राजनीति में पिसता गरीब और मजदूर





एक समय था जब लूट सामंती व्यवस्था द्वारा होती थी और अपनी जान की सलामती के लिए ज्यादातर लोग विरोध नहीं कर पाते थे। वह सामंती व्यवस्था समाप्त हो चुकी है और आज भारत विश्व-पटल पर अपनी अलग पहचान बनाने की कोशिश कर रहा है। लेकिन आम आदमी के साथ लूट का सिलसिला आज भी जारी है। बस, इस लूट के तरीके बदल गए हैं। अब यह लूट बैंकों के घोटालों और निजी अस्पतालों के महंगे बिलों के जरिए होने लगी है। देश के निजी अस्पतालों का आचरण कुछ ऐसा हो गया है कि अगर उनके मेडिकल बिलों पर एक किताब प्रकाशित की जाए तो उसका शीर्षक होगा, कुछ ही दिन में करोड़पति कैसे बनें? देश के निजी अस्पताल बेहतर इलाज के नाम पर भारी मुनाफा कमाने की बीमारी से पीड़ित हैं। मरीज लगातार निजी अस्पतालों की मानसिक गिरफ्त के शिकार हो रहे हैं। ज्यादातर मरीज अपनी जान की सलामती के लिए, इस लूट को चुपचाप सहन करने पर मजबूर हैं। अभी कुछ महीने पहले देश के दो बड़े निजी अस्पतालों के अत्यंत महंगे बिल सुर्खियों में रहे थे। इन दोनों अस्पतालों ने डेंगू से पीड़ित बच्चों के इलाज के लिए करीब पंद्रह लाख रुपए का बिल बनाया था। मीडिया में खबरें चलने के बाद कई सरकारी एजेंसियों ने जांच शुरू की थी और अब इस जांच के जो परिणाम सामने आए हैं वे स्वास्थ्य सेवाओं के लूटतंत्र को उजागर करते हैं।



देश में दवाओं की कीमतों पर नियंत्रण करने वाली संस्था नेशनल फार्मास्युटिकल प्राइसिंग अथॉरिटी यानी एनपीपीए ने दिल्ली समेत एनसीआर के चार निजी अस्पतालों के बिलों का अध्ययन करके एक रिपोर्ट जारी की है। इस रिपोर्ट के मुताबिक ये निजी अस्पताल अपने बिलों में दवाओं और मेडिकल उपकरणों की एमआरपी में हेर-फेर करके सत्रह सौ फीसद तक मुनाफा वसूल रहे हैं। हमारे देश में यह नियम है कि कोई सामान एमआरपी से ज्यादा कीमत पर नहीं बेचा जा सकता। लेकिन ज्यादातर मामलों में सामान का एमआरपी तय करने का कोई नियम नहीं होने के कारण, दवा कंपनियां और निजी अस्पताल मिल-जुलकर इसका भरपूर फायदा उठा रहे हैं। एनपीपीए की रिपोर्ट के अनुसार, निजी अस्पताल दवा कंपनियों पर दबाव बना कर एमआरपी ज्यादा रखवाना चाहते हैं ताकि ग्राहकों से ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाया जा सके। रिपोर्ट में इस बात का भी जिक्र किया गया है कि दवा कंपनियों की तुलना में निजी अस्पताल कई गुना ज्यादा मुनाफा कमाते हैं। एनपीपीए ने चारों अस्पतालों के बिलों का अध्ययन करके महंगा बिल तैयार करने के तंत्र का भी खुलासा किया है। किसी मरीज की दवाओं के चार फीसद हिस्से की कीमत सरकार द्वारा निर्धारित की जाती है। इसीलिए इसमें हेराफेरी करना मुश्किल होता है, वहीं छब्बीस फीसद हिस्सा ऐसी दवाओं का होता है जिनकी कीमत निजी अस्पताल तय करते हैं। इसके अलावा सोलह फीसद हिस्सा मेडिकल जांच, तेरह फीसद डॉक्टरी परामर्श और इकतालीस फीसद हिस्से में दूसरे खर्च जोड़ दिए जाते हैं, जिनमें कमरे का किराया और इलाज के दौरान इस्तेमाल किए जाने वाले उपकरण शामिल होते हैं। इस पूरे बिल में सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कुल खर्चे के छियानवे फीसद हिस्से पर अस्पतालों का नियंत्रण होता है, यानी ये निजी अस्पताल मुनाफा कमाने वाली दुकान बन चुके हैं जिनका फोकस सिर्फ पैसा कमाने पर होता है। निजी अस्पतालों की लूट पर एनपीपीए की रिपोर्ट तो आ गई है लेकिन क्या अब इन अस्पतालों पर कोई कार्रवाई होगी? क्या हमारी व्यवस्था केवल इस तरह की रिपोर्ट जारी करने का तक सीमित है? फिर ऐसी रिपोर्टों का क्या फायदा, जो व्यवस्था और समाज में कोई बदलाव नहीं ला सकतीं? जो मरीज अस्पताल की इस लूट का शिकार हो चुके हैं उनके पैसे कौन लौटाएगा? वर्तमान स्थिति यह है कि इस तरह के अस्पतालों पर अभी तक कोई कार्रवाई नहीं की गई है। निजी अस्पतालों में लूट की प्रक्रिया आराम से चल रही है। इससे समझ आता है कि हमारे राज्यतंत्र को आम लोगों की कितनी चिंता है!



