धर्म का कार्य है लोगों को सदाचारी और प्रेममय बनाना और राजनीति का उद्देश्य है लोगों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुये उनके हित में काम करना. जब धर्म और राजनीति साथ-साथ नहीं चलते, तब हमें भ्रष्ट राजनीतिज्ञ और कपटी धार्मिक नेता मिलते हैं.एक धार्मिक व्यक्ति, जो सदाचारी और स्नेही है, अवश्य ही जनता के हित का ध्यान रखेगा और एक सच्चा राजनीतिज्ञ बनेगा एक सच्चा राजनीतिज्ञ केवल सदाचारी और स्नेही ही हो सकता है, इसीलिए उसे धार्मिक होना ही है। परन्तु राजनीतिज्ञ को इतना भी धार्मिक न होना है जो दूसरे धर्मों की स्वतन्त्रता और उनकी विधियों पर बंदिश लगाये। राजनीति और धर्म दोनों ही हर वर्ग के जीवन को प्रभावित करने वाले विषय है जो कभी भी एक दूजे से अलग न होसकते मगर राजनीति की दशा और दिशा के बारे में सोच बदलने की आवश्यकता है।
धर्म की राजनीति-
इस समय धर्म की राजनीति को लेकर तमाम सवाल, आरोप-प्रत्यारोप उठ रहे हैं.एक राजनीतिज्ञ को धर्मिक होना ज़रूरी है. धर्म के बिना समर्थ और सार्थक राजनीति नहीं हो सकती.हमारे राजनीतिज्ञ को राजनीति के धर्म का पालन करना होगा ऐसा न हो की धर्म की राजनीती की जाये । भारतीय राजनीति के इतिहास में देश की आज़ादी के बाद से अबतक जिस तरह से देश में राजनेताओं ने राजनीति की है वह सोचनीय है एक राजनीति शास्त्र के विद्यार्थी होने के नाते जो कुछ मैं ने पढ़ा या समझा इस नतीजे पे पहुंचा के आज भारतीय राजनेता जो सत्ता पे आसीन हैं या फिर विपक्ष में राजनीति का धर्म एवंम सिद्धान्तों को भुला कर धर्म की राजनीति कर सत्ता पे कब्ज़ा जमाये हुए हैं।
क्या वह राजनीति के धर्म का हक अदा कर रहे हैं ?.
भारत देश जिस ने पूरी दुनिया को (universal acceptance)का पाठ पढ़ाया हो जिस ने विश्व के सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार किया हो। वह भारत देश जो कभी सोने की चिड़िया हुवा करता था जहाँ की गंगा जमुनी तेहज़ीब की दुहाई दी जाती थी, जहाँ विश्व् भर में सब से ज़्यादा भाषाएँ और धर्म में आस्था रखने वाले लोग रहते हों ,जहाँ की एकता और अखण्डता इतिहास रचता हो, जहाँ की सभ्यता को दूसरे देशों में मिसाल बताया जाता हो दरअसल भारत में राजनेताओं ने राजनीति का धर्म भुला कर अपनी ज़िम्मेदारी के क़र्ज़ को अपने से अलग कर दिया है।
मानवता का धर्म-
मगर इन सारी बातों इन सारे धर्मों से ऊपर जो मानवता का धर्म है उसकी फ़िक्र किसी को भी नहीं है। कहीं धर्म तो कहीं नस्लवाद की लड़ाई जारी है भारत में धर्म और नस्लवाल की लड़ाई को नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता देश की जनता की आँखें तरस गयी इस बात के लिए की जिस नेता को अपना बहुमूल्य वोट देके सत्ता तक पहुंचाया कभी वो जनता से किये गए वादों को पूरा करने हेतु सरकार से लड़ाई करता, कभी वो अपने क्षेत्र की जनता के लिए सस्ती शिक्षा,बेरोजगारी,स्वास्थ्य,बिजली,पानी जीवन सुरक्षा के मसले हल न होने के कारण अनशन करता।
