प्रकृति के लिए मानव बना दानव





हमारे यहाँ प्रतिवर्ष 15 लाख हेक्टेयर वन नष्ट हो रहे हैं, जबकि प्रतिवर्ष वन लगाने की अधिकतम सीमा 3 लाख 26 हजार हेक्टेयर है। यही हाल रहा तो आगामी कुछ दशकों में हमारी धरती वन विहीन हो जाएगी।


मनुष्य सदियों से प्रकृति की गोद में फलता-फूलता रहा है। इसी से ऋषि-मुनियों ने आध्यात्मिक चेतना ग्रहण की और इसी के सौन्दर्य से मुग्ध होकर न जाने कितने कवियों की आत्मा से कविताएँ फूट पड़ीं। वस्तुतः मानव और प्रकृति के बीच बहुत गहरा सम्बन्ध है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। मानव अपनी भावाभिव्यक्ति के लिए प्रकृति की ओर देखता है और उसकी सौन्दर्यमयी बलवती जिज्ञासा प्रकृति सौन्दर्य से विमुग्ध होकर प्रकृति में भी सचेत सत्ता का अनुभव करने लगती है।

हमारे धार्मिक ग्रंथ, ऋषि-मुनियों की वाणियाँ, कवि की काव्य रचनाएँ, सन्तों-साधुओं के अमृत वचन सभी प्रकृति की महत्ता से भरी पड़ी है। विश्व की लगभग सारी सभ्यता का विकास प्रकृति की ही गोद में हुआ और तब इसी से मनुष्य के रागात्मक सम्बन्ध भी स्थापित हुए, किन्तु कालान्तर में हमारी प्रकृति से दूरी बढ़ती गई। इसके फलस्वरूप विघटनकारी रूप भी सामने आए। मत्स्यपुराण में प्रकृति की महत्ता को बतलाते हुए कहा गया है- सौ पुत्र एक वृक्ष समान।

प्रकृति के संरक्षण का हम अथर्ववेद में शपथ खाते हैं- 'हे धरती माँ, जो कुछ भी तुमसे लूँगा, वह उतना ही होगा जितना तू पुनः पैदा कर सके। तेरे मर्मस्थल पर या तेरी जीवन शक्ति पर कभी आघात नहीं करूँगा।' मनुष्य जब तक प्रकृति के साथ किए गए इस वादे पर कायम रहा सुखी और सम्पन्न रहा, किन्तु जैसे ही इसका अतिक्रमण हुआ, प्रकृति के विध्वंसकारी और विघटनकारी रूप उभर कर सामने आए। सैलाब और भूकम्प आया। पर्यावरण में विषैली गैसें घुलीं। मनुष्य का आयु कम हुआ। धरती एक-एक बूँद पानी के लिए तरसने लगी, लेकिन यह वैश्विक तपन हमारे लिए चिन्ता का विषय नहीं बना। 



तापमान में बढ़ोत्तरी के कारण दुनिया भर में ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। जलवायु बदलाव के फलस्वरूप इण्डोनेशिया में भयंकर सूखा पड़ा। अमेरिका में सैलाब आया। ग्रीनलैण्ड में संकट के बादल मण्डरा रहे हैं और भारत की स्थिति तो और भी भयावह है। हमारे यहाँ प्रतिवर्ष 15 लाख हेक्टेयर वन नष्ट हो रहे हैं, जबकि प्रतिवर्ष वन लगाने की अधिकतम सीमा 3 लाख 26 हजार हेक्टेयर है। यही हाल रहा तो आगामी कुछ दशकों में हमारी धरती वन विहीन हो जाएगी। हमारे पड़ोसी देश चीन में जितने वृक्ष काटे जाते हैं, उतने परिमाण में लगाए भी जाते हैं। हमें इस बात पर विचार करना चाहिए कि गत वर्ष अल सल्वाडोर में लगभग उसी तीव्रता (7.6) का भूकम्प आया, जिस तीव्रता का भूकम्प गुजरात में आया था, लेकिन वहाँ सिर्फ 884 लोग मरे, जबकि गुजरात में उससे सौ गुना ज्यादा लोग भूकम्प की बलि चढ़ गए। यह अन्तर क्या हमारी संरचना और तन्त्र की नैतिकता पर भयावह प्रश्नचिह्न नहीं लगाता?



