Mahatma Gandhi : ' घर वापसी' जिसने बदल दिया भारत का इतिहास




1915 में एक भारतीय बैरिस्टर ने दक्षिण अफ्रीका के अपने करियर को त्याग अपने देश वापस आने का फैसला किया। जब मोहनदास करमचंद गांधी मुंबई के अपोलो बंदरगाह में उतरे तो न वो महात्मा थे और न ही बापू।


फिर भी न जाने क्यों बहुतों को उम्मीद थी कि ये शख्स अपने गैर-परंपरागत तरीकों से भारत को अंग्रेजों की गुलामी से आजाद करा लेगा। उन्होंने भारतवासियों को निराश नहीं किया। इसे इतिहास की विडंबना ही कहा जाएगा कि जब गांधी भारत लौटे तो एक समारोह में उनका स्वागत किया था बैरिस्टर मोहम्मद अली जिन्ना ने।


ये अलग बात है कि पांच साल के भीतर ही गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र से आने वाले इन धुरंधरों ने अलग-अलग राजनीतिक रास्ते अख्तियार किए और भारत और पाकिस्तान के राष्ट्रपिता कहलाए।

1915 से लेकर 1920 के बीच महात्मा गांधी ने किस तरह अपने आपको भारत के राजनीतिक पटल पर स्थापित किया। पढ़िए, महात्मा गांधी के स्वदेश वापस आने पर कई अनुछुए पहलू।


भारत लौटते वक्त महात्मा गांधी की उम्र क्या थी?

9  जनवरी 1915 को जब अरबिया जहाज ने मुंबई के अपोलो बंदरगाह को छुआ, उस समय मोहनदास करमचंद गांधी की उम्र थी 45 साल। 12 साल से उन्होंने अपनी जन्म भूमि के दर्शन नहीं किए थे।

उस जमाने में सिर्फ ब्रिटिश सरकार के खास आदमियों और राजा महाराजाओं को ही अपोलो बंदरगाह पर उतरने की अनुमति दी जाती थी। गांधी को ये सम्मान सर फिरोजशाह मेहता, बीजी हॉर्निमेन और गोपाल कृष्ण गोखले की सिफारिश पर दिया गया था।

जब गांधी जहाज से उतरे तो उन्होंने एक लंबा कुर्ता धोती और एक काठियावाड़ी पगड़ी पहनी हुई थी। उनसे मिलने आए लोगों ने या तो यूरोपियन सूट पहने हुए थे या फिर वो राजसी भारतीय पोशाक में थे।

बीमार होते हुए भी उनके राजनीतिक गुरू गोपाल कृष्ण गोखले पूना से उनसे मिलने बंबई आए थे। एक स्वागत समारोह की अध्यक्षता फिरोज शाह मेहता ने की थी तो दूसरे समारोह में एक साल पहले जेल से छूट कर आए बाल गंगाधर तिलक मौजूद थे।


'लोगों को मेरी असफलताओं के बारे में नहीं पता'


इसी समारोह में जब गांधी की तारीफों के पुल बांधे जा रहे थे तो उन्होंने बहुत विनम्रता से कहा था, "भारत के लोगों को शायद मेरी असफलताओं के बारे में पता नहीं है। आपको मेरी सफलताओं के ही समाचार मिले हैं। लेकिन अब मैं भारत में हूं तो लोगों को प्रत्यक्ष रूप से मेरे दोष भी देखने को मिलेंगें। मैं उम्मीद करता हूं कि आप मेरी गलतियों को नजरअंदाज करेंगे। अपनी तरफ से एक साधारण सेवक की तरह मैं मातृभूमि की सेवा के लिए समर्पित हूं।"


दक्षिण अफ्रीका में अपना लोहा मनवाने के बाद गांधी की ख्याति भारत भी आ पहुंची थी और अंग्रेज सरकार ने उन्हें गंभीरता से लेने का फैसला लिया था।

