एक बार भगत सिंह कही जा रहे हैं थे रेलगाड़ी से और एक स्टेशन पर गाड़ी रुकी गाड़ी को बहुत देर रुकना था तो भगतसिंह पानी पीने के लिए उतरे। पास ही एक कुँए पास गये, और पानी पिया तभी उनकी नजर कुछ दूर पर खड़े एक शख्स पर पड़ी जो धूप में नंगे बदन खड़ा था और बहुत भारी वजन भी अपने कंदे रखा था।
तरसती हुई आंखों से पानी को ओर देख रहा था मन मे सोच रहा था, मुझको थोड़ा पानी पीने को मिल जाये। भगत सिंह उसके पास गए, और पूछने लगे आप कौन हो और इतना भारी वजन को धूप में क्यो उठाये हो। तो उसने डरते हुए कहा, साहब आप मुझसे दूर रहे नही तो आप अछूत हो जायँगे क्योकि मैं एक बदनसीब अछूत हूँ।
भगत सिंह ने कहा आपको प्यास लगी होगी पहले इस वजन को उतारो और मैं पानी लाता हुँ। आप पानी पी लो। भगत सिंह के इस व्यवहार से वह बहुत खुश हुआ। भगत सिंह ने उसको पानी पिलाया और फिर पूछा आप अपने आपको अछूत क्यो कहते हो तो उसने जबाब दिया हिम्मत करते हुए। अछूत मैं नही कहता अछूत तो मुझको एक वर्ग विशेष के लोग बोलते हैं और मुझसे कहते हैं आप लोग अछूत हो। तुमको छूने से धर्म भ्रष्ट हो जायेगा और मेरे साथ जनवरो जैसा सलूक करते हैं। आप ने तो मुझको पानी पिला दिया नही तो मुझको पानी भी पीने का अधिकार नही हैं, और न ही छाया में भी खड़े होने का अधिकार हैं, और न ही सार्वजनिक कुँए से पानी पीने का अधिकार हैं।
तब भगत सिंह को आभास हुआ मुझको तो बचपन से यही बताया गया हैं की देश अंग्रेजों से गुलाम हैं पर ये तस्वीर तो कुछ और ही भया करती हैं। देश तो एक वर्ग विशेष से धर्मवादियो से गुलाम हैं, जो धर्म के नाम भारत को मूर्ख बनाये हुए हैं तभी भगत सिंह सोचने लगे देश अंग्रेजो से आजाद होकर भी गुलाम रहेगा क्योकि इन अछुतो को कौन आजाद कराएगा तब भगत सिंह ने बाबा साहब के बारे में जाना (उस समय बाबा साहब विदेश में थे) फिर भगत सिंह ने इस बात को लेकर अध्ययन किया और फिर सोंचने लगे इनकी ऐसी हालत कैसे हुई।
भगत सिंह ने मैं नास्तिक क्यो पुस्तक में लिखा हैं, मैं तो नकली दुश्मनो से लड़ रहा था, असली दुश्मन तो मेरे देश में हैं, जिनसे अकेले बाबा साहब डॉ भीम राव अम्बेडकर लड़ रहे हैं। अगर मैं जेल से छुटा तो आजीवन बाबा साहब साथ रहते हुए,इन अछुत अस्पर्श्य भारतीयों की आजादी के लिए लड़ूंगा।
असली दुश्मन तो मेरे देश में है…
भगत सिंह ने मैं नास्तिक क्यों पुस्तक में लिखा हैं मैं तो नकली दुश्मनो से लड़ रहा था, असली दुश्मन तो मेरे देश में हैं. जिनसे बाबा साहब डॉ भीम राव अम्बेडकर और शाहूजी लड़ रहे हैं. अगर मैं जेल से छूटा तो आजीवन बाबा साहब के साथ रहते हुए, इन अछूत अस्पृश्य भारतीयों की आजादी के लिए लड़ूंगा.
संदर्भ - भगतसिंह की जेल डायरी
पशुओं से भी गया-बीता समझोगे क्या?