धर्म को लेकर बहस छिड़ी हुई-
आज देश के हर कोने में हर धर्म को लेकर बहस छिड़ी हुई है, इस लड़ाई में आज तक अनगिनत जानें जा चुकी हैं और न जाने कितनी और जानें जाती रहेगी. आज हर कोई मानवता के लिए बड़ी बड़ी बातें तो करता है, मगर कभी ईमानदारी से उसी मानवता की सेवा के लिए अपनी सोच बदलने की कोशिस की? कभी नहीं क्योंकि हमारी मानसिक्ता में व्योहारवाद ही नहीं । हम एक ऐसे माहोल में जीते हैं जहां परम्पराओं को तोडक़र उस से आगे की सोचना हमारे आचरण में नहीं है.या अंधविश्वास की बंदिश से आज़ाद होना हमारे बस में नहीं , यही कारण है कि हम अपने असली धर्म और उसकी परिभाषा को भूल गए है।
राजनीति और धर्म दोनों ही ऐसे विषय हैं जिन्हें कभी भी अलग नहीं किया जा सकता है. चिंतन इस बात पर होना चाहिए कि राजनीति की दिशा और दशा क्या है क्योंकि ये दोनों ही विषय हर वर्ग के जीवन को प्रभावित करते हैं. राजनीति और धर्म का संबंध आदिकाल से है. बस हमें धर्म का अभिप्राय समझने की जरूरत है. इस वक्त धर्म की राजनीति को लेकर तमाम सवाल, आरोप-प्रत्यारोप उठ रहे हैं. हमें इन आरोप-प्रत्यारोपों से कोई सरोकार नहीं है, बल्कि यही कहना है कि धर्म के बिना समर्थ और सार्थक राजनीति नहीं हो सकती है.
वैदिक काल में जब हम जाते हैं तो यही देखने को मिलता है कि धर्म हमें जोड़ने और जनहित में काम करने का पाठ पढ़ाता था. यह इतना सशक्त था कि राजा भी इसके विरुद्ध कोई आचरण नहीं कर सकता था. ऐसा होने पर धर्म संगत निर्णय लेकर राजा को भी दंडित किए जाने की व्यवस्था थी.
बात साफ है यदि धर्म निरपेक्ष है तो किसी भी धर्म का पक्ष लेना गलत है, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, सिख या ईसाई. उनकी नजर में सभी धर्म और उनकी मान्यताएं समान होनी चाहिए. ऐसे में योग को किसी धर्म के तुष्टीकरण के चश्मे से देखना निहायत निंदनीय है. अब कांग्रेस सहित कथित अन्य धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दल यही कर रहे हैं. वह सही बात को सही तरीके से लेने के बजाय धार्मिक तुष्टीकरण की राजनीति के जरिए अपना आधार बनाना चाहते हैं जो निहायत गलत और निंदनीय है.
हमारा देश करीब 800 साल तक मुस्लिम शासकों के अधीन रहा मगर तब भी हिंदू, सिख, ईसाई और बौद्ध धर्म फला-फूला. कुछ मुस्लिम शासकों ने क्रूर व्यवाहर किया तो वह भी नष्ट हुए और उनका राज्य भी. धर्म और राजनीति का संबंध सिर्फ भारतवर्ष में ही नहीं रहा बल्कि विश्व अधिकतर देशों में देखने को मिलता है. कहीं ईसाइयत के साथ राजनीति का नाता है तो कहीं यहुदियों और इस्लामिक कट्टरता से इसका नाता है. कहीं बौद्ध और अन्य धर्म के अनुयायी राजनीतिक संबंध बनाते हैं. इसका यह मतलब कतई नहीं कि हम सही और सार्थक बातों को स्वीकार न करें. धर्म का अर्थ है ‘नैतिकता, मूल्यों, प्रतीकों, अनुष्ठानों और मिथकों’ से. उच्च स्तर की नैतिकता धर्म है.
