Andama and Nikobar कैसे बना भारत का अंग जानिए...



Andama and Nikobar : भारत का जो हिस्सा आजादी से पहले आजाद हो गया था, वो अंडमान और निकोबार द्वीप समूह थे. 1942 में जापान ने इसे ब्रिटेन से जीत लिया. इसके बाद उन्होंने इसे 29 दिसंबर 1943 को आजाद हिंद सरकार को सौंप दिया. सुभाष चंद्र बोस वहां तिरंगा फहराने गए. लौटकर रंगून में आजाद हिंद रेडियो पर उन्होंने इसके बारे में भाषण भी दिया. 

भारत की आजादी के ठीक बाद की बात है. भारत और पाकिस्तान दोनों, रियासतों को लुभाने की कोशिश में थे. ये प्रक्रिया चल ही रही थी कि सरदार पटेल को लक्षद्वीप का ख्याल आया. आधिकारिक तौर पर लक्षद्वीप मद्रास प्रेसिडेंसी के अंतर्गत आता था. इसलिए भारत का लक्षद्वीप पर जायज हक़ था. लेकिन जिन्ना की सोच अलग थी. लक्षद्वीप की बहुसंख्यक जनता मुस्लिम थी. इसलिए उन्हें लग रहा था कि उसे पाकिस्तान के हिस्से में आना चाहिए. उन्होंने पाकिस्तानी नेवी का एक फ्रिगेट शिप लक्षद्वीप की ओर रवाना किया. पाकिस्तानी फौज पहुंची तो उन्होंने देखा कि वहां भारत का झंडा लहरा रहा था. भारत पाकिस्तान से पहले ही लक्षद्वीप पर अपना हक जमा चुका था. लेकिन मामला बिलकुल उन्नीस बीस था.


उस समय अगर सही वक्त पर सरदार पटेल ने भारत की नेवी शिप को लक्षद्वीप के लिए रवाना नहीं किया होता तो संभव था कि लक्षद्वीप पाकिस्तान के हिस्से में आ जाता. लक्षद्वीप की ही तरह अण्डमान-निकोबार का सवाल भी था. लेकिन यहां कमान संभालने वाले थे सरकार में सरदार पटेल के साथी, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू. पाकिस्तान अण्डमान-निकोबार को छोड़ने की फिराक में कतई नहीं था. उसका कहना था कि बंगाल की खाड़ी में होने के चलते अण्डमान-निकोबार उसे दिया जाना चाहिए, लेकिन फिर नेहरू की चाल ने पाकिस्तान के मंसूबों पर पानी फेर दिया. अण्डमान-निकोबार कैसे भारत का हिस्सा बने? आइये जानते हैं.


अण्डमान-निकोबार का इतिहास

इतिहास की बात करें तो चोल साम्राज्य के महाराजा राजेंद्र चोल द्वितीय, वो पहले शासक थे, जिन्होंने अण्डमान-निकोबार को एक नेवल बेस की तरह इस्तेमाल करना शुरू किया. उस दौर में इन्हें मा-नक़्क़वरम के नाम से जाना जाता था. मार्को पोलो ने अपने यात्रा वृतांतों में इन्हें नेकुवेरन आइलैंड नाम से दर्ज़ किया है. 17 वीं शताब्दी में मराठा साम्राज्य के सेनापति कान्होजी आंग्रे ने अण्डमान में अपना नेवल बेस बनाया. और 1755 आते-आते इस द्वीप पर यूरोपियन लोगों का आगमन होने लगा. दिसंबर 1755 में डेनिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी इस द्वीप पर आने वाले पहले यूरोपियन थे. और उन्होंने इसे नाम दिया, न्यू डेनमार्क. 18 वीं सदी में कई दशक ऐसे रहे जिनमें अण्डमान-निकोबार को मलेरिया के प्रकोप के चलते छोड़ना पड़ा.


जिसके चलते एक बार तो यूं हुआ की ऑस्ट्रिया को गलतफहमी हो गई. उन्हें लगा डेनमार्क ने द्वीप खाली कर दिया है. और उन्होंने इस द्वीप समूह का नाम नाम थेरेसा आइलैंड्स रख दिया. 1858 में ब्रिटिशर्स ने पहली बार अण्डमान में अपनी कॉलोनी बनाई और यहां सेलुलर जेल बनाकर अपराधियों और विरोधियों को सजा के लिए भेजने लगे. 16 अक्टूबर, 1869 वो तारीख थी जब ब्रिटेन ने अण्डमान-निकोबार को डेनमार्क से खरीदा और इसके ठीक 24 दिन बाद, 9 नवंबर 1869 को अण्डमान-निकोबार पूरी तरह से ब्रिटिश इंडिया का हिस्सा बन गए.