महात्मा गांधी के पौत्र और उनकी जीवनी लिखने वाले राजमोहन गांधी कहते हैं, "गोखले के कहने पर गांधी बंबई के गवर्नर विलिंगटन से मिले थे और उनके कहने पर उन्हें ये आश्वासन दिया था कि सरकार के खिलाफ कोई कदम उठाने से पहले वो गवर्नर को सूचित करेंगे। शायद सरकार भी गांधी को अपने खिलाफ नहीं करना चाहती थी, इसलिए उनके भारत आने के कुछ समय के भीतर ही उसने दक्षिण अफ्रीका में की गई उनकी सेवाओं के लिए कैसरे-हिंद के खिताब से नवाजा था।"

विश्वनाथ मंदिर में दक्षिणा देने से इंकार

गांधी ने गोखले की सलाह का पालन करते हुए पहले भारत के लोगों को जानने की कोशिश शुरू की। उन्होंने तय किया कि वो पूरे भारत का भ्रमण करेंगे और वो भी भीडं से भरे तीसरे दर्जे के रेल के डिब्बे से। तीसरे दर्जे के सफर में उनका लंबा कुर्ता और काठियावाड़ी पगड़ी बाधक साबित हुई, इसलिए उन्होंने उसका त्याग कर दिया।

गांधी के एक और जीवनीकार सुई फिशर लिखते हैं कि लोगों के छूने से उनके पैर और पिंडली इतनी खुरच जाती थी कि वहां पर गांधी के सहायकों को वेसलीन लगानी पडंती थी।

बाद में उनकी अंग्रेज साथी मेडलीन स्लेड ने, जिन्हें गांधी मीराबेन कहा करते थे ने कुछ पत्रकारों को बताया कि वो खुद गांधी के पैरों को हर रात शैंपू से धोया करती थीं।

अपनी भारत यात्रा शुरू करने से पहले गांधी गोखले और तिलक से मिलने पुणे गए। उसके बाद वो राजकोट पहुंचे और फिर रवींद्रनाथ टैगोर से मिलने शांतिनिकेतन। वहीं उन्हें गोखले के निधन की सूचना मिली। वो वापस पुणे लौटे और शोक के तौर पर उन्होंने चप्पलें पहनना भी छोड़ दीं।

गोखले के शोक समारोह में भाग ले कर वो वापस शांति निकेतन लौटे जहां टैगोर ने उन्हें पहली बार महात्मा शब्द से संबोधित किया। वहां से वो बनारस गए। वहां पर उन्होंने काशी विश्वनाथ मंदिर में दक्षिणा देने से इंकार कर दिया।

एक पंडे ने उनसे कहा, "भगवान का ये अपमान तुझे सीधे नर्क में ले जाएगा।" इसके बाद गांधी तीन बार बनारस गए लेकिन उन्होंने एक बार भी विश्वनाथ मंदिर के दर्शन नहीं किए।

चंपारण आंदोलन


1916 के कांग्रेस अधिवेशन में वो पहली बार जवाहरलाल नेहरू से मिले। वहीं बिहार से राज कुमार शुक्ल आए हुए थे। उन्होंने गांधी को चंपारण के नील पैदा करने वाले किसानों की व्यथा बताई और किसी तरह उन्हें वहां आने के लिए राजी कर लिया।

जब गांधी पटना पहुंचे तो शुक्ल उन्हें नील किसानों के वकील डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद के निवास पर ले गए। उस समय राजेंद्र प्रसाद अपने घर पर नहीं थे।

राजमोहन गांधी बताते हैं कि राजेंद्र प्रसाद के नौकरों ने गांधी को निम्न जाति का व्यक्ति समझते हुए उन्हें कुएं से पानी निकालने और शौचालय का इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं दी। बाद में राजेंद्र प्रसाद गांधी के निकट सहयोगी बने और उन्हें स्वाधीन भारत का पहला राष्ट्रपति बनाया गया।

जब चंपारण जाते हुए गांधी की ट्रेन आधी रात को मुजफ्फरपुर पहुंची तो उनके स्वागत में लालटेन ले कर आए आचार्य कृपलानी उन्हें ढूंढ नहीं पाए क्योंकि महात्मा गांधी तीसरे दर्जे में सफर कर रहे थे।