मूल्यों यानी आदर्शों पर आधारित कर्तव्य धर्म हैं. आदर्श गुरुओं, ईष्ठों के प्रतीकों का सम्मान करना धर्म है और लोकहित के लिए अनुष्ठान करना धर्म है. मिथकों को समझना और उनको उचित स्थान देना धर्म है. हमने सभी धर्मों का मंतव्य समझा है मगर किसी भी धर्म में हमें वैमनस्यता और असहिष्णुता का पाठ नहीं मिला. वैसे हम वैदिक धर्म का पालन करते हैं मगर सभी धर्मों के तीर्थों पर जाते और उनका उचित सम्मान करते हैं. वहां के मुताबिक आचरण भी करते हैं इससे हमारा न तो धर्म बदलता है और न हमारे धर्म का सम्मान कम होता है. देश के कुछ राजनीतिक दल जिस तरह से कुछ जातियों और धर्मों के नाम पर राजनीति करके खुद को कथित ‘सेकुलर यानी धर्मनिरपेक्ष’ होने का स्वांग रचते हैं वह दुखद है.
बीजेपी हो या कांग्रेस दोनों को ही धर्मनिरपेक्ष राजनीति करनी चाहिए, जिसमें हिंदू धर्म को भी वही सम्मान मिले जो इस्लाम, सिख, ईसाई, बौद्ध और जैन धर्म को मिलता है. सभी धर्मों की लोकहित की नीतियों और पद्धितियों को अंगीकृत किया जाए. सिर्फ इस कारण से किसी से दूरी बनाने की कोशिश न की जाए कि यह दूसरे धर्म की किताब में लिखी है. हमारा मानना है कि धर्म के अंतरनिहित सिद्धांतों और लोकहित की पद्धतियों को अपनाने के लिए राजनीति होनी चाहिए न कि राजनीति को चमकाने के लिए तुष्टीकरण और भेदभाव की राजनीति. यदि योगासन हमारे लिए हितकर है तो उसे अपनायें और जो चीजें हितकर नहीं हैं उन्हें त्यागें. हम सार्थक दिशा में चलें और सभी को जोड़ने के लिए धर्म का सदुपयोग करें न कि तोड़ने के लिए. योग हमें स्वस्थ्य बनाता है तो उसे स्वीकारने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए.
राजनीतिज्ञों के ऐसे प्रयासों के परिणामस्वरूप सत्ता प्राप्ति की उनकी स्वार्थपूर्ण इच्छा तो भले ही कुछ समय के लिए पूरी हो जाती है। परंतु मानवता उन सत्ताधीशों को कतई मांफ करने को तैयार नहीं होती जिनके सत्ता के सिंहासन की बुनियाद बेगुनाह लोगों के ख़ून से सनी होती है। अब यहां प्रश्न यह है कि क्या भविष्य में भी यह विसंगतियां यूं ही जारी रहेंगी या फिर इनमें भारी बदलाव की जरूरत महसूस की जा रही है। दरअसल हमें यह बात पूरी तरह समझ लेनी चाहिए कि किसी भी धर्म का कोई भी धर्मगुरु यदि हमें धर्म के नाम पर बांटने या धर्म के नाम पर नंफरत फैलाने, हिंसा पर उतारू होने, एक दूसरे इंसान का ख़ून बहाने का पाठ पढ़ाता है या इसके लिए उकसाता है तो इसके पीछे उसका मंकसद धर्म के प्रति उसका लगाव या प्रेम कतई नहीं है बल्कि वह इस रास्ते पर चलते हुए या तो अपनी रोंजी-रोटी पक्की कर रहा है या फिर किसी राजनैतिक निशाने पर अपने तथाकथित धर्मरूपी तीर छोड रहा है। ऐसे दूराग्रही राजनैतिक लोग निश्चित रूप से अपने साथ धार्मिक लिबासों में लिपटे तथाकथित ढोंगी एवं पाखंडी धर्माधिकारियों की फ़ौज भी लिए फिरते हैं। यदि ऐसे ढोंगी व पाखंडी धर्माधिकारियों से कभी किसी शिक्षित व्यक्ति का साक्षात्कार हो तो इन ढोगियों के ज्ञान की गहराई का आसानी से अंदांजा भी लगाया जा सकता है।