भगत सिंह को जब पहली बार 29 मई से 4 जुलाई 1927 के दौरान पुलिस ने गिरफ्तार किया तो उन्होंने लाहौर पुलिस स्टेशन में सवालों का जवाब देते हुए बंबई काउंसिल में 1926 को नूर मोहम्मद द्वारा दिए गए भाषण का हवाला देते हुए कहा था कि, “जब तक तुम एक इंसान को पानी पीने देने से भी इंकार करते हो, जब तुम उन्हें स्कूल में भी पढ़ने नहीं देते तो तुम्हें क्या अधिकार है कि अपने लिए अधिक अधिकारों की मांग करो? जब तुम एक इंसान को समान अधिकार देने से भी इंकार करते हो, तो तुम अधिक राजनीतिक अधिकार मांगने के कैसे अधिकारी बन गए? जब तुम उन्हें इस तरह पशुओं से भी गया-बीता समझोगे तो वह जरूर ही दूसरे धर्मों में शामिल हो जाएंगे, जिनमें उन्हें अधिक अधिकार मिलेंगे, जहां उनसे इंसानों जैसा व्यवहार किया जाएगा। फिर यह कहना कि देखो जी, ईसाई और मुसलमान हिन्दू कौम को नुकसान पहुंचा रहे हैं, व्यर्थ होगा।”
अछूतों के लिए पृथक निर्वाचन का समर्थन
आज जब झूठ के चादर में लपेटकर विकास का दिखावा किया जा रहा है, ऐसे में भगत सिंह का कहा ध्यान में लेना होगा। “लोगों को मानों आवश्यक कार्यों के प्रति घृणा पैदा हो गई। हमने जुलाहे को भी दुत्कारा। आज कपड़ा बुनने वाले भी अछूत समझे जाते है। कहार को भी अछूत समझा जाता है। यह गड़बड़ी विकास की प्रक्रिया में रुकावटें पैदा करती है।” सामाजिक न्याय के बिना विकास का रास्ता आसान नहीं। भगत सिंह ने अछूतों के लिए पृथक निर्वाचन की मांग का समर्थन किया था। 23 मार्च 1931 को भगत सिंह अपने साथियों के साथ फांसी पर चढ़ा दिए गए। यदि वे जीवित रहते तो 1932 में पूना पैक्ट में वे अंबेडकर का समर्थन करते। भगत सिंह ने लिखा है, “अछूतों को उनके अलग अधिकार उन्हें दे दो। कौंसिलों और असेम्बलियों का कर्तव्य है कि वे स्कूल-काॅलेज, कुएं तथा सड़क के उपयोग की पूरी स्वतंत्रता उन्हें दिलाएं। जुबानी तौर पर नहीं, वरन साथ ले जाकर उन्हें कुओं पर चढ़ाएं। उनके बच्चों को स्कूलों में प्रवेश दिलाएं। उनके अपने जनप्रतिनिधि हों, वे अपने लिए अधिक अधिकार मांगे।”
आत्मगौरव बढ़ाने के लिए दी चुनौती
सामाजिक समता की स्थापना के लिए अछूतों को चुनौती देते हुए भगत सिंह कहते है कि, “अछूत कहलाने वाले असली जनसेवकों तथा भाइयों उठो! अपना इतिहास देखो। गुरु गोविंद सिंह की फौज के असली शक्ति तुम्हीं थे। शिवाजी तुम्हारे भरोसे पर ही सब कुछ कर सकें, जिस कारण उनका नाम आज भी जिंदा है। तुम्हारी कुर्बानियां स्वर्णाक्षरों में लिखी हुई है। तुम पर इतना जुल्म हो रहा है, असल में स्वयं कोशिशें किए बिना कुछ भी न मिल सकेगा। तुम असली सर्वहारा हो, संगठनबद्ध हो जाओ। सामाजिक आंदोलन से क्रांति पैदा कर दो तथा राजनीतिक और आर्थिक क्रांति के लिए कमर कस लो।”
पेरियार का भगत सिंह के प्रति सम्मान
ये दोनों संपादकीय इस तथ्य की गवाही देते हैं कि देश एवं समाज के लिए जीने और मरने वाले भगत सिंह जैसे लोगों के प्रति पेरियार और आंबेडकर के मनोभाव क्या थे. सबसे पहले पेरियार के संपादकीय को लेते हैं. संपादकीय की पहली ही पंक्ति इन शब्दों से शुरू होती है- ‘शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जिसने भगत सिंह को दी गई फांसी की सजा पर दुख व्यक्त न किया हो. न ही ऐसा कोई व्यक्ति होगा, जिसने उन्हें फांसी के तख्ते तक पहुंचाने के लिए सरकार की निंदा न की हो.’ (कुदी आरसु, 1931)
अपना दुख प्रकट करने के बाद पेरियार भगत सिंह की फांसी के संदर्भ में गांधी और ब्रिटिश शासन के बीच खुले और गुप्त संवाद की चर्चा करते हुए, इस पूरे संदर्भ में भारतीय जनता की प्रतिक्रिया का जिक्र करते हैं और बताते हैं कि कैसे जनता का एक हिस्सा इस फांसी के लिए गांधी को भी जिम्मेदार मानते हुए उनके खिलाफ नारे लगा रहा है. फिर वे भगत सिंह के व्यक्तित्व की महानता और अपने उद्देश्यों के प्रति उनके समर्पण की प्रशंसा करते हुए लिखते हैं कि ‘हम दावे के साथ कह सकते हैं कि वे ईमानदार शख्सियत थे. हम जोर देकर, पूरे विश्वास के साथ कहना चाहेंगे कि भारत को भगत सिंह के आदर्शों की ही आवश्यकता है. जहां तक हम जानते हैं, वे समधर्म (बहुआयामी समानता) और साम्यवाद के आदर्श में विश्वास रखते थे.’