हमारे देश में चिकित्सा व्यवस्था को आज भी सम्मानजनक पेशा माना जाता है, लेकिन सत्रह सौ फीसद का मोटा मुनाफा कमाने वाले अस्पतालों को मानवता की सेवा करने वाली संस्था नहीं कहा जा सकता। वर्ष 2010 में निजी अस्पतालों के महंगे इलाज पर काबू पाने के लिए ‘द क्लीनिक रजिस्ट्रेशन ऐंड रेगुलेशन एक्ट 2010’ तैयार किया गया था। यह कानून निजी अस्पतालों को तय दरों के हिसाब से बिल वसूलने के दिशा-निर्देश देता है। यानी अस्पतालों में इलाज के लिए एक तय प्रक्रिया होनी चाहिए, जिससे लोगों को पता लग जाए कि कौन-सा उपचार कितने पैसे में मिलेगा। लेकिन यह कानून अभी तक देश के सिर्फ सात राज्यों और छह केंद्रशासित प्रदेशों में लागू है। डॉक्टरों की एक बहुत बड़ी लॉबी इसका कानून का विरोध कर रही है और उन्होंने इसे अधिकतर राज्यों में लागू नहीं होने दिया है। स्वास्थ्य सेवाएं राज्य के अधिकार क्षेत्र में आती हैं, इसलिए केंद्र सरकार द्वारा लाए गए इस बिल पर फैसला राज्यों को लेना है। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और बिहार जैसे राज्यों ने इस कानून को सैद्धांतिक रूप से तो मान लिया है, लेकिन किसी भी राज्य ने इसे अपनाने की प्रक्रिया अभी तक शुरू नहीं की है। इससे पता चलता है कि सरकारी तंत्र को लोगों के स्वास्थ्य की कितनी चिंता रहती है! एक गरीब आदमी को इस बात से कोई मतलब नहीं है कि स्वास्थ्य सेवाएं राज्य का विषय हैं या केंद्र का। एक गरीब आदमी सिर्फ यह चाहता है कि उसका बच्चा या वह खुद बीमार हो तो उसे आसानी से किफायती इलाज की सुविधा मिल सके। ऐसा न हो कि उसके ऊपर दबाव बना कर लाखों रुपए का बिल उसके हाथ में थमा दिया जाए।


सरकारी आंकड़ों को देखें तो देश के लगभग उनतीस फीसद लोग गरीब हैं। ग्रामीण इलाकों में 972 रुपएऔर शहरी इलाकों में 1407 रुपए से कम कमाने वाला व्यक्ति गरीब माना जाता है। जिस देश में हर दस में से तीन लोग गरीब हों तथा प्रतिव्यक्तिआय 8, 601 हो, उस देश में इलाज का लाखों रुपए का बिल बनाना कितना जायज है? निजी अस्पतालों के लिए यह समझना जरूरी है कि बेहतर इलाज का हक गरीबों का भी है। लेकिन ज्यादातर निजी अस्पताल उनके इस अधिकार को छीन लेते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि देश के सारे डॉक्टर बेईमान हो चुके हैं, लेकिन आज बड़ी संख्या में ऐसे डॉक्टर हैं जो सिर्फ पैसा कमाना चाहते हैं। उन्हें सोचना चाहिए कि सात-आठ हजार रुपए कमाने वाला व्यक्तिलाखों रुपए कहां से लाएगा? लेकिन देश की चिकित्सा व्यवस्था के लोग असंवेदनशील और असहिष्णु हो चुके हैं। अब उन्हें जान बचाने से नहीं, पैसा कमाने से संतुष्टि मिलती है। बड़े-बड़े कारोबारियों ने अस्पतालों में निवेश कर उन्हें काली कमाई का जरिया बना लिया है। चिकित्सा क्षेत्र में ऐसा व्यापार मॉडल विदेशों में तो चल सकता है जहां पर लोगों का मेडिकल बीमा होता है, लेकिन भारत जैसे देश में नहीं, जहां गरीबी को मापने के अंतरराष्ट्रीय पैमाने को लागू करें, तो गरीबों की संख्या वास्तव में बहुत ज्यादा है। देश के ज्यादातर निजी अस्पताल किसी बिल्डर या प्रॉपर्टी डीलर की तरह व्यवहार कर रहे हैं। ऐसे में समूची आबादी को स्वास्थ्य-सेवाएं मुहैया कराने का सपना कैसे साकार होगा?

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