मनु प्रसंग हमें बतलाता है कि जब पाप अधिक बढ़ता है तो धरती काँपने लगती है। यह भी कहा गया है कि धरती घर का आंगन है, आसमान छत है, सूर्य-चन्द्र ज्योति देने वाले दीपक हैं, महासागर पानी के मटके हैं और पेड़-पौधे आहार के साधन हैं। हमारा प्रकृति के साथ किया गया वादा है- वह जंगल को नहीं उजाड़ेगा, प्रकृति से अनावश्यक खिलवाड़ नहीं करेगा, ऐसी फसलें नहीं उगाएगा जो तलातल का पानी सोख लेती है, बात-बेबात पहाड़ों की कटाई नहीं करेगा।



स्मरण रखिए, प्रकृति किसी के साथ भेदभाव या पक्षपात नहीं करती। इसके द्वार सबके लिए समान रूप से खुले हैं, लेकिन जब हम प्रकृति से अनावश्यक खिलवाड़ करते हैं तब उसका गुस्सा भूकम्प, सूखा, बाढ़, सैलाब, तूफान की शक्ल में आता है, फिर लोग काल के गाल में समा जाते हैं। कवीन्द्र रवीन्द्र का यह कथन द्रष्टव्य है कि प्रकृति ईश्वर की शक्ति का क्षेत्र है और जीवात्मा उसके प्रेम का क्षेत्र। कालिदास की शकुन्तला वन में ही पलती-बढ़ती है, वही उसकी सखी, सहेली, सहचरी है। जब वह विदा होकर ससुराल जाती है तो ऋषि इसी प्रकृति का मानवीकरण करते हुए कहते हैं- 'देवी-देवताओं से भरे वन-वृक्षों, जो शकुन्तला तुम्हें पिलाए बिना स्वयं जल नहीं पीती थी, जो आभूषण प्रिय होने पर भी स्नेह के कारण तुम्हारे कोमल पत्तों को नहीं तोड़ती थी, जो तुम्हारे पुष्पित होने के समय उत्सव मनाती थी, वह शकुन्तला अपने पति के घर जा रही है। तुम सब मिलकर इसे विदा करो।'


प्रकृति की इसी महत्ता को प्रतिस्थापित करते हुए पद्मपुराण का कथन है कि जो मनुष्य सड़क के किनारे तथा जलाशयों के तट पर वृक्ष लगाता है, वह स्वर्ग में उतने ही वर्षों तक फलता-फूलता है, जितने वर्षों तक वह वृक्ष फलता-फूलता है। इसी कारण हमारे यहाँ वृक्ष पूजन की सनातन परम्परा रही है। यही पेड़ फलों के भार से झुककर हमें शील और विनम्रता का पाठ पढ़ाते हैं। उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द ने एक स्थान पर लिखा है कि साहित्य में आदर्शवाद का वही स्थान है जो जीवन में प्रकृति का है।


अस्तु! हम कह सकते हैं कि प्रकृति से मनुष्य का सम्बन्ध अलगाव का नहीं है, प्रेम उसका क्षेत्र है। सचमुच प्रकृति से प्रेम हमें उन्नति की ओर ले जाता है और इससे अलगाव हमारे अधोगति के कारण बनते हैं। एक कहावत भी है- कर भला तो हो भला।




देव, मानव या दानव कुछ भी बना जा सकता है-




मनुष्य, देव और असुर यह तीनों वर्ग माने गये हैं। यों वर्णनकर्ताओं ने इनकी आकृति का भी अंतर किया है, पर वह आलंकारिक है। यह तीनों ही वर्ग मनुष्य जाति में ही होते हैं वस्तुतः आकृति में नहीं प्रकृति में अंतर होता है। देवता सुंदर होते हैं, स्वर्ग में रहते हैं, वरदान देते हैं और सत्कर्म देखकर प्रसन्न होता हैं।