चंपारण में गांधी को पहली उपलब्ध ट्रेन से वो जगह छोड़ देने का फरमान सुनाया गया।

खेड़ा और सरदार पटेल


मोतिहारी की अदालत में गांधी ने कहा, "मैं इस आदेश का पालन इसलिए नहीं कर रहा कि मेरे अंदर कानून के लिए सम्मान नहीं है बल्कि इसलिए कि मैं अपने अन्तःकरण की आवाज को उस पर कहीं अधिक तरजीह देता हूं।"

अंतत: सरकार को नील किसानों की समस्याओं को सुनने के लिए एक जांच कमेटी बनानी पडी और महात्मा गांधी को उसका सदस्य बनाया गया। कमेटी ने एक मत से तिनकठिया व्यवस्था को समाप्त करने की सिफारिश की। ये भारत की धरती पर सत्याग्रह का पहला सफल प्रयोग था।

गांधी की दूसरी परीक्षा हुई खेड़ा में जहां भारी बारिश के कारण किसानों की सारी फसल बरबाद हो गई। स्थानीय किसानों ने लगान माफ कराने के लिए गांधी की सहायता मांगी।

गांधी के आह्वान पर 3000 किसानों ने लगान देने से इंकार कर दिया। इस आंदोलन में सरदार पटेल ने गांधी के साथ कंधे से कंधा मिला कर काम किया। अंतत: किसानों की जीत हुई और सरकार को लगान माफ करना पड़ा।

गांधीजी एक बार पालकी में भी बैठे


आचार्य कृपलानी ने अपनी आत्मकथा में लिखा, "मैंने अपनी आंखों से देखा कि किस तरह पटेल गांधी के जादू में आ गए। पहले वो एक युवा बैरिस्टर की तरह एक फैशनेबल जीवन जिया करते थे। खेड़ा के दौरान न सिर्फ उन्होंने अपने विदेशी कपडों और आरामदायक जीवन को त्याग दिया बल्कि वो किसानों के साथ रहने लगे। उनका साधारण खाना खाने लगे, जमीन पर सोने लगे और यहां तक कि अपने कपडे भी खुद धोने लगे। लेकिन उनकी जोरदार हंसी और विनोदी स्वभाव पहले की तरह बरकरार रहा।"

इसके बाद गांधी ने अहमदाबाद के कपड़ा मिलों की वेतन वृद्धि की लड़ाई लड़ी। उन्होंने घोषणा की कि जब तक उनके वेतन में 35 फीसदी की बढोत्तरी नहीं हो जाती वो अन्न को हाथ नहीं लगाएंगे। मालिकों को मजदूरों की मांग माननी पड़ी। ये गांधी का पहला राजनीतिक उपवास था।

1971 में अहमदाबाद के चंदूलाल दलाल ने एक किताब में नौ जनवरी, 1915 से लेकर 30 जनवरी, 1948 तक गांधी के भारत प्रवास के एक-एक दिन का ब्योरा दिया।

इसके अनुसार गांधी ने इस दौरान 12075 दिन बिताए। इसमें 4739 दिन वो अहमदाबाद और वर्धा में रहे, 2119 दिन उन्होंने ब्रिटिश जेलों में काटे, 5217 दिन वो सफर करते रहे। इस दौरान वो भारत के अलावा इंग्लैंड, बर्मा और श्रीलंका भी गए। इनमें से अधिकतर यात्राएं तीसरे दर्जे के डिब्बे में की गईं।

दांडी मार्च में वो कई दिनों तक पैदल भी चले। इसके अलावा उन्होंने कभी-कभी घोडे, हाथी और ऊंट की सवारी का सहारा भी लिया और नावों, स्टीमरों और कार की सवारी भी की।

अपनी इच्छा के विपरीत बहुत झिझकते हुए वो एक बार पालकी में भी चढे़ और एक बार उन्होंने साइकिल भी चलाई।


विदेश में कहां हैं महात्मा गांधी की सबसे ज्यादा प्रतिमाएं और स्मारक?