मानव समाज के उत्थान तथा सभी सामाजिक व्यवस्थाओं के सुचारु संचालन केलिए यह जरूरी है कि नासूररूपी कट्टरपंथी, रूढ़ीवादी तथा समाज को हर समय क्षति पहुंचाने वाली सभी दूराग्रही व्यवस्थाओं से पीछा छुड़ाया जाए। हमारे देश के बुद्धिजीवियों, उदारवादी नेताओं, सामाजिक संगठनों तथा गैरसरकारी संगठनों का यह परम कर्तव्य है कि वे समाज में कुकुरमुत्ते की तरह सिर उठाते उन ढोंगी धर्मगुरुओं,धर्म उपदेशकों तथा इन्हें अपने साथ सत्ता स्वार्थ हेतु जोड़ने वाले राजनेताओं से खबरदार करें तथा इनकी वास्तविकताओं व इनके गुप्त एजेंडों को बेनकाब करें। लोकतांत्रिक व्यवस्था में चूंकि आम मतदाता ही सबसे बड़ी शक्ति है लिहाजा प्रत्येक स्तर पर यह कोशिश की जानी चाहिए कि हमारा मतदाता जागरुक हो अपनी आंखें खोले तथा किसी भी राजनैतिक हथकंडे का शिकार होने से बच सके। धर्म के नाम के दुरुपयोग से स्थायी रूप से समाज को बचाने के लिए अनिवार्य बेसिक शिक्षा के स्तर पर भी यह प्रयास अत्यंत जरूरी हैं। इसके अंर्तगत् देश का भविष्य बनने वाले बच्चों को सर्वधर्म समभाव,सांप्रदायिक सौहाद्र,अनेकता में एकता, सर्वे भवंतु सुखिन: तथा वसुधैव कुटुंबकम जैसी प्राचीन एवं पारंपरिक भारतीय शिक्षा एवं मानवता को सकारात्मक संदेश देने वाले इतिहास तथा घटनाक्रमों का अध्ययन कराया जाना अत्यंत जरूरी है।
हमें निश्चित रूप से यह मान लेना चाहिए कि धर्म व राजनीति के मध्य रिश्ता स्थापित कर यदि कोई नेता अथवा धर्मगुरु हमसे किसी पार्टी विशेष के लिए वोट मांगता है तो ऐसा व्यक्ति अथवा संगठन हमारी धार्मिक भावनाओं से खिलवाड़ करने की ही कोशिश मात्र कर रहा है। समाज कल्याण से दरअसल उस व्यक्ति या संगठन का कोई लेना देना नहीं है। धर्म वास्तव में किसी भी व्यक्ति की आस्थाओं तथा विश्वास से जुड़ी एक ऐसी आध्यात्मिक विषय वस्तु है जो किसी भी व्यक्ति को व्यक्ति गत रूप से ही संतोष प्रदान करती है। अत: हम यह कह सकते हैं कि धर्म किसी सामूहिक एजेंडे का नहीं बल्कि किसी की अति व्यक्तिगत् ष्टविषय वस्तु का नाम है। ठीक इसके विपरीत जो शक्तियां धर्म को अपने राजनैतिक स्वार्थ के कारण सड़कों पर लाना चाहती हैं वे शक्तियां भले ही धार्मिक वेशभूषा में लिपटी हुई तथा धर्म के नाम पर ढोंग व पाखंड रचाती क्यों न नंजर आएं परंतु हंकींकत में यही तांकतें हमारे मानव समाज, राष्ट्र यहां तक कि किसी भी धर्म की भी सबसे बड़ी दुश्मन हैं।