स्वयं सुखी रहते हैं देखने में सुन्दर, स्पर्श में सुकुमार, सदा तरुण और अमर, अमृतपायी होते हैं। कल्पवृक्ष के समीप रहने के कारण उनकी कोई कामना अपूर्ण नहीं रहती। असुरों का कलंकित मुख होता है। दांत बड़े-बड़े खा जाने की लोभ लिप्सा के प्रतीक। सिर पर सींग, हर किसी को त्रास देने, कष्ट पहुंचाने, गिराने की दुष्प्रवृत्ति का परिचय देते हैं। लाल नेत्र-अहंता, ईष्या और आवेश के प्रतीक। ये असुर न चैन से बैठते हैं और न बैठने देते हैं। भयावह ही उनकी आकृति होती है और भयंकर ही प्रकृति। मनुष्य इन दोनों का मध्यवर्ती है। उपकार न बन पड़े तो न सही, परकम से कम किसी का अपकार नहीं करता। अनुकरणीय और अभिवंदनीय न बन सके। पर घृणित बनकर नहीं जीता। कर्तव्यनिष्ठ, सदाचार, स्वाभिमानी और संयत जीवन जीता है, मनुष्य। मनुष्य भू लोक में रहते हैं। देवता स्वर्ग में और असुर नरक में रहते हैं। यह तीनों ही स्थितियां हम स्वेच्छापूर्वक वरण करते हैं और उसी स्तर के बनकर रहते हैं।



असमंजस की स्थिति:-


एक ओर ईश्वर अपनी भुजाएं पसारे गोदी में चढ़ाने का, छाती से लगाने का आठान करता है, दूसरी ओर लोभ और मोह के बंधन हाथों में हथकड़ी, पैरों में बेड़ी की तरह बंधए हैं। स्वार्थान्धता की अहंता कमर में पड़े रस्सों की तरह जकड़े बैठी है। पीछे लौटें, जहां के तहां रूके रहें, या आगे बढ़ें? यह तीनों प्रश्न ऐसे हैं जो अपना समाधान आज ही चाहते हैं। अनिर्णीत स्थिति का असमंजस जाग्रत आत्माओं के लिए क्रमशः असह्य ही बनता जाता है। वृक्ष बनने की महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिए बीज को गलने का पुरुषार्थ दिखाना ही पड़ता है। जो बीज गलने में हानि और बचने में लाभ देखते रहे, उन्हें उनकी कृपणता, तुच्छता के गर्त में ही गिराए रहती है। वे प्रगति की किसी भी दिशा में रंचमात्र भी आगे बढ़ नहीं पाते। दोनों ही मार्ग हर विवेकशील के आगे खुले पड़े हैं। एक प्रेय का दूसार श्रेय का। एक स्वार्थ का दूसरा परमार्थ का। एक मूर्खता का दूसरा दूरदर्शिता का। एक पतन का दूसरा उत्थान का, इन दोनों में से एक का चयन करने की चुनौती हर जाग्रत आत्मा के सामने खुली पड़ी रहती है। दोनों ओर लाभ दीखते हैं और हानि भी। मन भटकता रहता है। कभी एक को अपनाने की बात सोचता है कभी दूसरे को। कभी एक को पकड़ता है कभी दूसरे को। इस असमंजस भरी मनःस्थिति को ही देवासुर संग्राम कहा गया है। इसी को अंतर्द्वन्द्व कहते हैं। जब तक यह स्थिति बनी रहेगा, तब तक कोई चैन से न बैठ सकेगा। अंतर्जगत में चलते रहने वाले इस महाभारत के कारण चीत्कार और हाहाकार छाया रहता है। इस स्थिति के रहते किसी को और कुछ भले ही मिल जाये, शांति एवं संतोष के दर्शन हो ही नहीं सकेंगे। दैत्य पक्ष का तर्क है कि प्रत्यक्ष तो उपभोग है। उसका लाभ और आनन्द तत्काल मिलती है। अधिकांश व्यक्ति उसी मार्ग पर चल रहे हैं। साथी स्वजनों का परामर्श और प्रोत्साहन उसी के लिए है। फिर अपने को दूसरों की तरह इसी मार्ग पर क्यों नहीं चलते रहना चाहिए? इंद्रियां वासना पूर्ति के लिए लालायित रहती हैं और उपभोग के जितने अवसर मिलते हैं उतनी ही बार प्रसन्न होती हैं। अहंता की पूर्ति इसी में लगती है। लोगों का परामर्श एवं सहयोग इसी के लिए मिलता है। समीपवर्ती वातावरण का प्रभाव भी मनोभूमि पर इसी रूप में आच्छादित रहता है। अंतरात्मा में अवस्थित देव पक्ष कहता है- सृष्टा ने मनुष्य जीवन की धरोहर किसी विशेष उद्देश्य के लिए प्रदान की है। देवपक्ष का तर्क है कि तात्कालिक लोभ के आकर्षण में यहां माया का छलावा ही फैला हुआ है। लिप्सा, बिजली की चमक की तरह ही चकाचौंध उत्पन्न करती है और क्षण भर में गायब हो जाती है।