अमेरिका वह देश है, जहां बापू के स्मारक और प्रतिमाएं सबसे ज्यादा हैं. खास बात यह है कि बापू कभी अमेरिका नहीं गए थे. उनके अनुयायियों में यहां के दिग्गज नेता शामिल हैं. हालांकि इन प्रतिमाओं और स्मारकों की संख्या को लेकर कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है. लेकिन पीटीआई ने उपलब्ध स्रोतों के हवाले से जानकारियां जुटाई हैं.

अमेरिका में गांधी की दो दर्जन से ज्यादा से प्रतिमाएं हैं
यह जानकारी इस ओर संकेत करती है कि अमेरिका में महात्मा गांधी की दो दर्जन से ज्यादा से प्रतिमाएं हैं. यहां एक दर्जन से ज्यादा सोसाइटी और संगठन गांधी से जुड़े हैं. विख्यात भारतीय अमेरिकी सुभाष राजदान ने एक साक्षात्कार में बताया, '' भारत से बाहर अमेरिका में सबसे ज्यादा महात्मा गांधी के स्मारक और आवक्ष प्रतिमाएं हैं.''

1986 में न्यूयॉर्क सिटी के यूनियन स्क्वायर पार्क में गांधी की प्रतिमा लगी थी
गांधी से संबंधित पहला स्मारक केंद्र वाशिंगटन डीसी के मेरीलैंड के बेथिस्डा में स्थित गांधी मेमोरियल सेंटर (गांधी स्मृति केंद्र) में बना था. यह अब भी कार्यरत है और गांधी के विचारों और शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने में लगा है. वहीं दो अक्टूबर, 1986 में न्यूयॉर्क सिटी के लोकप्रिय यूनियन स्क्वायर पार्क में पहली बार गांधी की इतनी बड़ी प्रतिमा लगी थी.

अमेरिका में बड़ी संख्या में लोग गांधी के अनुयायी हैं
अटलांटा के द गांधी फाउंडेशन ऑफ यूएसए के अध्यक्ष राजदान अमेरिका में गांधी की कई प्रतिमाओं को स्थापित करने के काम में लगे हुए हैं. उन्हें 2013 में प्रवासी भारतीय सम्मान अवॉर्ड से सम्मानित किया गया था. प्रतिमाओं के अलावा अमेरिका में बड़ी संख्या में लोग गांधी के अनुयायी हैं. इसमें अश्वेत अधिकारों के लिए काम करने वाले मार्टिन लूथर जूनियर किंग शामिल हैं. वह गांधी की अहिंसा और सत्याग्रह की शिक्षाओं से काफी प्रभावित थे.

बराक ओबामा गांधी के विचारों के स्वघोषित अनुयायी रहे हैं
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा और कई अन्य नेता महात्मा गांधी के विचारों के स्वघोषित अनुयायी रहे हैं. यही वजह है कि भारत से बाहर सबसे ज्यादा संख्या में अमेरिका में गांधी की प्रतिमाएं और स्मारकें हैं. मौजूदा समय में महात्मा गांधी की प्रतिमा सभी मुख्य शहरों में हैं. इसमें वाशिंगटन डीसी भी शामिल है. यहां भारतीय दूतावास के सामने उनकी प्रतिमा है.

भारतीय दूतावास के सामने लगी है प्रतिमा
अमेरिका में भारतीय दूतावास के सामने लगी बापू की प्रतिमा का अनावरण पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने 16 सितंबर, 2000 में किया था. गांधी की आवक्ष प्रतिमा मार्टिन लूथर किंग मेमोरियल सिटी पार्क, डेनवर कोलोराडो; पीस गार्डन, फ्रेस्नो स्टेट यूनिवर्सिटी, फ्रेस्नो कैलिफोर्निया में है.

महात्मा गांधी की सात फुट लंबी कांसे की प्रतिमा का डेवी फ्लोरीडा में अनावरण पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने 2012 में किया था. वहीं 2017 में इलिनॉयस में महात्मा गांधी की एक आदमकद प्रतिमा लायन्स इंटरनेशनल के मुख्यालय में लगाई गई थी.





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