लोकतांत्रिक न्याय बनाम कृषि क्षेत्र और किसानों के हालात


हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।


किसान की बदहाली का एक अप्रत्यक्ष कारण यह कुप्रचार भी है कि किसान के उत्पाद का दाम बढ़ाए जाने से महंगाई बढ़ती है। यानी महंगाई रोकने का बोझ भी मरणासन्न किसान पर लदा है। बहरहाल किसान से जुड़े ये मुद्दे न तो हाल ही में होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव प्रचार में सुनाई दे रहे हैं ना ही किसी दूसरे मंच से इन्हें उठाया जा रहा है। इसीलिए मीडिया का भी इस तरफ ध्यान नहीं है।




हर देश में राजनेताओं के अलावा कई दूसरे क्षेत्रों के ऐसे प्रभावशाली लोग भी होते हैं जिनका लोग अनुसरण करते हैं. इनमें सिनेमा जगत, उद्योग, धर्म, अकादमिक, खेल, समाजसेवा, अर्थशास्त्र, क़ानून, मीडिया आदि से जुड़े लोग शामिल हैं. जनधारणा बनाने में इन विशिष्टजनों की बड़ी भूमिका होती है. यहां बात उनकी नहीं हो रही है जो राजनेताओं के छविप्रबंधन के काम में अपनी शौहरत का इस्तेमाल होने देते हों बल्कि उन ख्यातिलब्ध लोगों की बात हो रही है जो अपनी सहृदयता और सदभाव के कारण भी लोकप्रिय हैं। आमतौर पर इन मशहूर हस्तियों को अंग्रेजी में हम सैलिब्रिटी के नाम से पुकारते हैं। आज कल इन्हें इन्फ़्लुएन्सर कहा जाने लगा है। इन्फ़्लुएन्सर यानी प्रभावक।


इन्फ्लुएंसर की भूमिका आज आसान भी हो गई-

मशहूर हस्तियाँ और देश में प्रभाव रखने वाले व्यक्ति पहले भी हुआ करते थे। आजादी के आंदोलन में कई गण्यमान्य लोगों की सक्रियता ने ही देश में स्वतंत्रता के आंदोलन में जान फूंकी थी। और आज तो संचार क्रांति के बाद का वक़्त है। किसी सैलिब्रिटी का संदेश पल भर में प्रचारित प्रसारित हो जाता है। इनके जरिए आमजन से संवाद और संपर्क साधना बहुत आसान हो गया है. पहुंच का दायरा भी पहले के मुकाबले कई गुना बढ़ चुका है. इसीलिए आजकल किसी भी मुद्दे के प्रभावी बनने में इन प्रभावशाली व्यक्तियों की बड़ी भूमिका रहती है. फिर चाहे किसी मुद्दे पर जागरूकता लाने की बात हो या कोई नई प्रवृत्ति या आदत जन समूह में डालने का काम हो, पूरी दुनिया में जन धारणा का निर्धारण इस समय विख्यात लोग ही कर पा रहे हैं. इसीलिए किसी समस्या या मुद्दे पर सरकारी ध्यान और उसके समाधान के लिए प्रयास जन धारणा से पनपे दबाव पर निर्भर होने लगे हैं। जन धारणा बनाने में ख्यातिलब्ध लोगों की भूमिका निर्विवाद है। ये सेलेब्रिटी-फॉलोवर कल्चर सही है या गलत यह एक अलग विमर्श का विषय हो सकता है। लेकिन फिलहाल जो स्थिति है उसमें अगर किसी मुद्दे को इन प्रभावकों की तवज्जो की सबसे ज्यादा ज़रूरत है तो वह भारतीय किसान की बदहाली का त्रासद मुददा है। उन किसानों की बदहाली का जिनकी संख्या देश की आधी आबादी से ज्यादा है और जिनके बारे में आए दिन सुनने को मिलता है कि वे आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि देश के किसानों की रक्षा के भी अभियान चलना शुरू हों और ख्यातिलब्ध लोग बाकायदा उसी शिद्दत से अभियान चलाना शुरू करें जिस तरह वन्यजीवों के लिए, कुपोषित बच्चों के लिए, बच्चियों की शिक्षा के लिए साफ सफाई के लिए कुछ न कुछ करते रहते हैं।