इसके बाद पेरियार भगत सिंह का एक चर्चित उद्धरण प्रस्तुत करते हैं, जिसके माध्यम से वे बताते हैं कि भगत सिंह का आदर्श सबके लिए समता और साम्यवाद के आदर्श की स्थापना था. वे भगत सिहं को कोट करते हैं- ‘हमारी लड़ाई उस समय तक जारी रहेगी, जब तक साम्यवादी दल सत्ता में नहीं आ जाते और लोगों के जीवन-स्तर और समाज में जो असमानता है, वह पूरी तरह समाप्त नहीं हो जाती. यह लड़ाई हमारी मौत के साथ समाप्त होने वाली नहीं है. यह प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष रूप से लगातार चलती रहेगी.’
इसके बाद पेरियार विस्तार से धर्म, ईश्वर, असमानता, गरीबी और अछूत समस्या पर भगत सिंह के विचारों की चर्चा करते हुए उनके पक्ष में खड़े होते हैं. वे उनके द्वारा समता और साम्यवाद हासिल करने के तरीके से पूरी तरह सहमत न होते हुए भी उनके आदर्शों की प्रशंसा करते हैं. संपादकीय के अंत में वे भगत सिंह के व्यक्तित्व का इन खूबसूरत शब्दों में चित्रांकन करते हैं- ‘भगत सिंह ने उत्कृष्ट, असाधारण और गौरवशाली मौत अपने लिए चुनी थी, जिसे साधारण इंसान आसानी से प्राप्त नहीं कर सकता. इसलिए हम हाथ उठाकर, अपने सभी शब्द-सामर्थ्य के साथ और मन की गहराइयों से उनकी प्रशंसा करते हैं.’
भगत सिंह के बारे में डॉ. आंबेडकर के विचार
अपने पाक्षिक अखबार जनता में 13 अप्रैल 1931 को लिखे संपादकीय में डॉ. आंबेडकर भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव की फांसी को बलिदान के रूप में रेखांकित करते हैं और अपने संपादकीय को ‘तीन बलिदान’ शीर्षक देते हैं. पूरी संपादकीय का निष्कर्ष है ये तीनों व्यक्तित्व ब्रिटेन की आंतरिक राजनीति के शिकार बने. इसी कारण से वे कहते हैं कि यह न्याय नहीं था, बल्कि न्याय हुआ.
वे लिखते हैं- ‘गर सरकार को यह उम्मीद हो कि इस घटना से ‘अंग्रेजी सरकार बिल्कुल न्यायप्रिय है या न्यायपालिका के आदेश पर हुबहू अमल करती है’ ऐसी समझदारी लोगों के बीच मजबूत होगी और लोग उसका समर्थन करेंगे तो यह सरकार की नादानी है, क्योंकि यह बलिदान ब्रिटिश न्याय देवता की शोहरत को अधिक धवल और पारदर्शी बनाने के इरादे से किया गया है, इस बात पर किसी को भी यकीन नहीं है. खुद सरकार भी इस समझदारी के आधार पर अपने आप को सन्तुष्ट नहीं कर सकती है. फिर बाकियों को भी इसी न्यायप्रियता के आवरण में वह किस तरह सन्तुष्ट कर सकती है? न्याय देवता की भक्ति के तौर पर नहीं बल्कि विलायत के कन्जर्वेटिव/राजनीतिक रूढिवादी/पार्टी और जनमत के डर से इस बलिदान को अंजाम दिया गया है, इस बात को सरकार के साथ दुनिया भी जानती है.’