अंग्रेज़ नहीं छोड़ना चाहते थे अपना हक़ 

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान 1943 में जापान ने अण्डमान-निकोबार पर हमला किया. और यहीं पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिन्द की अंतरिम सरकार की स्थापना की. बहरहाल 1945 में जापान की हार के बाद अण्डमान-निकोबार दुबारा ब्रिटिशर्स के कब्ज़े में आ गए. हालांकि जल्द ही ये उनके गले ही हड्डी बनने वाले थे. जब बंटवारे की बात आई तो पूरे ब्रिटिश इंडिया की तरह अण्डमान-निकोबार का भी सवाल उठा. अंग्रेज़ इसे अपने हाथ से नहीं निकलने देना चाहते थे. उनके लिए ये द्वीप सामरिक महत्त्व के थे. क्योंकि यहां से न्यूज़ीलैण्ड और ऑस्ट्रलिया की कॉलोनियों को डायरेक्ट सपोर्ट मिलता था. 13 जून, 1947 की एक रिपोर्ट बताती है कि ब्रिटिश मिलिट्री इन द्वीपों को ब्रिटेन के कब्ज़े में ही रखना चाहती थी. फैसला इंडिया इंडिपेंडेंस कमिटी को करना था. वहीं वाइसरॉय लार्ड माउंटबेटन चाहते थे कि बंटवारे का मसला निपटा कर जल्द से जल्द यहां से निकला जाए. इंडिया इंडिपेंडेंस बिल के ड्राफ्ट के 16 वें आर्टिकल में अण्डमान-निकोबार का मुद्दा था. लेकिन ये बात भारतीय राजनेताओं को नहीं मालूम थी कि अंग्रेज़ अण्डमान-निकोबार को लेकर क्या सोच रहे हैं.


इस मामले में माउंटबेटन और इंडिपेंडेंस कमिटी के बीच कई ख़ुफ़िया खतों का आदान-प्रदान हुआ. माउंबेटन का मत था कि अण्डमान-निकोबार के लिए बीच का रास्ता निकालना चाहिए. उन्होंने शुरुआत में ये प्रस्ताव दिया कि भारत और ब्रिटेन अण्डमान-निकोबार को संयुक्त कंट्रोल में ले लें या ब्रिटेन इन द्वीपों को लीज़ पर मांग ले. इसी बीच जून मध्य में टाइम्स ऑफ इंडिया ने ये खबर लीक कर दी. खबर में लिखा था,


“नए समझौते के तहत अण्डमान-निकोबार ब्रिटेन को दिए जाने वाले हैं”


मुद्दा बाहर आ चुका था. माउंटबेटन जानते थे कि अण्डमान-निकोबार के मुद्दे पर भारत में एक और विद्रोह खड़ा हो सकता है. और तब उनका शांतिपूर्वक यहां से निकलना मुश्किल हो जाएगा. जबकि इंडिपेंडेंस कमिटी आख़िरी वक्त तक अण्डमान-निकोबार को अपने हाथ से निकलने नहीं देना चाहती थी.


जिन्ना के तीन तर्क

आर्मी चीफ ऑफ स्टाफ ने ब्रिटिश कैबिनेट को एक नया रास्ता सुझाया. उन्होंने एक त्रिपक्षीय समझौते की सलाह दी.क्या था ये त्रिपक्षीय समझौता? इसमें कहा गया कि अण्डमान-निकोबार के लिए एक अलग कमिशनर नियुक्त किया जाए. जो सीधे गवर्नर-जनरल अंडर काम करेगा. जब तक अण्डमान-निकोबार की स्थिति साफ़ नहीं हो जाती, भारत पाकिस्तान को विश्वास में लेकर यही स्थिति मेंटेन रखी जाए. माउंटबेटन ने इससे अलग सलाह दी. उनका कहना था कि अभी के लिए अण्डमान-निकोबार की स्वायत्ता तय कर दी जाए. और आगे जाकर, जरुरत के हिसाब से, भारत से समझौता कर लिया जाएगा. माउंबेटन ने इस मुद्दे पर नेहरू से बात की. नेहरू भी इसके लिए तैयार हो गए कि ऐसे किसी प्रस्ताव को भारत जरूर देखेगा, हालांकि उन्होंने इस बात की कोई गारंटी नहीं दी कि ऐसा कोई समझता होगा ही होगा.


नेहरू और माउंटबेटन के बीच ये बात चल ही रही थी कि तभी एक तीसरे प्लेयर की एंट्री हुई- मुस्लिम लीग. जिन्ना ने दावा किया कि बाकी भारत की तरह अण्डमान-निकोबार का भी बंटवारा होना चाहिए. उन्होंने अण्डमान-निकोबार पर पाकिस्तान का दावा पेश करते हुए कुछ तर्क रखे. क्या थे ये तर्क?