खासतौर पर तब, जब राजनीति नाकाम हो चली हो:-


बहुत संभव है कि यह बात खुद राजनीति भी कबूल कर ले कि वह देश की अधिसंख्य आबादी यानी गांव और किसान का दुख दूर करने में खुद को नाकाम पा रही है। अचल संपत्ति के रूप् में अपनी खेती की ज़मीन और अपना हुनर और पूरा पसीना बहाने के बाद भी अगर किसान अपना गुज़ारा नहीं कर पा रहा है और आत्महत्या के लिए मजबूर हो गया है तो किसी देश में इससे विकट और इससे ज्यादा अमानवीय घटना और क्या हो सकती है। गांव का स्कूल, गांव का अस्पताल, ग्रामीण महिलाओं में रक्त अल्पता, वहां के बच्चों में कुपोषण यानी कौन सी ऐसी विपदा बची है जो किसी सहृदय व्यक्ति को भावुक न बना दे। लेकिन अपने देश में कृषि और किसान से जुडी खबरें चुनाव के दौरान ही सुनने को मिल पाती हैं। वे बातें भी इस समय क़र्ज़ माफ़ी जैसी मांगों तक सीमित हैं। लेकिन किसान की समस्या सिर्फ क़र्ज़ माफ़ी नहीं है। बल्कि समस्या क़र्ज़ ना चुका पाने के कई कई कारणो से हैं। किसान की बदहाली के इस मुख्य कारण मेे कई कारण शामिल हैं। जैसे उपज का सही मूल्य न मिल पाना, कृषि उत्पाद के लिए व्यवस्थित बाज़ार, खेत से मंडी तक अच्छी सड़क, उपज रखने के लिए गोदाम आदि।

महंगाई रोकने का बोझ भी बदहाल किसान पर:-

किसान की बदहाली का एक अप्रत्यक्ष कारण यह कुप्रचार भी है कि किसान के उत्पाद का दाम बढ़ाए जाने से महंगाई बढ़ती है। यानी महंगाई रोकने का बोझ भी मरणासन्न किसान पर लदा है। बहरहाल किसान से जुड़े ये मुद्दे न तो हाल ही में होने वाले पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव प्रचार में सुनाई दे रहे हैं ना ही किसी दूसरे मंच से इन्हें उठाया जा रहा है। इसीलिए मीडिया का भी इस तरफ ध्यान नहीं है।

किसान के लिए कब आगे आए सैलिब्रिटी?.

सिनेमा या खेल जगत के ख्यातिलब्ध लोगों की तरफ से कई समस्याओं पर आए दिन अभियान चलाए जाते हैं। इन क्षेत्रों की हस्तियाँ कई समस्याओं के समाधान में अपना सहयोग और एकजुटता दिखाती हैं। लेकिन कृषि से जुडी यानी देश की आधी से ज्यादा आबादी का कोई मुद्दा अभी तक उनकी तरफ सें उठाए जाते नहीं देखा गया। सामाजिक कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी वर्ग भी देश के अर्थतंत्र, भ्रष्टाचार, संस्थानों की स्वायत्ता जैसे मुद्दों पर बात करते हुए तो दिख जाते हैं लेकिन कृषि और बदहाल किसान की ज़रूरतों पर गोष्ठियों और विमर्श उस स्तर पर होते हुए नहीं दिखते। अभीतक इस मुददे को किसी प्रभावी व्यकित यानी किसी ऐसे इन्फलुएंसर ने नहीं उठाया जिसे देश के लोग फाॅलो कर सकें और शहरों की तरफ से भी बदहाल खेती और मरणासन्न किसान के पक्ष में दबाव बन सके।