भगत सिंह के साहस को नमन
संपादकीय की शुरूआत में डॉ. आंबेडकर उन आरोपों का जिक्र करते हैं, जिनके तहत इन तीन लोगों को फांसी दी गई. फिर वे इन तीनों की बहादुरी की चर्चा करते हुए कहते हैं, फांसी की जगह गोली से उड़ा देने की भगत सिंह की अंतिम इच्छा भी पूरी नहीं की गई. वे लिखते हैं- ‘हमारी जान बख्श दें’ ऐसी दया की अपील इन तीनों में से किसी ने भी नहीं की थी. हां, फांसी की सूली पर चढ़ाने के बजाए हमें गोलियों से उड़ा दिया जाए, ऐसी इच्छा भगत सिंह ने प्रगट की थी, ऐसी ख़बरें अवश्य आयी हैं. मगर उनकी इस आखिरी इच्छा का भी सम्मान नहीं किया गया.’
इस संपादकीय में विस्तार से डॉ. आंबेडकर भगत सिंह की फांसी के संदर्भ में भारत और ब्रिटेन में हुई खुली और गुप्त राजनीति की चर्चा करते हैं और इसमें गांधी और उस समय के वायसराय लार्ड इर्विन की भूमिकाओं पर बात करते हैं. डॉ. आंबेडकर की राय में गांधी और इर्विन भगत सिंह की फांसी को आजीवन कारावास में बदलने के हिमायती थे. इर्विन से गांधी जी ने ये वादा भी लिया था. लेकिन ब्रिटेन की आंतरिक राजनीति और ब्रिटेन की जनता को खुश करने लिए इन तीनों को फांसी दी गई. वे अपनी संपादकीय के अंत में लिखते हैं- ‘लुब्बोलुआब यही कि जनमत की परवाह किए बगैर, गांधी-इर्विन समझौते का क्या होगा, इसकी चिन्ता किए बिना विलायत के रूढ़िवादियों के गुस्से का शिकार होने से अपने आप को बचाने के लिए, भगत सिंह आदि की बलि चढ़ायी गई. यह बात अब छिप नहीं सकेगी यह बात सरकार को पक्के तौर पर मान लेनी चाहिए.’
ईवी रामासामी ‘पेरियार’ और डॉ. आंबेडकर के भगत सिंह की फांसी पर संपादकीय उनकी गहरी संवेदनशीलता और व्यापक मनुष्यता को समेटने वाली वैचारिकता का उत्कृष्ट नमूना है.
सवाल का मकसद है दुष्प्रचार
सोशल मीडिया पर अक्सर सवाल पूछा जाता है कि अंबेडकर वकील थे तो भगत सिंह का केस क्यों नहीं लड़ा ? यह सवाल व्यंग, नफरत या आक्रोश अथवा जिज्ञासावश में पूछा जा सकता है। सवाल प्रथम दृष्टया उचित लगता है, परंतु अक्सर इसका मकसद दुष्प्रचार होता है। इसका सटिक जवाब जानने से पहले हमें हालातों को जानना होगा। 23 मार्च 1931 को भगत सिंह को फांसी दी गई थी। यह वह दौर था जब शूद्र-अतिशूद्र या यूं करे कि अंबेडकर जब स्कूल जाते थे तो उन्हें स्कूल के बाहर दरवाजे के पास बैठकर पढ़ाई करना पड़ता था। चूंकि भगत सिंह सिख थे तो उन्हें यह दंश झेलना नहीं पड़ा। शिक्षित होकर अंबेडकर जब नौकरी करने बड़ोदा गए तो उन्हें किराये पर होटल, धर्मशालाएं, कमरा तक नहीं मिला। जब वे सिडनम कालेज में प्रोफेसर बने तो बच्चे उनसे पढ़ने के लिए राजी नहीं हुए। ऐसे में जून 1923 से अंबेडकर ने वकालत का काम शुरू किया। उन्हें बार काउंसिल में भी बैठने के लिए जगह नहीं दी गई। अस्पृश्ता के चलते अंबेडकर को केस नहीं मिल पाते थे। एक गैर ब्राह्मण अपना केस हार जाने के बाद अंबेडकर के पास आए तो उनके केस की जीत ने उन्हें ख्याति दी। लेकिन वकालत अंबेडकर की रोजी-रोटी नहीं थी। जातिवाद के कारण केस नहीं मिलने पर उन्होंने बाटली बॉयज अकाउंटेंसी में लेक्चरर का काम शुरू कर दिया।
