आज जब तीन तलाक, हलाला, महिलाओं और दलितों का मन्दिर प्रवेश, महिला आरक्षण,आदि विषयों पर तीखी चर्चा होती है तो अम्बेडकर का स्मरण स्वाभाविक है। भारतीय संविधान के निर्माता डाक्टर अम्बेडकर कानून के ज्ञाता होने के साथ एक पक्के राष्ट्रवादी थे और इतिहासकार दुर्गादास ने अपनी पुस्तक ''इंडिया फ्राम कर्जन टु नेहरू ऐंड आफ्टर'' में पृष्ठ 236 पर लिखा भी है ''ही वाज़ नेशनलिस्ट टु द कोर''। उनकी सबसे बड़ी चिन्ता थी भारत के दलितों और अछूतों को सशक्त बनाकर समाज में सम्मान दिलाना। इस विषय पर उन्होंने किसी से समझौता नहीं किया और हिन्दू समाज को बटने भी नहीं दिया। जब 1932 में अंग्रेजी हुकूमत हरिजनों के लिए अलग मतदाता सूची और मतदान व्यवस्था करके हिन्दू समाज को बांटना चाहती थी तो अम्बेडकर ने मदनमोहन मालवीय और गांधी जी से सहमति जताते हुए समझौता किया था। उन्होंने दलितों के हितों की रक्षा करते हुए हिन्दू एकता को बचा लिया था।
25 नवंबर 1949 को डॉ अम्बेडकर ने ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष के रूप में डॉ राजेंद्र प्रसाद को संविधान का आखिरी मसौदा सौंपा।
अम्बेडकर का मानना था कि आजादी के बाद भी अनुसूचित और पिछडी जातियों का शोषण हो रहा था, कोई बदलाव नहीं आया था, सरकारी नौकरियों में उनका चयन नहीं हो रहा था। उन्होंने 10 वर्ष के लिए उन्हें आरक्षण की व्यवस्था कराई। अपने त्यागपत्र में अम्बेडकर ने कहा था कि प्रधानमंत्री नेहरू हर समय मुसलमानों की सुरक्षा के विषय में सोचते हैं लेकिन अनुसूचित जातियों की हालत के विषय में नहीं। अम्बेडकर का मिशन था अनुसूचित जातियों का उत्थान जो सरकार में रहकर भी पूरा नहीं हो रहा था ।
अम्बेडकर को अत्यधिक पीड़ा हुई थी नेहरू की विदेश नीति से जिसके कारण कुछ ही वर्षों में भारत दुनिया में अलग-थलग पड़ गया था। उनके अनुसार भारत को अपनी रक्षा पर बहुत अधिक इसलिए खर्चा करना पड़ रहा था क्योंकि दुनिया का कोई देश मुसीबत की घड़ी में हमारा साथ देने वाला नहीं था। उनके हिसाब से पाकिस्तान के साथ हमारे झगड़े की जड़ में हमारी विदेश नीति थी। पाकिस्तान के साथ दो मुद्दे थे और शायद अभी भी हैं। पहला कश्मीर और दूसरा पूर्वी पाकिस्तान, अब बंगलादेश, में हिन्दुओं की हालत। दूसरे विषय को लेकर डाक्टर श्यामाप्रसाद मुखर्जी भी आहत थे और उन्होंने भी नेहरू मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया था।
कश्मीर पर डॉक्टर अम्बेडकर का विचार बहुत ही स्पष्ट था। उनका सोचना था कि नेहरू द्वारा जनमत संग्रह का प्रस्ताव जम्मू-कश्मीर के हिन्दुओं और बौद्धों को पाकिस्तान में ढकेल देता, जिस तरह पूर्वी पाकिस्तान में हिन्दुओं को ढकेला गया था। उनके विचार से हिन्दू और बौद्ध क्षेत्रों को जनमत संग्रह से अलग रखते हुए कश्मीर घाटी में जनमत संग्रह करा लिया जाए, फिर वहां के मुसलमान जो चाहें निर्णय करें। यह एक व्यावहारिक सोच थी जिसे नहीं माना गया।
उन्होंने अन्य देशों से सीख लेकर ग्रीस, टर्की और बुल्गारिया का उदाहरण देते हुए बंटवारे के बाद आबादी की अदला-बदली के पक्ष में विचार रक्खे थे। उन्होंने यह बात अपनी पुस्तक ''पाकिस्तान ऑर दि पार्टीशन आफ इंडिया'' में लिखी है। उन्होंने बड़े स्पष्ट शब्दों में दलित समाज से कहा था कि जिन्ना को इसलिए अपना मत समझो कि वह हिन्दू विरोधी हैं। जब जरूरत होती है तब दलितों को हिन्दुओं से अलग मान लेते हैं और जब जरूरत नहीं तो उन्हें हिन्दुओं के साथ मान लेते हैं। मत समझो कि वे तुम्हारे मित्र हैं। उन पर विश्वास मत करो। अम्बेडकर ने कहा था पाकिस्तान में छूट गए दलितों से, जैसे भी हो सके भारत आ जाओ।
वास्तव में असली मुद्दा जिस पर अम्बेडकर सर्वाधिक खिन्न थे वह था हिन्दू कोड बिल। नेहरू सरकार ने 1951 तक इस पर चर्चा नहीं की अम्बेडकर का धैर्य समाप्त हो गया और उन्होंने नेहरू केबिनेट से त्यागपत्र दे दिया। यदि उनके रहते हिन्दू कोड बिल बना होता तो उसका रूप ही दूसरा होता। तब यह नेहरू का नहीं अम्बेडकर का कोड बिल होता जिसमें सामाजिक न्याय का कोई पक्ष नहीं छूटता। लेकिन पहली संसद का अन्तिम सत्र था और हिन्दू कोड बिल पर चर्चा आरम्भ तो हुई लेकिन प्रधानमंत्री ने प्रस्ताव रक्खा कि पूरा बिल पास करने का समय नहीं था इसलिए आंशिक भाग पर चर्चा करके पास किया जाय। शादी और तलाक पर चर्चा करने की सहमति बनी। यदि शादी और तलाक सम्बन्धी कानून पास हो जाते तो शायद तीन तलाक, हलाला, बहुपत्नी विवाह जैसे विषय न बचते। प्रधानमंत्री ने दूसरी बार प्रस्ताव रक्खा कि बिल को अगली संसद के लिए छोड़ दिया जाय। तब 1954 में अम्बेडकर की अनुपस्थिति में नेहरू का हिन्दू कोड बिल आया जिसमें देश भर का एक कानून नहीं बन सका। अम्बेडकर वास्तव में समान नागरिक संहिता के पक्षधर थे और कश्मीर के मामले में धारा 370 का विरोध करते थे। अम्बेडकर का भारत आधुनिक, वैज्ञानिक सोच और तर्कसंगत विचारों का देश होता।
अशोक कुमार वर्मा
उत्तर प्रदेश
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