पहला - जिन्ना का कहना था कि पाकिस्तान एक होकर भी दो है. जिसके दो हिस्सों के बीच में भारत पड़ता है. संभव है कि अगर किसी दिन भारत ने रास्ता देना बंद कर दिया तो पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान के बीच सिर्फ समंदर से रास्ता बचेगा और ऐसे में उनके लिए अण्डमान-निकोबार का महत्त्व बहुत बड़ जाता. जिन्ना का दूसरा तर्क ये था कि अण्डमान-निकोबार ऐतिहासिक रूप से भारत का हिस्सा नहीं रहे. वहां की अधिकतर जनसंख्या आदिवासी है. और उनके भारत से न तो धार्मिक, न ही सांस्कृतिक रूप से सम्बन्ध रहे हैं.


नेहरू की चाल

जिन्ना की कोशिश थी कि हिन्दू-मुस्लिम वाला एंगल इस्तेमाल में लाया जाए. क्योंकि अभी तक ये ही तय हुआ था कि हिन्दू बहुल इलाके भारत में आएंगे. और मुस्लिम बहुल पाकिस्तान में. जिन्ना ने इसी वास्ते ब्रिटेन के प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली और विपक्ष के नेता विंस्टन चर्चिल को एक खत भी लिखा. चर्चिल जिन्ना के अच्छे दोस्त थे. वहीं एटली ने भी जिन्ना का पक्ष लिया. उन्होंने वाइसरॉय माउंटबेटन को खत लिखकर उनसे राय पूछी. माउंटबेटन ने नेहरू से उनकी राय पूछी. और नेहरू 1941 की जनगणना लेकर आ गए. जिसके हिसाब से अण्डमान-निकोबार की जनसंख्या 34 हजार के आसपास थी. इनमें 8 हजार मुसलमान, 12 हजार, हिन्दू सिख ईसाई मिलाकर और बाकी आदिवासी थे.


जिन्ना ने जवाब में कहा कि इससे ये ही साबित होता है कि हिन्दू यहां बहुसंख्यक नहीं है. तब नेहरू ने नहले पर दहला मारते हुए कहा कि द्वीप की बहुसंख्यक जनसंख्या नॉन मुस्लिम है. इसलिए इसे पाकिस्तान में नहीं दिया जा सकता. साथ ही उन्होंने भारत और अण्डमान के ऐतिहासिक रिश्तों की याद दिलाते हुए बताया कि अण्डमान में काफी संख्या में लोग मद्रास, केरल और बंगाल से आकर बसे हैं. और यहां का न्यायतंत्र भी कलकत्ता हाई कोर्ट के अधीन आता है. इसलिए भारत का अण्डमान-निकोबार पर हक़ साबित होता है.

अब सिर्फ एक सवाल बाकी था. क्या हो अगर भारत किसी दिन पाकिस्तान को अपने एयरस्पेस का इस्तेमाल करने से रोक दे तो? इस पर नेहरू ने समुंद्री रास्ते का मैप मंगाया और साबित कर दिया कि कराची से चिटगांव के रास्ते में अण्डमान या निकोबार जाने की जरुरत नहीं है. माउंटबेटन ने यही जवाब एटली को भेजा. एटली इतने पर भी तैयार न हुए. उन्होंने एक नया प्रस्ताव देते हुए कहा कि जब तक अण्डमान-निकोबार का हल न हो, इसे इंडिपेंडेंस बिल से अलग रखा जाए. अब आख़िरी बॉल माउंटबेटन के पाले में थी. उन्होंने इंडिपेंडेंस कमिटी को राय देते हुए कहा कि बंटवारे की अंतिम घड़ी में अण्डमान निकोबार को लेकर बात बिगड़ सकती है. इसलिए इस मुद्दे पर ब्रिटेन बाद में अलग से भारत से चर्चा करे.


आखिरकार माउंटबेटन की बात मान ली गई. और अण्डमान-निकोबार भारत के हिस्से दे दिया गया. इसका एक बड़ा कारण ये भी रहा कि एटली को उम्मीद थी कि नेहरू और माउंटबेटन की दोस्ती के चलते आगे जाकर उन्हें अण्डमान में पोस्ट बनाने की इजाजत मिल जाएगी. हालांकि ऐसा हुआ नहीं. नेहरू ने ब्रिटेन से ऐसा कोई समझौता करने से इंकार कर दिया, जिसमें भारत की जमीन को विदेशी मिलिट्री पोस्ट के तौर पर इस्तेमाल किया जा सके.


अंडमान निकोबार से जुड़ा सुरक्षा का सवाल

सूनामी से मची तबाही के बाद विदेशी सहायता एजेंसियों ने अंडमान निकोबार में काम करने की इजाज़त नहीं देने के लिए भारत सरकार की कड़ी आलोचना की है.