रघुराम राजन हमारे लिए एक सैलिब्रिटी ही तो हैं:-

विश्वप्रसिद्ध अर्थशास्त्री और हमारे रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने कैलिफ़ोर्निया विश्विद्यालय में शुक्रवार को एक व्याख्यान दिया है। दुनियाभर में इसकी चर्चा है। इस व्याख्यान का विषय था 'फ्यूचर ऑफ़ इंडिया' यानी भारत का भविष्य। इस विषय पर बोलते हुए उन्होंने दुनिया को भारत की अर्थव्यवस्था के सामने खड़े मुख्य संकट से रूबरू कराया। उन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था को नोटबंदी और जीएसटी से पहुंची हानि का ज़िक्र किया। भारतीय आर्थिक वृद्धि को दर ज़रुरत के मुकाबले नाकाफ़ी होने पर चिंता जताई। बैंकों के बढ़ते एनपीए और सत्ता के केन्द्रीकरण को भारत के विकास में बड़ा रोड़ा बताया। और अंत में भारतीय अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए तीन क्षेत्रों में सुधार लाने की बात कही। ये क्षेत्र हैं बैंकिंग, बिजली और इंफ्रास्ट्रक्चर यानी आधारभूत ढांचा। इसमें कृषि क्षेत्र का कोइ सीधा ज़िक्र नहीं था। यानी अर्थव्यवस्था के सुधार में कृषि की कोई भूमिका नहीं देखी गई। जबकि एक अर्थशास्त्री की हैसियत से देश के कृषि क्षेत्र पर उनका कुछ भी कहना बड़े काम का हो सकता था। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि इस बारे में वे जानते नहीं है। रिजर्व बैंक के गवर्नर रहते हुए और कई और महत्वपूण पदों पर रहते हुए कृषि क्षेत्र, किसानों को कर्ज और भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर उन्होंने समय समय पर बोला है और सुझाव दिए हैं। लेकिन तब उनकी भूमिका एक सरकारी पक्ष के रूप् में थी। तब उनकी सीमाएं थीं। लेकिन इस समय वे स्वतंत्र हैं। आज उनका कुछ भी बोलना पहले से भी ज्यादा मायने रखता है। राजन एक विश्व विख्यात अर्थशास्त्री हैं. जब वे कोई बात कहते हैं तो दुनिया गौर से सुनती है और उसे महत्त्व भी देती है. इसीलिए भारत के लगभग सभी बड़े अखबारों ने उनके व्याख्यान में कही बातों को बड़ी संजीदगी से छापा। अगर वे अपने सुगठित व्याख्यान में कृषि सुधार के भी कुछ पक्ष रखते जो कि हर तरह से न्यायपूर्ण और तर्कपूर्ण हैं तो मीडिया को उस ओर भी ध्यान देना ही पड़ता। ऐसी और भी गोष्ठियां और विमर्श अलग अलग स्तर पर देश विदेश में होती रहती हैं। लेकिन कभी ऐसा होता नहीं देखा गया कि किसी प्रमुख 
और प्रभावशाली विशेषज्ञ ने भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि में सुधार के ज़रिए देश में बदलाव की बात जोर देकर कही हो। इस समय नई औद्योगिक क्रांति से ही विकास देखा जा रहा है। इसीलिए कृषि की भूमिका जीडीपी रूपी आर्थिक वृद्धि में उतनी नहीं मानी जा रही है। क्योंकि अर्थव्यवस्था तो कृषि पर ध्यान दिए बगैर भी बढ़ रही है और बढती जा सकती है. लेकिन अपने देश में 50 फीसद से ज्यादा आबादी जिस रोज़गार में लगी हो उस कृषि क्षेत्र पर सबसे ज्यादा घ्यान दिए बगैर अर्थव्यवस्था को सुधारने का दावा कैसे किया जा सकता है? और अगर आंकड़ों में अर्थव्यवस्था सुधार भी ली गयी तो उसे समावेशी कैसे कहेंगे?



लोकतांत्रिक न्याय बनाम कृषि क्षेत्र:-

किसी भी लोकतांत्रिक राजव्यवस्था में उसके किसी विशिष्ट वर्ग का आकार बड़ा मायने रखता है। कृषि प्रधान देश के नाम से मशहूर भारत में आज भी गांव और किसान से बड़ा और कौन सा वर्ग है। लोकतंत्र के लक्ष्य में अगर दूसरी सबसे अहम बात है तो वह न्यायपूर्ण समानता की है। खासतौर पर वंचित वर्ग को समान स्तर पर लाने का आग्रह। लेकिन इस समय किसान की राजनीतिक पहुच ही नहीं है। या यूं कहें कि किसान की आवाज़ की पहुंच नहीं है। विपन्न किसान के पास अपनी आवाज उठाने तक के साधन नहीं है। इसीलिए दरकार है कि प्रभावी और गण्यमान्य लोग इस समय सबसे ज्यादा बदहाल तबके यानी किसान की आवाज बनें। अगर हर क्षेत्र के विख्यात विशेषज्ञ और हस्तियाँ किसान और कृषि के मुद्दे को मुख्य धारा में लाने में अपनी भूमिका निभा दें तो हो सकता है कि नुक्कड़ चैराहों में किसान के लिए भी वैसी ही बातचीत होने लगे जैसी इस समय दूसरे करुणाजनित मुद्दों के लिए होती है। तब सरकारें भी इसे गंभीर राष्ट्रीय मुद्दे की तरह देखना शुरू कर सकती हैं।






अशोक कुमार वर्मा
     (उत्तर प्रदेश)


लेख को पढ़ने के लिए धन्यवाद आपका
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