहराना।

लोकतंत्र के महापर्व की तैयारी के साथ ही मौजूदा मोदी सरकार जनता की अदालत में अपनी उपलब्धियों के साथ और विपक्षी दल के नेता सरकार की नाकामियों का पुलिंदा लेकर जाना शुरू कर दिया है। सार्वजनिक मंचों से आरोप प्रत्यारोप का खेल शुरू हो गया है। जनता के सामने सच और झूठ के बीच के फर्क को समझने की चुनौती है। कोई राम के नाम पर, तो कई दलित और मुसलमान के नाम पर, तो कोई पिछड़ों के नाम पर अपने वोटरों को गोलबंद करने में लगा है। हर पार्टी वोटबैंक के आधार पर अपनी रणनीति का निर्धारण करती है। जिस क्षेत्र में जैसे वोटर हैं उसी के हिसाब से भाषण दिया जाता है। अगर फार्मूला सफल रहा तो अगले पांच साल के लिए सत्ता सुख पक्की है। अब उस सवाल पर आते है कि क्या वाकई देश में लोकतंत्र खतरे में है या फिर ये एक राजनीतिक जुमला है जिसके सहारे विपक्ष सत्ता पक्ष को पटखनी देने के फिराक में है। दरअसल, अगर इसे सुविधा की राजनीति कहा जाए तो गलत नहीं होगा। लोकतंत्र में जनमत तैयार करने के लिए सत्ता पक्ष और विपक्ष की तरफ से बयान दिए जाते रहे है और अपनी बातों की पुष्टि के लिए कुछ सबूत भी पेश किए जाते है। जिसका एक मात्र मकसद जनता के बीच अपनी छवि को मजबूत करना होता है ताकि चुनाव में इसका फायदा उठाया जा सके। आज भी यही हो रहा है लोकतंत्र के नाम पर राजनीतिक रोटियां सेंकी जा रही है। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों की खेमा खुद को लेकतंत्र का हमदर्द और दूसरे पक्ष को हत्यारा बताने में लगा है। ऐसे में लोकतंत्र के रक्षा की जिम्मेदारी जनता के पास है। जनता को सच और झूठ के बीच का फर्क समझना होगा।

लिंकन के लोकतंत्र के दो हिस्से थे शासक और शासित। लेकिन भारतीय लोकतंत्र का एक कड़वा सच यह है कि मौजूदा दौर में शासित वर्ग जिसे अपना शासक चुनना है वो खुद हिन्दू, मुसलमान, सवर्ण, दलित, अगड़ा, पिछड़ा, महिला और पुरुष में बटा हुआ है। ऐसे में जनता का जो भी फैसला आएगा उसमें इस बटवारे की झलक भी दिखाई देगी। यह एक महत्वपूर्ण कारण है कि चुनाव में बहुमत मिलने के बाद भी सत्ताधारी दल को विरोध का सामना करना पड़ता है। शासक पर समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चलने का दायित्व होता है लेकिन समाज का एक वर्ग उस पर विश्वास नहीं करता है। ऐसे में सत्तापक्ष की एक छोटी लापरवाही विरोधियों को हंगामा करने का मौका दे देती है। जब जनता खुद ही जाति और धर्म के नाम पर कई टुकड़ों में बटी हो तो राजनीतिक दल सत्ता के लिए उनका इस्तेमाल तो करेंगे ही। 

लोकतंत्र एक उपयुक्त शासन प्रणाली है लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि लोक जातिगत भावना से ऊपर उठकर समाज और देश के हित में अपने मताधिकार का इस्तामाल करे। वोट देने से पहले उम्मीदवार के जाति और धर्म के बजाय उसके काम को देखा जाए जो उसके समाज के लिए किया है। जब तक मतदाता जाति और धर्म से ऊपर उठकर मतदान नहीं करेगा तब तक लोभ-लालच और लोक-लुभावन वादों का खेल हर चुनाव में होता रहेगा। लोकतंत्र की रक्षा के लिए जरूरी है कि मतदाता ईमानदार बनें क्योंकि वोट का अधिकार तो जनता के पास ही है।

अशोक कुमार वर्मा
उत्तर प्रदेश

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