लालसा और उपयोग:-


जिठा का चटोरपन या अश्लील कामुकता की चमक कुछ मिनट ही रहती है। इसके उपरान्त पेट खराब होने और शरीर खोखला होने का संकट ही चिरस्थायी रूप में गले बंध जाता है। विलासी श्रृंगारिकता का उद्देश्य दूसरों को आकर्षित करना और अपना बड़प्पन जताना होता है, किन्तु वास्तविक परिणाम इससे ठीक उलटा होता है। छिछोरापन, मनचलापन इससे टपकता है और अप्रमाणिकता की गंध इस सारे विन्यास से आती है। ऐसे लोग किसी की आंख भले ही लुभा लें। विश्वास किसी का भी नहीं पा सकते। संबंधियों की अनावश्यक सुविधा साधन देते रहने से उनका स्वभाव, व्यक्तित्व और भविष्य बिगड़ता है। उनकी बड़ी-बड़ी इच्छाएं पूरी होने में जब कमी पड़ती है तो तुरन्त आंखें बदल जाती हैं संचय का धन दूसरे विलसते हैं और अपने को उसके लिए कोल्हू के बैल जैसी मेहनत, प्राण सुखाने वाली चिंता और अनंत काल तक सहने वाली प्रताड़ना के अतिरिक्त और कुछ पल्ले नहीं पड़ता। देव पक्ष बुध्दि को निरन्तर यही समझाने का प्रयत्न करता है कि इस सुरदुर्लभ सौभाग्य भरे अवसर को जीवन साधना में लगाया जाये और उसका सपरिणाम वैसा ही पाया जाए और कि प्रातः स्मरणीय, लोकश्रध्दा के भाजन, विश्व के मार्गदर्शक महामानव प्राप्त करते रहे हैं। सुख-शांति की आकांक्षा आंतरित उत्कृष्टता के सहारे पूरी होती है। साधनों की मृदतृष्णा में भटकने से थकान और खीज ही पल्ले पड़ती है। कस्तूरी का मृग चैन तभी पाता है जब वह सुगंध का स्रोत अपनी नाभि में होने की जानकारी पा लेता है। सच्ची समृध्दि उत्कृष्ट मनःस्थिति है, उसी के आधार पर नुकूल परिस्थितियां बनता हैं। यह जान लेने पर साधनों की लालसा और उपयोग की लिप्सा का समाधान होता है अन्यथा वह आग में घी डालने रहने की तरह घटती नहीं बढ़ती ही रहती है। अच्छा हो ईश्वर को अपने अंतःकरण के आंगन में क्रीड़ा करने का अवसर दें। देवत्व तो समर्थन करें। ऐसा विवेकपूर्ण निर्णय करें, जिसके आधार पर देवमानवों जैसी जीवन नीति निर्धारित की जा सके। यह निर्धारण ही पर्याप्त नहीं, उसे कार्यान्वित करने के लिए सत्संकल्प और उत्साह भी चाहिए। इसी उमंग भरे उभार को व्यक्तिगत जीवन में ईश्वर का अवतरण कहा जा सकता है।

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Ashok Kumar Verma
Basti, Utter Pradesh

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