'राजनीति का धर्म ' या 'धर्म की राजनीति'

 


न्यूज डेस्क : धर्म का कार्य है लोगों को सदाचारी और प्रेममय बनाना और राजनीति का उद्देश्य है लोगों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुये उनके हित में काम करना. जब धर्म और राजनीति साथ-साथ नहीं चलते, तब हमें भ्रष्ट राजनीतिज्ञ और कपटी धार्मिक नेता मिलते हैं.एक धार्मिक व्यक्ति, जो सदाचारी और स्नेही है, अवश्य ही जनता के हित का ध्यान रखेगा और एक सच्चा राजनीतिज्ञ बनेगा एक सच्चा राजनीतिज्ञ केवल सदाचारी और स्नेही ही हो सकता है, इसीलिए उसे धार्मिक होना ही है। परन्तु राजनीतिज्ञ को इतना भी धार्मिक न होना है जो दूसरे धर्मों की स्वतन्त्रता और उनकी विधियों पर बंदिश लगाये। राजनीति और धर्म दोनों ही हर वर्ग के जीवन को प्रभावित करने वाले विषय है जो कभी भी एक दूजे से अलग न होसकते मगर राजनीति की दशा और दिशा के बारे में सोच बदलने की आवश्यकता है।

जॉर्ज बर्नाड शॉ क्रिश्चियन थे, पर उन्होंने अपनी वसीयत में यह लिखा था कि मेरी मृत्यु के बाद मेरे शरीर को अग्नि को समर्पित किया जाए। यह उदाहरण अपने आप में इतनी सारी बातें कहता है जिसमें व्यक्ति की स्वतंत्रता से लेकर धर्म के प्रति उसकी आसक्ति, अनासक्ति भाव सबकुछ आ जाता है। धर्म केवल नियम कानूनों में बँधना नहीं बल्कि धर्म इंसान को दूसरे इंसान के साथ इंसानियत का भाव बनाए रखने में मदद करता है। आज के परिप्रेक्ष्य में यही जरूरी है। हम न केवल धर्म को बल्कि साधारण सी समस्याओं का भी राजनीतिकरण करने से नहीं चूकते। जिसका परिणाम हम सभी देख रहे हैं।

कला, संस्कृति से लेकर भगवान भी राजनीति के कटघरे में खड़ा नजर आ रहा है। यह स्थिति क्यों बनी और क्या ऐसी ही स्थिति बनी रहेगी? मैं इसका हल शिक्षा में ढूँढता हूँ। हम धर्म का सही मायने में अर्थ ही समझ नहीं पाएँगे तब निश्चित रूप से इसका गलत उपयोग ही करेंगे। हमें अपने व्यवहार व आचरण को लेकर सोचना होगा और इस बात को ध्यान में लाना होगा कि इंसानियत से बड़ा कोई धर्म नहीं है।


हम भले ही किसी भी ओहदे पर बैठे हों और किसी भी प्रकार का काम कर रहे हों, अगर हम इंसानियत के धर्म को अपना पहला धर्म समझेंगे तब बाकी सभी कुछ आसान हो जाएगा और यह केवल शिक्षा से ही आ सकता है। धर्म के कई ठेकेदार अशिक्षित लोगों को बरगलाकर अपना उल्लू सीधा करते हैं। वे लोग शिक्षित लोगों पर अपनी दादागिरी से यह आदेश नहीं देते, क्योंकि उन्हें पता है कि शिक्षित व्यक्ति रुढ़िवादी और ढोंग में भरोसा नहीं करता, केवल अच्छे कर्म व इंसानियत को ही मानता है।


मेरा ऐसा व्यक्तिगत मत है कि धर्म की सही व्याख्या बच्चों को घरों में दिए जाने वाले संस्कारों में छिपी है। हम बच्चों को संस्कार देते समय सावधानी बरतते हैं और उन्हें भलाई, ईमानदारी के साथ जीवनयापन करने की बातें करते हैं पर स्वयं की बारी आने पर हम कायर, कपटी, झूठे, बेईमान बनने में किसी भी प्रकार की शर्म नहीं पालते।