हालातों को जानना जरूरी
यह वह दौर था जहां किसी अछूत के छूने भर से हिन्दुओं का धर्म भ्रष्ट हो जाता था। इस दौर में आर्थिक जद्दोजहद के बीच जब कोई केस देने के लिए तैयार न हो, वहां भगत सिंह का केस अंबेडकर द्वारा न लड़ने का बेतुका तर्क पेश करना महज मूर्खता है। वैसे भी भगत सिंह का केस लाहौर में चल रहा था। जबकि अंबेडकर मुंबई में रहा करते थे। और भगत सिंह के केस की पैरवी जाने माने वकील आसिफ अली कर रहे थे। वकालत के क्षेत्र में उनका दबदबा था, ऐसे में आसिफ अली को हटाकर अंबेडकर को केस देने की कल्पना भी कोई कर नहीं सकता था।
आरएसएस के गोलवलकर के मित्र भगत सिंह विरोधी
भगत सिंह के खिलाफ जहां सुप्रसिद्ध वकील आसिफ अली पैरवी कर रहे थे। वहीं अंग्रेजों की तरफ से पैरवी करने वाले ब्राह्मण वकील का नाम था सूर्य नारायण शर्मा। यह वही शर्मा है जो आरएसएस के संस्थापक गोलवलकर के बहुत अच्छे मित्र थे। याद रहे कि अंबेडकर ने 150 वर्षों की अंग्रेजों की राजनीतिक गुलामी के मुकाबले में ढाई हजार वर्ष से भी अधिक की सामाजिक गुलामी को नष्ट करने के लिए अपना जीवन न्योछावर कर दिया। ऐसे में आजादी की लड़ाई को लेकर जहां क्रांतिकारियों का नाम गर्व से लिया जाता है, वहीं सामाजिक आजादी के लिए सर्वश्रेष्ठ स्थान पर अंबेडकर का नाम अभिमान के साथ लिया जाता है।
एक पहलू यह भी
जिस समय संपूर्ण देश में एकमात्र अछूत वकील के तौर पर अंबेडकर की पहचान थी, तब भी उन्हें केस नहीं मिल पाए। आर्थिक तंगी के चलते प्रोफेसर की नौकरी करनी पड़ी। ऐसे में भगत सिंह का केस स्वयं पहल कर, मुंबई से लाहौर जाकर लड़ना किसी भी दृष्टिकोण से सुविधाजनक नजर नहीं आता। यदि केस लड़ना भी चाहे तो मशहूर वकील आसिफ अली से केस वापिस लेकर अंबेडकर को सौंपने का कोई तार्किक मुद्दा नजर नहीं आता। एक पहलू यह भी है कि जहां ब्राह्मण वकील अंग्रेजों की पैरवी कर रहे थे, वहां देश में अनेक नामचीन वकील क्या तमाशा देख रहे थे ? जबकि वर्ष 2013 में पाकिस्तान के वकील इम्तियाज कुरैशी ने भगत सिंह की केस को दोबारा खुलवाया। इसकी पैरवी अब्दुल रशीद ने की। 2014 में अब्दुल ने एफआईआर की कॉपी मांगी तो पता चला कि एफआईआर में भगत सिंह का नाम ही नहीं है। उन्हें केवल रजिस्टर के आधार पर फांसी दे दी गई।
…और अंत में
अंबेडकर की निष्ठा व कार्य को लेकर समय-समय पर मनुवादियों द्वारा सवाल उठाया जाना एक आम बात है। लेकिन हमें उतनी ही सजगता से सभी तरह के आक्षेप व आरोपों का प्रतिउत्तर देते आना चाहिए। इसके लिए लगातार उन सवालों का पीछा करते हुए उसकी गहराई में जाने का विवेक निर्माण किया जाना चाहिए। सवाल भले ही बचकाने हो, लेकिन उसे पूछने वाले व्यक्ति का मकसद यदि अंबेडकर के चरित्र हनन का हो तो हमें चुप रहकर सवालों से मुंह मोड़ लेना ठीक नहीं। अंबेडकर के लिए अंग्रेजों की 150 वर्ष की गुलामी से कहीं अधिक जरूरी मुद्दा था, 2500 वर्ष की सामाजिक व वर्ण व्यवस्था से उपजी जातियवादी गुलामी को समाप्त करना। अत्यंत जरूरी लड़ाई उन्होंने लड़ी। अब हम क्यों चुप रहे? सोचिए!