आपके दूसरों के साथ संबंध कैसे होंगे यह बात दो चीज़ों पर निर्भर करती है – पहली यह कि आपके नसीब मे क्या है और दूसरी यह कि आपकी जेब मे क्या है? कभी कभी मुझे आश्चर्य होता है कि सच में ही पैसा और रिश्ते एक ही सिक्के के दो पहलु हैं।
चाहे आज मेरे आर्थिक और मानसिक हालत पहले से बहुत बेहतर है, पर मुझे आज भी याद है वह समय जब मैं अच्छी जिंदगी पाने के लिए संघर्ष कर रहा था और चाहता था कि किसी तरह से शाम के खाने का जुगाड़ हो जाए। आज भी जब उन बुरे दिनों को याद करता हूँ, तो मैं सहम जाता हूँ। उस बुरे वक़्त से मैंने बहुत कुछ सिखाया और उन में से एक सीख थी कि पैसा और रिश्ते एक ही सिक्के के दो पहलु है।
किसी ने सच ही कहा है कि, “अपनी पुरानी यादों को दफ़नाने और सोए हुए कुत्ते को नींद से ना जगाने मे ही भलाई है।” पर मुझे लगता है कि यह उपदेश सिर्फ किताबों में अच्छे लगते हैं। वास्तविकता में, अपने अतीत से बाहर आ पाना बहुत मुश्किल है। शायद इसी वजह से कही न कही आज भी उसी पुरानी जिंदगी की ओर खींचा चला जाता हूँ, जिसने सिर्फ़ घाव और निशान ही दिए थे। पर फिर सोचता हूँ कि वापिस जाऊँ तो किसके लिए? पैसे के रिश्ते देख कर, दुनिया से और अपनों से मन ऊब सा गया है।
आज पैसे की वजह से रिश्ते इतने भौतिकवादी हो गए हैं कि एक सगा भाई दूसरे सगे भाई पर मुकदमा ठोक रहा है और सगी बहनें एक दूसरे के खिलाफ षड़यंत्र रच रहीं हैं। ज़रा सोच कर देखिये, अगर आप अपने किसी रिश्तेदार को कार में मिलने जाते हैं, तो आपके लिए स्वागत कुछ और होगा और अगर दो-पहियें गाड़ी से जातें हैं, तो कुछ और होगा। पैसा और रिश्ते, इन दोनों का अजीब सा समीकरण देखने को मिलता है।
खून के रिश्ते हो या फिर बाहरी रिश्ते, पैसा और आपकी सामजिक स्थिति एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। मेरा तात्पर्य जेब के आकार से है क्योंकि दिल का आकार आजकल कोई नहीं देखता।
मुझे आजतक यह समझ में नहीं आया कि जब हम जानते हैं कि यह भौतिकवाद ही दुख का सबसे बड़ा कारण है, फिर हम इसका समर्थन क्यों करते है? शादी हो, जन्मदिन की पार्टी हो, वैलेंटाइन डे हो, परिवार या ऑफिस की पार्टी हो, या फिर परिवार के साथ डिनर हो, हम जब तक लाखों रुपया उड़ा न दें, तब तक हमे चैन नहीं मिलता।
सच तो यह है कि हम दूसरों से या फिर अपने ही सगे-सम्बन्धियों से प्रतिस्पर्धा करने लगते हैं। हमारी खुशियाँ उनकी हाथों में हैं। हम प्रशंसा के भूखे हो गए हैं और एक दूसरे के प्रति प्यार को तो हम जैसे भूल ही गए हैं। पैसा और रिश्ते, इन दोनों का समीकरण आजकल हर जगह गलत है।
आख़िर हम जा किस तरफ रहें है? मैं अपना नाम जायदाद में चाहता हूँ, क्योंकि इसी से तो यह सिद्ध होगा कि मेरे अपने मुझे कितना प्यार करते हैं। मैं चाहता हूँ कि मेरे रिश्तेदार मुझसे वीआईपी की तरह बर्ताव करें क्योंकि इसी से मुझे ख़ुशी मिलती है।
मैं लोगों को चिल्ला-चिल्ला कर बताना चाहता हूँ कि मुझे कितने उपहार और अधिकार मिले हैं। मैं किसी ऐसे व्यक्ति से दोस्ती नहीं रखना चाहता जो मेरे आर्थिक दर्जे का ना हो, फिर चाहे वो मेरा करीबी दोस्त हो या मेरा भाई। अगर मेरे किसी पुराने दोस्त या रिश्तेदार की जिंदगी अच्छी नहीं चल रही है, तो फिर मैं उसे नज़रअंदाज़ करना ही पसन्द करता हूँ क्योंकि मुझे डर है कि वह कही कुछ माँग ही ना ले।
पर यह गलत है। हमे लोगों को उनके आर्थिक हैसियत के बजाय उनके मूल्यों और भावनाओं की सराहना करनी चाहिए। हम सब जानते है कि वक्त बदलता रहता है और सफलता कभी स्थायी नहीं रहती। “कौन मुझ पर ज्यादा खर्च करता है” इसके बजाय “बुरे वक्त पर कौन मेरे साथ था,” यह ज़्यादा मायने रखता है। इसमें कोई शक नहीं कि पैसा और रिश्ते कभी एक तराज़ू पर नहीं रखने चाहिए। पैसा आनी जानी चीज़ है, और पैसों की वजह से रिश्तों में आई दरार जल्दी ठीक नहीं होती।
मुझे एक और मिथक याद आता है,” एक हाथ जो विफलता के दौरान आपके आँसू पौछता है, उन हजारों हाथों की तुलना मे ज़्यादा बेहतर है जो आपकी सफलता में तालियाँ बजाते हैं।