भारत की ग़ैरसरकारी सहायता संस्थाओं को भी राजधानी पोर्ट ब्लेयर से आगे जाने नहीं दिया गया.


सरकार का कहना है कि वह अपने दम पर राहत कार्य करने में सक्षम है. सुरक्षा चिंताओं और आदिम जनजाति समुदाय के संरक्षण का भी तर्क दिया जाता है.


आख़िर बात क्या है? अंडमान निकोबार के लिए ऐसी नीतियों की वजह क्या हो सकती है?


अंडमान निकोबार द्वीप समूह भारत की मुख्य भूमि से 1200 किलोमीटर दूर सामरिक रूप से महत्वपूर्ण क्षेत्र में अवस्थित है.


इस द्वीप समूह का सबसे दक्षिणी हिस्सा इंडोनेशिया के सुमात्रा द्वीप से मात्र 150 किलोमीटर दूर है. इसी तरह इसका सबसे उत्तरी हिस्सा बर्मा के नियंत्रण वाले कोको द्वीप से सिर्फ 50 किलोमीटर की दूरी पर है.


वास्तव में अंडमान निकोबार दक्षिणी-पूर्वी एशिया में भारत के पाँव जमाने का ज़रिया है.


दिल्ली स्थित रक्षा अध्ययन और विश्लेषण संस्थान के कमोडोर सी उदय भास्कर कहते हैं, "अंडमान निकोबार द्वीप समूह की स्थिति बहुत ही महत्वपूर्ण है. यहाँ से खाड़ी और मलक्का जलडमरूमध्य के बीच के नौवहन पर नज़र रखी जा सकती है."


यह स्थिति क्षेत्रीय नौसैनिक ताक़त बनने की भारत की महत्वाकांक्षा के अनुरूप है.


अंडमान के प्राकृतिक बंदरगाह जहाज़ों और पनडुब्बियों के अनुकूल माने जाते हैं.


पाकिस्तान के विरोध के बावजूद 1947 में देश के विभाजन के समय अंडमान निकोबार भारत का हिस्सा बना.


लेकिन भारत सरकार का ध्यान मुख्य भूमि के विकास पर ही होने के कारण यह द्वीप समूह जनता की नज़रों से दूर ही रहा.


अंडमान निकोबार की सामरिक स्थिति का महत्व पहली बार 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय दिखा, जब भारतीय नौसेना ने इसका इस्तेमाल तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान के जहाज़ों और नौसैनिक ठिकानों को ध्वस्त करने में किया.


उसके बाद के वर्षों में यहाँ नौसेना और वायुसेना के अड्डों को और मज़बूत बनाया गया.


लेकिन अंडमान निकोबार की सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण अवस्थिति के बावजूद 1990 के दशक शुरू में इसके विकास पर रक्षा ख़र्च में कमी और आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होने का बुरा असर पड़ा.


पर उसके बाद भाजपा के नेतृत्व में आई एनडीए सरकार ने रक्षा क्षेत्र में निवेश को एक बार फिर बढ़ाया और 2001 में अंडमान में सशस्त्र सेनाओं और तटरक्षक बलों की संयुक्त कमान स्थापित की.


इस कमान की स्थापना का उद्देश्य था क्षेत्र में नौवहन गतिविधियों पर नियंत्रण, समुद्र होकर आतंकवादी कार्रवाई करने वाले गिरोहों और समुद्री लुटेरों पर नियंत्रण.


ऐसी भी ख़बरें सामने आई थीं कि भारत अपने परमाणु कमान का कुछ हिस्सा अंडमान निकोबार में भी तैनात करेगा.


रक्षा मामलों के विशेष के सुब्रमण्यम इस संभावना से इनकार करते हुए कहते हैं, "कोई भी अपनी परमाणु साजोसमान को इतने सुदूरवर्ती इलाक़े में नहीं रखना चाहेगा."


एक और रक्षा विश्लेषक सुबा चंद्रन अंडमान स्थिति रक्षा प्रतिष्ठानों को लेकर भारत की संवेदनशीलता को शीतयुद्धकालीन मानसिकता मानते हैं.


अभी ये स्पष्ट नहीं है कि कार निकोबार वायुसेना अड्डा नष्ट होने के अलावा भारतीय सशस्त्र सेनाओं को अंडमान निकोबार में कितना नुकसान हुआ है. लेकिन इतना तो तय है कि सूनामी से मची तबाही के बाद भारत के सैन्य विशेषज्ञ अंडमान निकोबार में अपनी उपस्थिति बढ़ाने की अपनी किसी योजना पर फिर से विचार करने को बाध्य होंगे.

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