भौतिकवादी जीवनशैली के चलते हम संस्कारों से लेकर धर्म को अपने अनुसार बदलने पर तुले हैं पर यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि यह बदलाव हमारे लिए भविष्य में सकारात्मक होगा या नकारात्मक। निश्चित रूप से अब तक जो स्वरूप सामने आया है वह नकारात्मक है। इस कारण अब हमें धर्म की व्याख्या करते समय इस बात का ध्यान आवश्यक रूप से रखना होगा कि हम राजनीति को अलग रखें और धर्म को अलग तभी इंसानियत धर्म के संस्कारों का बीजारोपण आगे आने वाली पीढ़ी में कर पाएँगे।



क्या वह राजनीति के धर्म का हक अदा कर रहे हैं ?.

भारत देश जिस ने पूरी दुनिया को (universal acceptance)का पाठ पढ़ाया हो जिस ने विश्व के सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार किया हो। वह भारत देश जो कभी सोने की चीड़या हुवा करता था जहाँ की गंगा जमुनी तेहज़ीब की दुहाई दी जाती थी, जहाँ विश्व् भर में सब से ज़्यादा भाषाएँ और धर्म में आस्था रखने वाले लोग रहते हों ,जहाँ की एकता और अखण्डता इतिहास रचता हो, जहाँ की सभ्यता को दूसरे देशों में मिसाल बताया जाता हो दरअसल भारत में राजनेताओं ने राजनीति का धर्म भुला कर अपनी ज़िम्मेदारी के क़र्ज़ को अपने से अलग कर दिया है.


क्यों किसी को हिंदुत्व खतरे में लगता है?

और धर्म की राजनीती करके देश ,राज्य के सत्ता को हथिया कर मुख्या के रूप में आसीन होना चाहते हैं। देश का कोई भी नागरिक चाहे वह किसी भी समुदाय से हो किसी धर्म में आस्था रखता हो उसको देश में किसी भी तरह का दंगा फसाद खून खराबा स्वीकार नहीं होगा .जहाँ केवल और केवल मानवता और मासूम की जान जाती हो। क्या हम और आप ने कभी इस बारे में सोचा है की हमारी भावना संवेदना क्यों उन राजनेताओं के हाथों में है जो कभी भी देश में शांति नहीं चाहते। क्यों किसी को हिंदुत्व खतरे में लगता है किसी को इस्लाम किसी को ईसाईयत खतरे में लगता है।


मानवता का धर्म

मगर इन सारी बातों इन सारे धर्मों से ऊपर जो मानवता का धर्म है उसकी फ़िक्र किसी को भी नहीं है। कहीं धर्म तो कहीं नस्लवाद की लड़ाई जारी है भारत में धर्म और नस्लवाल की लड़ाई को नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता देश की जनता की आँखें तरस गयी इस बात के लिए की जिस नेता को अपना बहुमूल्य वोट देके सत्ता तक पहुंचाया कभी वो जनता से किये गए वादों को पूरा करने हेतु सरकार से लड़ाई करता, कभी वो अपने क्षेत्र की जनता के लिए सस्ती शिक्षा,बेरोजगारी,स्वास्थ्य,बिजली,पानी जीवन सुरक्षा के मसले हल न होने के कारण अनशन करता।



धर्म को लेकर बहस छिड़ी हुई

आज देश के हर कोने में हर धर्म को लेकर बहस छिड़ी हुई है, इस लड़ाई में आज तक अनगिनत जानें जा चुकी हैं और न जाने कितनी और जानें जाती रहेगी. आज हर कोई मानवता के लिए बड़ी बड़ी बातें तो करता है, मगर कभी ईमानदारी से उसी मानवता की सेवा के लिए अपनी सोच बदलने की कोशिस की? कभी नहीं क्योंकि हमारी मानसिक्ता में व्योहारवाद ही नहीं । हम एक ऐसे माहोल में जीते हैं जहां परम्पराओं को तोडक़र उस से आगे की सोचना हमारे आचरण में नहीं है.या अंधविश्वास की बंदिश से आज़ाद होना हमारे बस में नहीं , यही कारण है कि हम अपने असली धर्म और उसकी परिभाषा को भूल गए है।

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