"द ग्रेट चमार" का बोर्ड देखकर हंसने वाले... "चमार रेजीमेंट" के बारे में अवश्य जान ले...
आज हम जानेंगे चमार रेजिमेंट के बारे में, उसकी हिस्ट्री के बारे में। जानेंगे कि कैसे इस रेजिमेंट ने अपने शौर्य का लोहा मनवाया और कैसे इस रेजिमेंट के शौर्य को इतिहास पन्नों में उस तरह सम्मान नहीं दिया गया जैसा देना चाहिए। वो साल 1818 था जब ब्रिटिश आर्मी और मराठा संघ के पेशवा शासकों के बीच युद्ध हुआ। ये युद्ध था हुए भीमा-कोरेगांव युद्ध, जिसको दलित समय समय पर अपनी अस्मिता से जोड़ा करते हैं। दरअसल, तब ऐसा वक्त था जब महार समुदाय को अछूत समझा जाता था और इसी महार के लोग कंपनी की फौज में बतौर सैनिक तैनात किए गए थे। इस जंग में अंग्रेजों की ओर से महारों नेलड़ते हुए पेशवा की बड़ी सेना मात दी थी।.
हालांकि अगर चमार रेजिमेंट और महार सैनिकों का जो युद्ध हुआ भीमा-कोरेगांव का इन दोनों में बहुत बड़ा फर्क है और वो ये कि महार अंग्रेजों की ओर से जहां लड़ रहे थे तो वहीं चमार रेजिमेंट ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया था वो भी आजाद हिंद फौज के लिए। अंग्रेजों ने चमार रेजिमेंट के सैनिकों को सबसे पॉवरफुल जापानी सेना से लड़ने के लिए भेजा पर उन्होंने इन सैनिकों को जब आईएनए से लड़ने को कहा. तो उन्होंने बगावत किया और इस बगावत के रास्ते को सही समझा। दलितों की बहादुरी का बेजोड नमूना महारों ने दिखाया था दो सौ साल पहले तो वहीं बहादुरी चमार रेजिमेंट में भी था। चमार रेजिमेंट पर स्टडी करने वाले लोगों की मानें तो दूसरे विश्वयुद्ध के वक्त चमार रेजिमेंट अंग्रेज सरकार ने बनाई थी जो कि 1943 से 1946 तक बस तीन साल ही इस रेजिमेंट ने अपना जौहर दिखाया। मतलब ये कि अस्तित्व में ये रेजिमेंट काफी कम समय तक के लिए रहा। तो वहीं कहीं कहीं ऐसी बातें सामने आती हैं कि ये रेजीमेंट काफी पहले से थी।
क्या आप जानते हैं कि चमार रेजीमेंट को आखिरकार खत्म कर दिया गया लेकिन क्यों? बताया जाता है कि एक समय था, जब अंग्रेजों ने चमार रेजिमेंट को बैन कर दिया था। चलिए इस बारे में भी जान लेते हैं तो हुआ ये कि आजाद हिंद फौज से मुकाबला करने के चमार रेजिमेंट को अंग्रेजों ने सिंगापुर भेजा तब रेजिमेंट को कैप्टन मोहनलाल कुरील लीड कर रहे थे, जिन्होंने साफ साफ देखा कि कैसे चमार रेजिमेंट के सैनिकों के हाथों अंग्रेज हमारे देशवासियों को मरवा रहे हैं। फिर क्या था उन्होंने इसको आईएनए में शामिल किया और अंग्रेजों से भिड़ जाने का निर्णय लिया। अंग्रेजों ने 1946 में तब जाकर इसको बैन कर दिया। अंग्रेजों से लड़ते हुए सैकड़ों सैनिकों की जान गई तो कुछ म्यांमार और थाईलैंड के जंगलों गए और उधर ही भटक कर रह गए और जब पकड़े गए तो उनको भी मार दिया गया।.
कैप्टन मोहनलाल कुरील को भी बंदी बनाया गया पर फिर आजाद भारत में उनको रिहा भी कर दिया गया। साल 1952 में उन्नाव की सफीपुर विधानसभा से वो चुनाव भी जीते।
रेजीमेंट पर लिखी गई है किताब
हवलदार सुलतान सिंह ने ‘चमार रेजीमेंट और अनुसूचित जातियों की सेना में भागीदारी’ शीर्षक से किताब लिखी. दूसरी किताब सतनाम सिंह ने ‘चमार रेजीमेंट और उसके बहादुर सैनिकों के विद्रोह की कहानी उन्हीं की जुबानी’ नाम से लिखी. इस समय सेना में मराठा लाइट इन्फेंट्री, राजपूताना राइफल्स, राजपूत रेजिमेंट, जाट रेजिमेंट, सिख रेजिमेंट, डोगरा रेजिमेंट, नागा रेजिमेंट, गोरखा रेजीमेंट हैं.
1 मार्च 1943 को रेजिमेंट की स्थापना हुई, रेजिमेंट को शुरू में 268वीं भारतीय इन्फैंट्री ब्रिगेड को सौंपा गया था, जो जुलाई 1943 में 43वीं आर्मर्ड डिवीजन का हिस्सा थी और जब 44वीं आर्मर्ड डिवीजन बनाने के लिए डिवीजन को तोड़ दिया गया तो चमार रेजिमेंट को इसमें शामिल कर लिया गया।बाद में, चमार रेजिमेंट 23वें भारतीय इन्फैंट्री डिवीजन का हिस्सा बन गई । 1944 के मध्य में, रेजिमेंट की पहली बटालियन नागालैंड में इंपीरियल जापानी सेना के खिलाफ लड़ने के लिए बर्मा अभियान के लिए प्रतिबद्ध थी । लड़ाई तीन महीने तक चली, इस दौरान रेजिमेंट ने कोहिमा की लड़ाई में भाग लिया ।
चमार रेजिमेंट ने युद्ध के क्षेत्र में अपनी अलग पहचान बनाई। यह उस बल का हिस्सा था जिसने इम्फाल की घेराबंदी हटा ली और सेना की अन्य इकाइयों के साथ बर्मा को मुक्त करके शाही सेना के खिलाफ आगे बढ़ा। उन्होंने कमो, टोक्यो, इंफाल, मंडला, बर्मा, रंगून पर हमले में भी भाग लिया और जापानी सैनिकों के शहर को साफ कर दिया। 1945 के मध्य तक चमार रेजिमेंट ने पूरे बर्मा को जापानी कब्जे से मुक्त कराने में मदद की थी। जापान पर परमाणु बम गिराए जाने से जापान का आत्मसमर्पण हो गया।